Election Fever in Indore-2: ढाई दशक से भाजपा के सामने यहां कोई बड़ी चुनौती नहीं!

इस बार भी भाजपा का पलड़ा कांग्रेस से बहुत ज्यादा भारी!

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Election Fever in Indore-2: ढाई दशक से भाजपा के सामने यहां कोई बड़ी चुनौती नहीं!

राजनीतिक समीक्षक हेमंत पाल का विश्लेषण 

Indore : शहर के मिल क्षेत्र की विधानसभा सीट-2 चर्चित राजनीतिक इलाकों में से एक है। ये बरसों तक मिल मजदूरों का क्षेत्र रहा। मजदूर बहुल होने से यहां ट्रेड यूनियनों का भी दबदबा रहा। लेकिन, अब यह भाजपा का परंपरागत गढ़ बन चुका है। यहां के राजनीतिक समीकरण कई बार बदले, पर कैलाश विजयवर्गीय यहाँ से लगातार 4 बार चुनाव जीते! उसके बाद उनके विश्वस्त साथी रमेश मेंदोला यहाँ से पिछले दो चुनाव बहुत बड़े अंतर से जीते।

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इस सीट पर पिछले दो दशक से ज्यादा समय से भाजपा की जड़ें, इतनी गहरी हो गईं है कि उसे चुनौती देना कांग्रेस के लिए संभव नहीं लगता। इस क्षेत्र से कांग्रेस 1993 के बाद से कभी नहीं जीती! 2013 का विधानसभा चुनाव कांग्रेस रमेश मेंदोला यहां से 90 हजार से ज्यादा वोटों से जीते थे। जबकि, 2018 में भी जीत का अंतर करीब 60 रहा था। मध्यम वर्ग और निम्न मध्यम वर्ग के मतदाताओं की बड़ी आबादी के बीच पहले यहां राजनीतिक नेतृत्व बड़ा मुद्दा रहा। लेकिन, कैलाश विजयवर्गीय ने अपने कार्यकाल में यहाँ का चेहरा पूरी तरह बदल दिया। अब यहाँ चौड़ी सड़कें, जन सुविधाएं, सराफा बाजार और बड़े-बड़े ब्रांड शो रूम हैं।

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ऐसी स्थिति में राजनीतिक रूप से यहां विधानसभा चुनाव में भी भाजपा को कोई बड़ी चुनौती मिलेगी, ऐसा नहीं लग रहा। इस क्षेत्र की बड़ी खासियत है कि यहां के सामाजिक कार्यकर्ता भी राजनीतिक रूप से काफी सक्रिय हैं। इस विधानसभा क्षेत्र में भाजपा ने अपनी सनातनी छवि से पकड़ बनाई है। प्रवचन, भंडारे, भजन और हिंदूवादी गतिविधियों से यहां भाजपा न सिर्फ मजबूत हुई, बल्कि, उसने इसे अपना राजनीतिक हथियार बना लिया।

जहां तक विधायक रमेश मेंदोला की परफॉर्मेंस का सवाल है, तो उसमें किसी को कोई शिकायत नहीं। क्षेत्र में ऐसी कोई बड़ी समस्या भी नहीं है, जिसे चुनौती माना जाए। पाटनीपुरा और मालवा मिल चौराहे की व्यवस्थित विकास योजना जरूरी है, जिससे ट्रैफिक की समस्या का निराकरण हो। जहां तक कांग्रेस की बात है, तो यहां इस पार्टी को पिछले 6 विधानसभा चुनाव में सफलता नहीं मिली। कांग्रेस औपचारिकता विरोध के लिए चुनाव लड़ती रही है। विधायक रमेश मेंदोला की एक खासियत कही जाना चाहिए कि वे कम बोलते हैं और मंच पर बोलने से भी बचकर रहते हैं। अमूमन नेताओं के साथ ऐसा नहीं देखा जाता, पर मेंदोला को इस मामले में कुछ अलग तरह का नेता कहा जा सकता है।

कांग्रेस की चुनौती में कितना दम

मिल क्षेत्र की इस सीट से अभी तक कृपाशंकर शुक्ला, डॉ रेखा गांधी, अजय राठौर और सुरेश सेठ जैसे बड़े भी नेता कैलाश विजयवर्गीय और रमेश मैंदोला से हार चुके हैं। कभी कांग्रेस का गढ़ रहे, इस विधानसभा क्षेत्र में आज कांग्रेस का कोई दमदार नेता नहीं है, जो कांग्रेस के लिए भाजपा के इन नेताओं राजनीतिक लड़ाई लड़ सके।

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2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने मोहन सेंगर को चुनाव लड़वाया, जो अंततः कमजोर उम्मीदवार साबित हुए। सिंधिया समर्थक रहे मोहन सेंगर भी अब पाला बदलकर भाजपा में चले गए! इस बार कांग्रेस ने चिंटू चौकसे को रमेश मेंदोला के सामने मैदान में उतारा है। लेकिन, लगता नहीं कि इस विधानसभा सीट पर कांग्रेस किसी भी तरह से भाजपा को चुनौती दे सकेगी।

क्या कहता है चुनावी इतिहास

1977 के विधानसभा चुनाव में यहाँ से यज्ञदत्त शर्मा ने कांग्रेस के टिकट पर चुनाव जीतकर यहां कि ट्रेड यूनियन राजनीति में पहली बार सेंध लगाई थी। 1980 में यहाँ से कांग्रेस के कन्हैयालाल यादव ने चुनाव जीता था। 1985 में कन्हैयालाल यादव (कांग्रेस) ने फिर अपनी जीत को दोहराया। इसके बाद 1990 में पत्रकार और कांग्रेस के दबंग नेता सुरेश सेठ ने जीत दर्ज की। इसके बाद से यहाँ कांग्रेस का कोई नाम लेवा नहीं बचा।

1993 में पहली बार कैलाश विजयवर्गीय ने यहाँ भाजपा की जीत का झंडा ऐसा गाड़ा, जो कांग्रेस आजतक उखाड़ नहीं सकी। इसके बाद 1998, 2003 और 2008 में भी कैलाश विजयवर्गीय का परचम लहराता रहा। 2013 में कैलाश विजयवर्गीय ने यह सीट अपने साथी रमेश मेंदोला के लिए छोड़ी और खुद महू से चुनाव लड़ने चले गए थे। उसके बाद रमेश मेंदोला ने यहाँ लगातार दो बार (2013 और 2018) बड़े अंतर से जीत का रिकॉर्ड बनाया। 2023 में भी रमेश मेंदोला को कोई चुनौती दिखाई नहीं देती।