

दुख की घड़ी में भी जरूर दें..मदद का लिफाफा !!
संजीव शर्मा की खास रिपोर्ट
मोबाइल की एक छोटी सी दुकान चलाने वाले मध्यमवर्गीय परिवार के एकमात्र कमाऊ व्यक्ति का एक्सीडेंट हो गया। दुर्घटना में वह अपना एक पैर और हाथ तुड़वा कर तीन माह के लिए बिस्तर पर आ गए। ऐसी अवस्था में तो दुकान खोल नहीं सकते थे इसलिए जमा पूंजी की एकमात्र सहारा थी।
उधर,एक्सीडेंट की खबर सुनते ही उनके रिश्तेदारों, करीबी लोगों, दोस्तों, आस पड़ोस के लोगों का आना-जाना शुरू हो गया । यह सामाजिक भी है और दुर्घटना में घायल हुए व्यक्ति को मानसिक संबल प्रदान करने के लिए जरूरी भी। आखिर, दुख की घड़ी में ही तो अपने लोग काम आते हैं। आसपास के लोग तो दिनभर में मिलकर चले जाते थे लेकिन जो रिश्तेदार दूसरे शहरों से आए थे, उन्हें एक से दो दिन रुकना भी पड़ता था । जो ज्यादा करीबी रिश्तेदार थे उन्हें अपना फर्ज समझ कर ज्यादा दिन भी रुकना पड़ा । इस तरह करीब दो महीने गुजर गए।
एक दिन रात को पत्नी ने घायल पति को बताया कि हमारे ऊपर करीब 30 हजार रुपए का कर्ज हो गया है । पति ने पूछा की अस्पताल में तो इलाज में इतने पैसे नहीं लगे फिर कर्ज क्यों लेना पड़ गया। पत्नी ने बताया कि अस्पताल का खर्च तो मामूली था लेकिन दुर्घटना के बाद आपको देखने आ रहे रिश्तेदारों, पड़ोसियों और करीबी लोगों की आवभगत के लिए यह कर्ज लेना पड़ा है क्योंकि कमाई का जरिया अपनी दुकान बंद है और इस अतिरिक्त खानपान खर्च को पूरा करने का कोई और रास्ता नहीं है।
सोचिए, कभी-कभी हमारा कोई सामाजिक उत्तरदायित्व किस तरह किसी परिवार के लिए संकट का कारण बन जाता है? हो सकता है और होगा भी, कि उनको देखने आए रिश्तेदार या पड़ोसी सच्चे मन से उनकी मदद और उनकी बेहतरी की कामना करने आए हो लेकिन उनका आना-जाना उस परिवार पर इतना भारी पड़ा कि यह कामना उनके लिए आपदा बनकर रह गई ।
यहां तो महज एक दुर्घटना की बात है लेकिन कई परिवारों में जब घर का एकमात्र कमाऊ सदस्य असमय छोड़कर चला जाता है तो उस परिवार पर क्या गुजरती होगी। ऐसी सूरत में भी उस परिवार के दुख में दुखी रिश्तेदारों का हफ्तों तक बने रहना उस दुखी परिवार के लिए संबल से ज्यादा संकट का कारण बन जाता है। आखिर, कमाई का कोई साधन नहीं होने के बाद भी उन्हें मन मारकर सामाजिक प्रतिष्ठा के नाम पर लोगों की आवभगत करनी पड़ती है और परिवार कर्ज के जाल में फंस जाता है।
क्या ऐसा नहीं हो सकता कि जैसे हम शादी या अन्य खुशियों के मौके पर अपनी ओर से शगुन का लिफाफा देते हैं तो वैसे ही बीमारी या आड़े वक्त में भी शगुन नहीं तो मदद का लिफाफा देकर पीड़ित परिवार का बोझ कुछ कम करने का प्रयास करें। इससे मानसिक सहयोग के साथ-साथ उस परिवार की आर्थिक सहायता भी हो जाएगी। इसका सबसे आसान उपाय तो यह हो सकता है कि हम पीड़ित व्यक्ति या परिवार से मिलने, आने जाने और वहां रुकने पर जो भी धनराशि खर्च करते हैं उसे ही मदद का लिफाफा बनाकर उस परिवार को दे दें । यहां शगुन या मदद का लिफाफा शब्द सुनने में भले ही अटपटे लग रहे हों लेकिन यहां इनका अर्थ दुख की घड़ी में अच्छे मन से किसी की मदद करना है।
जरूरी नहीं है कि आप 5 हजार या 10 हजार रुपए ही दें बल्कि 500, एक हजार और दो हजार रुपए जैसी रकम देकर भी उस परिवार की बहुत मदद कर सकते हैं। इसका फायदा यह होगा कि एक तो दुखी परिवार को हमारी आवभगत पर फिजूल पैसा खर्च नहीं करना पड़ेगा। उल्टा हम अपने आने जाने का खर्च बचाकर उनकी जो मदद करेंगे उससे हम पर तो कोई अतिरिक्त आर्थिक भार नहीं आएगा लेकिन उस परिवार को बहुत सहायता मिल जाएगी।
कहते हैं ना की बूंद बूंद से घड़ा भरता है और ऐसी छोटी-छोटी पहल से हम किसी परेशान परिवार के दुखों को कम कर सकते हैं। बजाए उनके घर जाकर सहानुभूति दिखाने के, हम फोन पर या वीडियो कॉल के जरिए पीड़ित व्यक्ति का हाल-चाल जान सकते हैं और अपने आवागमन पर होने वाला खर्च उस परिवार को बतौर सहायता के भेज सकते हैं। मैं यह नहीं कह रहा कि पीड़ित परिवार से मिलना गलत है। मिलना जरूरी है तो बिना रुके मिलकर आ जाएं या जब परिवार की आर्थिक गाड़ी पटरी पर आ जाए तो मिल आएं। सबसे अच्छी स्थिति तो यह है कि यदि आपकी जेब अनुमति देती है तो आप जाएं भी, रुके भी और आर्थिक सहयोग में सहभागी भी बने।
हो सकता है शुरू में यह परंपरा उस परिवार को भी नागवार गुजरे लेकिन बाद में यह छोटी-छोटी राशि उनके बहुत काम आ सकती है । आपको याद होगा कि पहले गांव में परंपरा थी जिसका आज भी कई इलाकों में पालन होता है कि मृत्यु भोज के दौरान प्रत्येक परिवार कुछ न कुछ राशि उस परिवार को देकर जाता था । शायद उसका उद्देश्य भी यही होगा कि इससे मृत्यु भोज पर होने वाला खर्च वहन करने में कुछ मदद मिल सके।
हालांकि अब तो शहरों में मृत्यु भोज भी अपनी शान प्रदर्शित करने का जरिया बन गया है। अब मृत्यु भोज के दौरान भी आने वाले लोग या आयोजक परिवार परोसे गए व्यंजनों की संख्या के आधार पर अपना प्रभुत्व दिखाने का प्रयास करते हैं । इसके अलावा संक्षिप्त गीता और हनुमान चालीसा के स्थान पर अब मृत्यु भोज के बाद रिटर्न गिफ्ट का चलन भी तेजी से बढ़ा है। इसमें मृत्यु भोज में आने वाले लोगों को निशानी के तौर पर अलग-अलग वस्तुएं दी जाने लगी है ।
बहरहाल, जिन लोगों की हैसियत है वह यह दिखावा करने के लिए स्वतंत्र हैं लेकिन अधिकतर परिवार ऐसे हैं जिनके लिए बीमार का हाल-चाल पूछने आने वालों का खर्च उठाना ही किसी सर दर्द से काम नहीं है फिर परिवार के मुखिया की मृत्यु के बाद की परिस्थितियों और मृत्यु भोज तो उनके लिए जीवन मरण का सवाल बन जाता है। ऐसी सूरत में हमारी छोटी सी आर्थिक मदद उस परिवार के लिए वाकई संबल बन सकती है।
तो, क्यों न यह अच्छी शुरुआत की जाए और अब आप जब भी किसी परिचित के बीमार पड़ने पर देखने जाने का मन बनाएं तो यह भी सोचें की क्या बिना जाए उन्हें आर्थिक सहायता भेज कर नई पहल कर सकते हैं? और समाज के लिए एक उदाहरण या एक नजीर पेश कर सकते हैं?… शगुन या मदद के लिफाफे की शुरुआत करके देखिए.. अच्छा लगेगा।
*संजीव शर्मा*
समाचार संपादक आकाशवाणी समाचार भोपाल