सुप्रीम कोर्ट ने आखिर एक बार फिर गेंद राजनैतिक दलों के पाले में डाल दी है। फैसला दे दिया कि बिना ओबीसी आरक्षण पंचायत चुनाव की अधिसूचना 15 दिन में जारी की जाए। अब एक बार फिर भाजपा-कांग्रेस आमने-सामने हैं। फिर वही नूरा-कुश्ती कि ओबीसी की पीठ में खंजर किसने भौंका? भाजपा का कहना है कि कांग्रेस दोषी है और कांग्रेस का कहना कि भाजपा कसूरवार है। भाजपा सरकार और संगठन कह रहा है कि रिव्यू पिटीशन दायर करेंगे और यही आशा कि बिना ओबीसी आरक्षण चुनाव कराने की चाह रखने वालों को निराशा हाथ लगेगी।
तो कांग्रेस के जाने-माने वकील ने आइना दिखा दिया है कि रिव्यू पिटीशन से अब कुछ भी हासिल होने वाला नहीं है। पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का सम्मान करते हुए भी यह कोई नहीं कह रहा कि नैतिक दायित्व मानते हुए हम यह घोषणा करते हैं कि कागजों में भले ही ओबीसी को आरक्षण न मिले, लेकिन हम दृढ़ संकल्पित हैं कि जिन 27 फीसदी सीटों पर ओबीसी को टिकट मिलना था, उन सीटों पर पार्टी का चेहरा ओबीसी ही रहेगा। भले ही दुनिया इधर की उधर हो जाए और भले ही जीत-हार के समीकरण कुछ भी बनते-बिगड़ते रहें…तब भी तो सामाजिक फैसला ओबीसी के हित में ही होगा। अब जब स्थितियां अति गंभीर हैं और पंचायत-नगरीय निकाय चुनाव में ओबीसी आरक्षण का मर्ज लाइफ सपोर्ट सिस्टम पर पहुंच चुका है।
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ऐसे में यह बात तय है कि उम्मीदों का दिया तो कुछ पल बाद ही बुझ जाएगा। कोई चमत्कार हो जाए तो अलग बात है कि जीवनदान मिल जाए। रिव्यू में यदि हाथ खाली रहे तो फिर संविधान संशोधन का प्रस्ताव ही प्राण बचा सकता है। हालांकि यहां किसी भी दल के विरोध की गुंजाइश नहीं रहेगी। पर यदि सुप्रीम कोर्ट समयसीमा तय कर देता है तो समयसीमा में ही सुप्रीम कोर्ट के फैसले को शून्य करते हुए नए प्रावधान को अस्तित्व में लाने की बड़ी चुनौती से पार पाना बहुत आसान नहीं है। और नैतिक जिम्मेदारी के तहत ओबीसी का 27 फीसदी आरक्षण इसकी तुलना में सहज तौर पर सरलता के साथ क्रियान्वित किया जा सकता है। ऐसा करने वाले सभी दल पिछड़ा वर्ग का दिल हमेशा के लिए जीत सकते हैं। पर क्या यह बात दलों के गले उतरेगी? उम्मीद बहुत कम ही है…।
पर अब यह बात तय है कि आर-पार की स्थिति बन गई है। और कोई भी राजनैतिक दल इससे पल्ला नहीं झाड़ सकता। तीर चलेंगे, तो दोनों पक्षों का सीना छलनी होगा। पिछड़ा वर्ग से एकतरफा प्यार करने का हक तो सभी को है, पर दिल बराबरी से धड़के… इसके लिए तो एक-दूजे के दिल में बराबरी से प्रेम का अहसास हो, यह जरूरी है। यह अहसास चाहे वैधानिक तौर पर कराया जाए या फिर नैतिकता के बतौर त्याग, समर्पण और बलिदान का इतिहास रचकर।
परीक्षा कठिन है, लेकिन सफल हुए तो प्रदेश की पचास फीसदी से ज्यादा ओबीसी आबादी पर हक का दावा पुख्ता हो जाएगा। और कठिन डगर से मिली मंजिल की खुशी का अहसास भी खास होता है। जब सामने अंधेरा ही अंधेरा नजर आ रहा हो, तब उजाले की एक किरण भी भरोसे की पूरी दुनिया को रोशन कर देती है। कानूनी कसरत से पसंदीदा फल मिल गया, तो सोने पर सुहागा। यदि यहां हाथ खाली रहे, तो बिना कानूनी कसरत के ही सही…मंजिल फतह तो की ही जा सकती है। और बाद में इसे कानूनी अमलीजामा भी पहनाया जा सकता है।
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खैर इस तरह की बातें कर राजनेताओं को समझाइश देना ठीक उसी तरह है, जैसे सूरज को रोशनी दिखाई जाए। क्योंकि राजनेता सोची समझी रणनीति के साथ अगला कदम रखते हैं। कहां दूसरे दलों के साथ कदमताल करना है और कहां टांग खींचनी है, यह भी दलों की नियमित सोच अभ्यास का ही हिस्सा है। पर दलों के लिए बड़ा सवाल पिछड़ा वर्ग की बहुतायत आबादी, बड़ा वोट बैंक और खुद को पिछड़ा वर्ग का हितैषी साबित करने का है।
हालांकि अभी भी पलड़ा किसके पाले में है, सुप्रीम कोर्ट के फैसले की तरह यह परिणाम नहीं सुनाया जा सकता। यह तो तब तय होगा, जब पंचायत-स्थानीय निकाय चुनाव हों और उनके परिणाम आएं। पर कांग्रेस जब कीचड़ में पत्थर मारती है, तो कमल और अच्छा खिला दिखने लगता है। पर पंचायत, नगरीय निकाय चुनाव ओबीसी आरक्षण के साथ हो पाते हैं या बिना ओबीसी आरक्षण के ही चुनाव होते हैं… इसमें भ्रम की गुंजाइश अब बहुत कम है और बहुत कम समय में यह भ्रम भी खत्म हो जाएगा। वक्त कम है, घड़ी की सुईयां लगातार सफर तय कर रही हैं। जल्दी ही बचे-खुचे भ्रम के बादल छट जाएंगे, तब दलों के सामने चुनौती पिछड़ा वर्ग का दिल जीतने की ही बचेगी।