स्मृतियों की असाधारण संवेदना- ‘देह-गाथा’ 

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पुस्तक समीक्षा 

स्मृतियों की असाधारण संवेदना- ‘देह-गाथा’ 

रेखा भाटिया

विशिष्ट लेखक पंकज सुबीर का लघु खण्ड काव्य ‘देह-गाथा’ अभी हाल ही में शिवना प्रकाशन से प्रकाशित होकर आया है। इस लघु खण्ड काव्य के लिए अनीता दुबे ने रेखा चित्र तैयार किए हैं। एक नज़र में यह खण्ड काव्य किसी काम सूत्र-सा प्रतीत हुआ, सोचा था कुछ दिन मौन रहकर आराम करूँगी और इस क़िताब को पूरी तरह दिमाग़ ख़ाली कर सबसे अंत में पढ़ूँगी। एक बार पढ़ना शुरू किया था, दिमाग़ में मची खलबली और व्यस्तता ने इसे यूँ ही पढ़ने की अनुमति नहीं दी। वैसे पंकज सुबीर की क़िताबों को मैं हवाई सफ़र, यात्राओं या एकांत में अपनी दुनिया में सिमट कर पढ़ना पसंद करती हूँ। उनका लेखन दुनिया और पाठक के बीच एक रेखा खींच कर अपनी ओर खींच लेता है। दिल और दिमाग़ दोनों के तारतम्य को एक सार में रखना पड़ता है उनकी रचनाएँ पढ़ने के लिए ! गंभीर लेखक पंकज सुबीर की काव्य पुस्तक ‘देह गाथा’ सूर्य की पहली किरण है, जो भोर में सूर्य के चमकने से पहले सिंदूरी छटा बिखेरती दिन के आगमन की रोमांचित दस्तक देती है, युवावस्था के सूरज के उदय से पहले की कोमल भोर की किरण समान है।

यह काव्य पुस्तक एक ही साँस में तरन्नुम-सी बजती, लहरों पर डोलती, झीने-झीने मन में डोलती समुंदर के उस गहरे रहस्य को परत दर परत खोलती है, जिसे हर युवा मन उस ज़माने में सात सौ तालों में बंद कर चाबी खुद से भी छिपा लिया करता था- “है अतीत का धुँधला-दर्पण, उसमें धूमिल-सा प्रतिबिम्बन, सदियों से ठिठका सुधियों में, जीवन का वह प्रथम-प्रभञ्जन”, “अब जो सोचूँ तो लगता है, कितनी सदियों बात पुरानी। बीत चुकी है वर्षों पहले, किन्तु नवल अनुराग-कहानी। एक प्रतीक्षारत-अलाव को, जब था मिला प्रथमत: ईंधन।।”

प्रथम स्पर्श शायद भूलें लेकिन प्रथम बार जब सम्पूर्ण सृष्टि का द्वार खुल जाता है, पहले एहसास का मादक पहला गहरा अनुभव जिसे देहों ने भोगा, उस चरम को जो सृष्टि का सत्य है हर जीव के लिए। जिससे प्रेम उपजता है, नव अंश की ऊर्जा जन्म लेती है।

सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला जी की पंक्तियाँ , “अंत और अनन्त के तम-गहन-जीवन घेर, मौन मधु हो जाए, भाषा मूकता की आड़ में, मन सरलता की बाढ़ में जल-बिन्दु सा बह जाए, सरल अति स्वछन्द”, मौन की उसी अनंत कसमसाती नदी को, जहाँ जटिल सरल हो जाता है और सरल अति जटिल, पंकज सुबीर ने बड़े चाव से बहा कर गहन मंथन किया है।

“तभी मौन की सार्थकता का, मिला हृदय को प्रथम ज्ञान था।” यह उनका मौन प्रचंड गुंजन है, “चेष्टाएँ थीं मूक-मूक-सी, शब्दहीन-सा था आंदोलन” कामदेव के इस सम्मोहन को शब्दों में उतार पाना बहुत टेढ़ी खीर होती है। देहों का गणित चरित्रों के गणित से गहरा जुड़ा है, भारत जैसे देश में जहाँ ‘कामसूत्र’ की रचना की गई हो, खजुराहो जैसे मंदिर का निर्माण किया गया है, वहाँ आज भी इस विषय पर पहेलियों में बात की जाती है। यह सही है वक्त के साथ आते सामाजिक, मानसिक और आर्थिक बदलाव ने वैश्वीकरण को बढ़ावा दिया है, समाज, सोच, रहन-सहन, पहनावे, जीवन शैली, मीडिया, सिनेमा में बहुत खुलापन आ गया है जिससे अश्लीलता और फूहड़पन सहज सामाजिक जीवन में व्याप्त हो गया है। यहाँ कहना बहुत उचित होगा पंकज सुबीर की लेखनी ने अश्लीलता के ढोंग से उनकी काव्य रचना को साफ़ बचाकर, नीरसता और दूरी बनाकर एक बहुत उच्च स्तर के कलात्मक काव्य की रचना की है। चित्रकार अनीता दुबे ने इस काव्य के हर चित्र का चित्रांकन उसी कुशलता से उसी स्तर का किया है। इस काव्य के हर शब्द के दर्पण को चित्रों में सुवासित कर सार्थक किया है। जैसे प्रेम के लिए परस्पर दो की अनिवार्यता और पूरकता होती है, जिसकी कल्पना एक दूसरे के बिना अधूरी है।

“मर्यादा की सीमा से कुछ, बाहर हम आये थे चल कर, कायाएँ कुसुमित होती थीं, एक नवल साँचे में ढल कर, प्रलय बीतने पर होना था, नवल-सृष्टि का फिर से सर्जन।” एक यायावर मन से सारे बाँधों और बंधनों को तोड़ कर प्रथम अनुभव के सौंदर्य को बेझिझक, बेबाकी से अपने मनोभावों को प्रकट कर पंकज जी ने उत्सव मनाया है। उस उत्सव की तरंगों में आह्लादित सूक्ष्म से सूक्ष्म भावों का समन्वय पंकज सुबीर को तृप्त करता है। इस साहित्यिक कला कृति में रूहानी लयबद्धत्ता है, समसामयिक से परे यह याद दिलाती है उस काल की जब ध्वनियों की पुनरावृत्ति में बहकर पाठक कंठस्थ कर लेता था काव्य को। एक ही भाव में पूरा काव्य रचा गया है। यहाँ कई बिंबों, प्रतिबिंबों के माध्यम से भावनाओं का आवेग बहता है। प्रकृति की छाँव में अंबर से धरा तक अति कोमल मनोभावों का स्फोट है, “नीलगगन की ऊँचाई में, उड़ते हुए युगल पल्लव थे, क्षण-क्षण में होता था जैसे, सृजन शिल्प का और विखण्डन।” आधुनिक युग से उस युग तक सेतु का काम करते हैं। स्मृतियों के असाधारण संवेदन को भीतर दबा-छिपा, लेखक हृदय भीतर दबोच न सका और स्मृतियों का एक ज्वालामुखी उद्भूत हुआ है, जिसके शक्तिशाली लावा से लेखन ने स्वयं को तृप्त किया है, “जैसे असंतृप्त-आत्माएँ, शक्तिशाली होतीं मावस को। भीषण-तड़ित गगन में कौंधी, और हुआ मेघों में घर्षण।”

पंकज सुबीर का भीतरी संघर्ष चलता है और लेखक स्वयं के अन्वेषण से अचंभित है, “बोधि -वृक्ष की छाया ने फिर, योगी को निर्वाण दिया था। सब विस्मृत करना होता है, करने प्रणय-कर्म निर्वाहन।” लेखक अपनी स्मृतियों से प्रेयसी की तरह अनुराग करता है, “संज्ञा शून्य अवस्था में तब, केवल शेष रहा अवलोकन। कस्तूरी-मृग के जैसे ही, खोज अभी तक है सुगंध की।” आह्लादित है यह ज्वार भावनाओं और रेखाचित्रों का, जैसे एक नई ऊर्जा ने जन्म लिया हो ! विज्ञान के नियमों अनुसार ऊर्जा न उत्पन्न की जा सकती है, न नष्ट की जा सकती है, उसे एक रूप से दूसरे रूप में परिवर्तित किया जा सकता है। जब ऊर्जा के दोनों रूप एक जैसे हों तदुपरांत दोनों ऊर्जाओं का समन्वय हो, तब नई ऊर्जा जन्म लेती है, जैसे इस काव्य ने जन्म लिया है। “उन्मादित गजराज वहाँ जब, रौंद रहा था पुष्पलताएँ। मेघ हुई यूँ उन्मत जैसे, सुरापान कर आया श्रावण”।

देहों की ऊर्जा से उपजे मन के भावों को पंकज जी ने कभी निश्छल पानी की तरह बहाया है, कभी पतंग की तरह स्वच्छंद खुले आकाश में उड़ाया है, कभी मदमस्त, इठलाती, बेकाबू हवा-सा झुमाया है, कहीं तपती धरा में पड़ती शीतल जल की बूँदों-सा झमझमाया है। नव युवा मन के हर भाव कली को शनैः-शनैः खिलाकर सुंदर पुष्पों में व्याख्या दी है। अनीता दुबे के कला बोध से ओतप्रोत रेखा चित्र हर शब्द के सम्मुख सहज ही कवि की गहन आतुरता को ऊष्मा का प्रेम प्रदान करते हैं। इन रेखा चित्रों ने ‘देह-गाथा’ काव्य को पूर्ण से सम्पूर्णता प्रदान की है। पंकज सुबीर ने अंत:प्रेरणा से प्रकृति के उजले आँचल की छाँव में मन के उष्ण भावों को पनाह दी है, प्रकृति का दामन थामा है। प्रकृति यहाँ चुपचाप अपना काम करती है बोलकर नहीं, हृदय की मिट्टी में उर्वर बनकर।

आनंद पाने की कुंजी है, पंकज जी ने जितना कहा है, उससे अधिक अनकहा महसूस कराया है। यही विशिष्टता है उनके लेखन की। सृष्टि की सुन्दर रचना, प्रेम के कोमल भाव और देहों का उल्लास इस विरले काव्य में ख़ूबसूरती से रचे-बसे हैं। जब बाल्य काल और किशोरावस्था से निकल जीवन युवावस्था की प्रथम देहरी पर क़दम रखता है।

देह-गाथा (लघु खण्ड काव्य )

लेखक – पंकज सुबीर, चित्रांकन- अनीता दुबे

समीक्षक – रेखा भाटिया

REKHA BHATIYA

प्रकाशक- शिवना प्रकाशन, पी. सी. लैब, सम्राट कॉम्प्लैक्स बेसमेंट, बस स्टैंड के सामने, सीहोर, मप्र 466001

वर्ष – 2024, मूल्य- 250 रुपये, पृष्ठ – 108

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