पिता के अवशेष

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अमित मंडलोई
एक सीनियर का निधन हो गया। उन्हें छोड़ने मुक्तिधाम पहुंचा तो पहला ही दृश्य कलेजा चाक करने वाला था। पार्थिव देह चिता पर लेटाई जा चुकी थी। पूरा हुजूम आसपास जमा था। सब अपने-अपने ढंग से सलाह दे रहे थे। ऐसे करो, वैसे करो और इन सबके बीच एक बेटी खड़ी थी। जिन अंगुलियों को पकड़ कर उसने चलना सीखा था, वह उससे अंतिम विदा ले चुकी थी और आखिरी कर्तव्य की पूर्ति कराने को आतुर थी। पिता की देह और उसे अग्नि को सुपुर्द करने के पूर्व के रीति-रिवाजों को लेकर दी जा रही सलाहों के बीच उसका भावशून्य चेहरा और उस पर बेचैन आंखें। कितनी चपलता से आवाज की दिशा में देख रही थी, सुन रही थी, समझ रही थी या नहीं कहना मुश्किल है, लेकिन उस एक क्षण में ही उसके भीतर जो कुछ चल रहा होगा, वह आंखों से बह रहा था।
उसने कहां सोचा होगा कि जिन कांधों पर उसने बैठ कर जिंदगी का सफर शुरू किया था, उन्हीं कांधों पर उसे कंडे जमाने होंगे। जो चेहरा उसकी एक मुस्कान से खिल उठता था, उस पर घी का लेप लगाना पड़ेगा। जिन आंखों में उसने सदैव प्यार देखा, उन पर कपूर की मोटी-मोटी टिकिया रखना होंगी। चंदन की लकड़ी, तुलसी जी की सूखी टहनियां, अगरबत्ती, पूजा की बाकी सामग्री। फिर सीने पर मोटी तह और अग्नि संस्कार के लिए घास में कपूर और कंडे का सुलगता टुकड़ा दबाए, वह सबकुछ यंत्रवत करती रही। किसी ने कहा बेटा ऐसा कर ले तो तुरंत उधर का रुख कर लेती, कोई कुछ और कहता तो उसे भी करने को आतुर हो जाती। लग रहा था, जैसे उसके लिए दुनिया में अब किसी चीज का कोई मोल ही नहीं रह गया है। उसकी सबसे अनमोल चीज तो जा ही चुकी थी। देखकर समझना भी मुश्किल था कि वह इन क्षणों को जी भी रही है या नहीं या बस सीने पर कोई बड़ा सा पत्थर रखकर गुजार रही है।
अग्नि संस्कार हो चुका था, पिता के जाने के बाद उनकी देह भी उससे विदा ले रही थी। किसी ने उसके कांधे पर हाथ रखा, दुलारा वह वैसे ही बूत बनी खड़ी रही। इसी बीच किसी ने पुकारा सभागृह में चलते हैं। वह दादाजी के साथ जाकर पहले ही बैठ गई। लोग आते गए, उसकी निगाहें सबको निहारती रही। क्या पता इन चेहरों में वह क्या ढूंढ रही थी। किसी को देखकर ठिठकती, किसी को देखकर सिहर उठती। क्या पता हर चेहरा किसी याद की खिड़की खोलता सा लगा होगा। ये तब पिता से मिलने आए थे, इनके बारे में पिता जब-तब बात करते थे। ये हर दिवाली पर घर जरूर आते थे, हर होली पर पिता इनके घर ले जाते थे। एक रिश्ता जिसकी डोर से उसने पूरी दुनिया को बांध रखा था, उसके खुलते ही शायद वह उन क्षणों में ही सबको समेटने की कोशिश कर रही होगी या फिर उन्हें बिखरते हुए देख विस्मित हो रही होगी। या फिर तौल रही होगी कि अब इनमें से कितने चेहरे होंगे, जो बाद में भी उसे नजर आते रहेंगे।
फिर शुरू हुआ श्रद्धांजलियों का सिलसिला। लोग खड़े होते और दिवंगत के साथ जुड़ी अपनी यादें साझा करते जाते। कोई उनके व्यवहार की बात करता, कोई कार्यकुशलता की, कोई उनकी सहृदयता का किस्सा सुनाता तो कोई उनके हंसी-मजाक दोहराता। सेवाभाव, मित्रता, संवेदनशीलता जैसे तमाम गुणों की माला पिरोई गई। हर संस्मरण के दौरान कोई और कहीं भी देख रहा हो, कुछ भी सोच रहा हो, लेकिन बेटी की आंखें और कान वहीं लगे थे। मानो किस्सा दर किस्सा वह अपने पिता को अपने भीतर उतारने में लगी थी। कुछ कदमों की दूरी पर जो देह खत्म हो रही थी, उसकी हर खूबी को अपनी रूह का हिस्सा बनाने को आतुर थी। शब्द पिता की मूर्ति बनकर उसके सामने साकार हो रहे थे और वह विदेह पिता को आत्मसात कर रही थी। हालांकि इनमें से कई किस्से उसके सामने पहले भी आए होंगे, दोहराए गए होंगे।
पिता की खूबियों को क्या वह नहीं जानती थी, लेकिन आज इन किस्सों का नमक ही कुछ और था। शब्द-शब्द पिता बन गए थे। शब्दों के ही पुजारी थे, शब्दों को समर्पित हो गए और वह इन्हीं शब्दों को समेटकर उन्हें फिर अपने भीतर जीवित करने में लगी थी। यह सिलसिला यूं ही चलता रहा। उसकी आंखें हर पुकारे जाने वाले नाम के साथ हिरण की तरह चमकती और ढूंढती, अब क्या कहा जा रहा है, क्या कहा जाने वाला है। मौन के साथ सभा विसर्जित हुई। वह फिर उसी चिता के समक्ष खड़ी थी। इस बार उसे कपाल क्रिया करना थी। लोटाभर घी उंडेल दिया उसने पिता के धधकते कपाल पर। चेहरे के तम में हृदय पर पड़े अंगारों का अक्स दहक उठा।
फिर वही यंत्रवत जल से भरी मटकी और उसे गिराते ही हिदायत कि बेटा अब पीछे मुड़कर मत देखना। बेटी यंत्रवत कदम बढ़ाने लगी। कुछ हाथ उसके कांधे पर थे, कुछ उसके आसपास सुरक्षा कवच की तरह, मगर अपना असली कवच तो वह अग्नि को समर्पित कर आई थी। अब पीछे पलटकर देखती भी तो क्या। शेष रहे पिता… तो उन्हें उसने समेट लिया था, अपनी सांसों में, अपनी धड़कनों के साथ पिरो लिया था। वह देखती रही हाथ जोड़कर लोगों को जाते हुए। अब शायद काेई भी जाना उसके लिए इतना कठिन नहीं होगा।