Film Review: बंदा सिंह चौधरी- पंजाब की आतंकी हिंसा सामने खड़ा बंदा

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Film Review: बंदा सिंह चौधरी- पंजाब की आतंकी हिंसा सामने खड़ा बंदा

 

 

डॉ. प्रकाश हिन्दुस्तानी

फिल्म  बंदा सिंह चौधरी 1970 से 80 के दशक में पंजाब में  हुई आतंकवादी हिंसा को लेकर  बनी है। इस फिल्म में मनोरंजन एंटरटेनमेंट ढूंढना उतना ही कठिन है जितना कठिन सरकारी कर्मचारियों को खुश करना है।  फिल्म का एक डायलॉग अच्छा है कि मैं पहले अपने घर को बचाऊंगा, फिर अपने पिंड  (गांव) को बचाऊंगा, फिर अपने देश को बचाऊंगा क्योंकि अगर मेरा देश सुरक्षित है तो ही मेरा गांव और मेरा घर सुरक्षित है।

पंजाब ने 1980 का दौर का वह हिंसक भी देखा  है, जब पूरा पंजाब हिंसा की चपेट में था। बच्चों के हाथ में बांसुरी  की जगह बंदूक के पकड़ा दी गई थी।  सांझा चूल्हा और सरसों के खेत हिंसा की आग में तबाह हो गए थे।  अखबार की सुर्खियां स्याही से नहीं से नहीं, खून से लिखी जा रही थी।  यहाँ तक कि  जवानों को भी यह नहीं पता होता था कि ड्यूटी ख़त्म करने के बाद पहले घर कौन पहुंचेगा – वे  या उनकी कोई बुरी खबर। फिल्म तब लगी है, जब कनाडा और विदेश की जमीन पर फिर से अलगाववाद सर उठा रहा रहा है।

फिल्म की कहानी 1975 से शुरू होती है, जिस साल शोले लगी थी।  अमिताभ और धर्मेंद्र की जय और वीरू की जोड़ी की तरह पंजाब के एक पिंड का नौजवान बंदा सिंह भी जैकेट और जींस पहनने लगा।  इस फिल्म में भी एक बसंती है,  यह बसंती शोले की बसंती की तरह नहीं, बल्कि हट्ठी कट्ठी है। लड़की हथियार चलाना जानती है। बच्चों को इसका प्रशिक्षण देती है। बंदा  सिंह हिन्दू है और एक दोस्त की मदद से लड़की के घरवालों से बातचीत होती है।  दोनों  होती है और एक बेटी भी है।

फिल्म का कालखंड वह है जब पंजाब से हिंदुओं को भगाया जा रहा था।  ‘हिन्दू पंजाब छोड़ दें’  पोस्टर लगने लगे थे। पकिस्तान और आईएसआई प्रायोजित हिंसा में सैकड़ों लोग मारे जा रहे थे। निहत्थे लोगों पर  सिख वेश में आतंकी एके 47 से से भून रहे थे। अलगाव की बातें हो रही थीं और ऐसे दौर में एक आम आदमी बंदा सिंह के रूप में सामने आता है और आतंकियों से जूझता है। गाँव के लोगों को एक करता है और कहता है कि हम अपने ही देश में रिफ्यूजी बनकर नहीं रह सकते।  हम अपना घर, गांव और देश छोड़कर कहीं सकते।

अरशद वारसी अच्छे कलाकार हैं लेकिन वह बंदा सिंह लगाते ही नहीं। उनको देखते ही उनकी सर्किट वाली इमेज सामने आ जाती है। अन्य कलाकार मैहर विज,  शिल्पी मारवाह, जीवेशु  अहलूवालिया, अलीशा चोपड़ा और सचिन नेगी  से ज्यादातर दर्शक अनजान ही हैं।  निर्देशक अभिषेक सक्सेना हैं।  लेखक शाहीन इकबाल की कहानी में कई बातें खटकती हैं।  अरबाज खान और मनीष मिश्रा निर्माता हैं। यह एक गंभीर फिल्म का सरल संस्करण है, जिसमें मनोरंजन का तत्व नदारद है।