पहले किसान को सुने, फिर समस्या को गुने!

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पहले किसान को सुने, फिर समस्या को गुने!

गुरविंदर सिंह घुम्मन

यह इस कृषि प्रधान देश की विडंबना है कि वोटों की खातिर किसान को प्रलोभन तो खूब दिये जाते हैं। उसकी समस्या के नाम पर केंद्र व राज्यों की सरकारों को घेरने का काम तो खूब होता है, लेकिन इस मुद्दे पर कभी बात नहीं होती कि किसान की आर्थिक स्थिति कैसे ठीक होगी। सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि देश 140 करोड़ की आबादी वाला हो रहा है। क्या हमारे पास आने वाले दशकों में जनता की जरूरतों के मुताबिक अनाज उत्पादन करने की क्षमता है? क्या हमने ऐसी दूरगामी नीतियां बनायी हैं कि भविष्य में हमें अनाज के लिये विदेशों पर निर्भर न रहना पड़ेगा? किसान आंदोलन ने देश में कृषि सुधारोँ की संभावनाओं पर विराम लगा दिया है। हमारे विपक्ष की रणनीति भी ऐसी रही है कि किसान, कृषि व जनता के हितों के बजाय उसके राजनीतिक हित प्रमुख हो जाते हैं। सरकार यदि कोई अच्छा प्रयास करे तो देश हित में उसे स्वीकार भी किया जाना चाहिए।

सही बात है कि करीब एक साल तक चले किसान आंदोलन से भले ही केंद्र सरकार द्वारा प्रस्तावित तीन कृषि सुधार कानूनों का अस्तित्व खत्म हो गया हो। लेकिन, वास्तव में इससे अगले एक दशक तक किसी सुधारवादी कानूनों के लागू होने की संभावनाएं खत्म भी हो गई। किसान वोटों की चिंता करने वाले दल भले ही केंद्र सरकार की शिकस्त से खुश हो रहे हों, लेकिन एक हकीकत यह भी है कि देश के किसानों ने सुधारों का एक अवसर भी खोया है। हमें 21वीं सदी की जरूरतों के लिये कृषि सुधारों की जरूरत है। देश की एक अरब चालीस करोड़ होती जनसंख्या की खाद्यान्न जरूरतों का पूरा करने का भी सवाल है। साथ ही किसानों की आय बढ़ाने का भी सवाल है।

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निस्संदेह, दिल्ली की दहलीज पर पंजाब, हरियाणा व उत्तर प्रदेश के किसानों की बहुलता वाला आंदोलन शायद यह भारत में चले सबसे लंबे किसान आंदोलनों में से एक था। इसमें दो राय नहीं कि किसान आंदोलन को लेकर सरकारों का रवैया रचनात्मक नहीं रहा है। हो सकता है कि सरकार की मंशा सही रही हो, लेकिन वह किसानों को इन सुधारों को लेकर जागरूक नहीं कर पायी। ऐसी स्थिति में जब देश की अर्थव्यवस्था हिचकोले खा रही हो, क्या न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी से छेड़छाड़ करने का कोई औचित्य है? जब किसानों को लगता है कि सुधार उनके हित में नहीं है तो सुधारों का वास्तविक मतलब भी बताना चाहिए था। क्यों किसानों को लगता है कि सरकारें लोकतांत्रिक व्यवस्था में उदार रवैया नहीं अपनाती? क्यों सरकार संवेदनशील व्यवहार और बड़प्पन नहीं दिखाती है? आखिर किसान क्यों कह रहे हैं कि कोरोना संकट के बीच चुपके से इन बिलों को लाने की जरूरत क्यों पड़ी? वे यह भी कहते रहे हैं कि इन बिलों को आनन फानन में क्यों पास कराया गया? आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन की जरूरत क्यों पड़ी?

दरअसल, पूरी दुनिया में खेती के बाजारीकरण ने छोटे किसानों को लील लिया। क्या यह मॉडल जैसी छोटी जोत वाली खेती में कारगर हो सकता है ? दुनिया के आंकड़े बता रहे हैं कि खेती के बाजारीकरण से किसानों ने अपनी जमीन खोयी है। भारत में कृषि उद्योग नहीं है, यह किसान की अस्मिता का उपक्रम है। सदियों से पीढ़ी दर पीढ़ी किसान की जमीन उसके वंशजों को मिलती रहती है। वह उसकी कीमत का समझौता कैसे कर सकता है। वैसे ही खेती-किसानी घाटे का सौदा साबित होती जा रही है। दूसरे बड़ी संख्या उन लोगों की है जो जमीन किराये पर लेकर खेती करते हैं। किसानों को आशंका थी कि नई व्यवस्था में वे खेती की व्यवस्था से बाहर हो जाते हैं।

सरकार को किसानों की ऐसी तमाम आशंकाओं को दूर करने का प्रयास करना चाहिए। किसान की वास्तविक समस्याओं को सुनना चाहिए। सही बात यह है कि इन सुधारों को लाने से पहले देशव्यापी बहस होनी चाहिए थी। जिन किसानों के लिये सुधार लाये जा रहे थे, उनकी राय ली जानी चाहिए थी। कृषि वैसे भी राज्यों का विषय है। राज्यों से भी व्यापक विचार-विमर्श किया जाना चाहिए था। देश में लोकतंत्र है कुलीनतंत्र की परंपराएं विकसित नहीं की जा सकती। कुछ किसान संगठनों का मानना रहा है कि सरकार को इन सुधारों को कुछ समय के लिये टालकर व्यापक विचार-विमर्श से सुधार के साथ कानूनों के नये प्रारूप लाये जाने चाहिए। यह ठीक है कि 21वीं सदी में कृषि 16वीं सदी के ढर्रे पर नहीं चल सकती, लेकिन किसान के विश्वास और राय को भी तरजीह दी जानी चाहिए। कोई आंदोलन देर तक चलना समाज और देश के हित में नहीं होता।

हरियाणा व पंजाब वह क्षेत्र जहां कृषि सुधारों को गति मिली। देश की जो बड़ी विकास परियोजनाएं शुरु हुई उसका लाभ पंजाब को मिला। पं. नेहरू के समय देश के जो आधुनिक मंदिर भाखड़ा और नांगल बांध बने उसका फायदा पंजाब को मिला। पानी की उपलब्धता से जो हरित क्रांति के प्रयोग हुए उसका पहला लाभ पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश को मिला। यहां तक कि न्यूनतम समर्थन मूल्य का लाभ भी इन्हीं राज्यों को मिला। यही वजह है कि इन ही इलाकों में आंदोलन का ज्यादा असर रहा है।शेष देश में जहां एमएसपी का लाभ ही नहीं तो आंदोलन का वैसा रुझान देखने को नहीं मिला। इस आंदोलन के मूल में राजनीतिक कारण भी, जातीय अस्मिता भी जुड़ी है, जो सत्ता के विरुद्ध हमेशा प्रतिक्रियावादी तेवर दिखाती रही हैं।ऐसे में हरियाणा व पंजाब के कुछ किसानों को लगता रहा है कि मौजूदा सरकार किसानों के वर्चस्व वाली सरकार नहीं है।