पंचतत्‍त्‍व और विज्ञान

390

पंचतत्‍त्‍व और विज्ञान

संसार कैसे, किससे मिलकर बना ? यह ऐसा रहस्‍य है जिसका उत्‍तर अध्‍यात्‍म व विज्ञान अपने-अपने तरीके से देते हैं। वेदांत कहता है कि मूल तत्‍त्‍वों की संख्‍या पाँच है जिनसे पूरा ब्रह्माण्‍ड से बना है। यह हैं – आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्‍वी। तुलसीदास जी ने सरल शब्‍दों में बता दिया कि शरीर पंचतत्‍त्‍वों से बना है – पंच रचित अति अधम शरीरा। वहीं विज्ञान कहता है तत्‍त्‍व वह है जिसके परमाणु एक ही प्रकार के होते हैं जैसे सोडियम, हाइड्रोजन, ताँबा आदि। इनकी संख्‍या 118 है और इन्‍हीं के मिश्रण से संसार बना है। संसार की किसी भी चीज का विश्‍लेषण करें तो हमें इन्‍हीं 118 तत्‍त्‍वों का मिश्रण मिलेगा । कहीं भी आकाश, वायु आदि नहीं मिलता तब हमें विज्ञान सही लगने लगता है और अध्‍यात्‍म काल्‍पनिक विचारों का पुंज, परंतु ऐसा है नहीं।

विज्ञान विश्‍लेषण करता है। वह पदार्थ को शक्ष्‍म अंशों में तोड़कर सत्‍य को जानना चाहता है। इसलिए पहले क्‍लासिकल भौतिकी में यह अवधारणा थी कि किसी कण को तोड़ते जाएँगे तो अंत में ऐसा मूल कण प्राप्‍त होगा जो इस सृष्टि का आधार होगा। परंतु विज्ञान के विकास के साथ ही सोच बदलता गया और अब क्‍वांटम फिजिक्‍स के युग में सिद्ध हो रहा है कि पदार्थ का मूल आधार कोई कण नहीं है बल्कि कुछ ‘और’ है जिसकी खोज जारी है। इस शूक्ष्‍म स्थिति में एक ही समय में जो कण है वह तरंग भी है और जो तरंग है वह कण भी है। फ्रित्‍जोफ काप्रा ने अपनी विश्‍व प्रसिद्ध पुस्‍तक ‘ताओ ऑफ फिजिक्‍स’ में इसे विस्‍तार से बताया है।

अध्‍यात्‍म संश्‍लेषण के तरीके से संसार को देखता है। इसलिए संसार को समझने की शुरूआत स्‍वयं से होती है। संसार को समझने के लिए हमारे शरीर में केवल पाँच द्वार हैं। इन्‍हें ज्ञानेन्द्रियाँ कहते हैं। यह हैं कान, त्वचा, नेत्र, जिह्वा और नासिका। कान से शब्‍द सुनकर, त्‍वचा से स्‍पर्श करके, नेत्र से रूप देखकर, जिह्वा से स्‍वाद लेकर और नासिका से गंध सूंघकर हम संसार को अनुभूत करते हैं। किसी भी जाति, नस्‍ल, धर्म का मनुष्‍य हो, उसके पास इन पाँच तरीकों के अलावा संसार को अनुभव करने का कोई अन्‍य साधन नहीं है। कान शब्‍द सुनते हैं इसलिए कर्णेन्द्रिय का विषय शब्‍द है। इसी प्रकार अन्‍य ज्ञानेन्द्रियों के विषय स्‍पर्श, रूप, स्‍वाद और गंध है।

इन ज्ञानेन्द्रियों से विषय संवेदना के रूप में अंत:करण में पहुँचते हैं और उसी के अनुरूप हमें विषय का ज्ञान होता है। उदाहरण के लिए गुलाब के पुष्‍प को लें। उसे देखने पर पुष्‍प तो अपनी जगह यथावत् रहता है पर उसके रूप की संवेदना अंदर जाती है और अंत:करण पर उसी के अनुरूप वृत्ति बनाती है। इसी प्रकार सूंघने पर गंध के रूप में, स्‍पर्श करने पर कोमलता के रूप में और चखने पर स्‍वाद के रूप में संवेदना अंदर जाकर ज्ञान कराती है। बादलों की गर्जन ध्‍वनि की संवेदना के रूप में अंदर जाती है। यह संवेदना ही तन्‍मात्रा कहलाती है। चूँकि हमारी ज्ञानेन्द्रियों के माध्‍यम से 5 ही प्रकार की तन्‍मात्राएँ ग्रहण हो सकती हैं इसलिए उनके उद्गम के स्रोत भी पाँच ही होंगे। तन्‍मात्रा जिसकी विशेषता लेकर इन्द्रियों के माध्‍यम से प्रवेश करती है वह ‘तत्‍त्‍व’ या ‘महाभूत’ कहलाता है। इनकी संख्‍या पाँच है इसलिए इन्‍हें पंचतत्‍त्‍व या पंचमहाभूत कहते हैं। जिस तत्‍त्‍व की तन्‍मात्रा शब्‍द है उसे आकाश, स्‍पर्श है उसे वायु, रूप है उसे अग्नि, रस है उसे जल और गंध है उसे पृथ्‍वी कहा जाता है।

हम अभी तक मानव शरीर से विचार करते हुए पंचतत्‍त्‍वों तक पहुँचे हैं। अब दूसरी तरफ से देखते हैं कि यह पंचतत्‍त्‍व अस्तित्‍त्‍व में कैसे आते हैं। वेदांत के अनुसार ब्रह्म, अनन्‍त शक्ति युक्‍त, च‍ेतन व आनन्‍दमयी सत्‍ता है जो सदैव प्रत्‍येक स्‍थान पर व्‍याप्‍त है। ब्रह्म की अद्भुत शक्ति माया है, जो ब्रह्म के प्रकाश में सत्‍य जैसी प्रतीत होती है। माया अपने तीन गुणों – सत्‍त्‍व, रज और तम के माध्‍यम से संसार का निर्माण करती है। जब इन गुणों में विषमता होती है तो उससे महत् तत्‍त्‍व की उत्‍पत्ति होती है। महत् तत्‍त्‍व से अहं तत्‍त्‍व पैदा होता है। इसके बाद तीनों गुण अलग-अलग अनुपात में मिलकर पंचतत्‍त्‍वों का निर्माण करते हैं। जैसे सत्‍त्‍व की अधिकता तथा रज और तम की न्‍यूनता से ‘आकाश तत्‍त्‍व’ बनता है। इसी प्रकार विभिन्‍न गुणों के अलग-अलग अनुपात में मिलने से दूसरे पंचतत्‍त्‍व बनते हैं। इनका क्रम यह है कि आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल, जल से पृथ्‍वी तत्‍त्‍वों का उदय होता है। यह पंचतत्‍त्‍वों की शुद्ध अवस्‍था है ।

इन्‍हीं शुद्ध पंचतत्‍त्‍वों के सात्त्विक अंशों से हमारे शरीर की पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, राजस अंशों से पाँच कर्मेन्द्रियाँ, सम्मिलित सत्‍त्‍व अंश से अंत:करण की चार वृत्तियाँ – मन, बुद्धि, अहंकार और चित्‍त – और सम्मिलित राजस अंश से पाँच प्राण – प्राण, अपान, समान, व्‍यान और उदान – पैदा होते हैं। इन्‍हीं पंचतत्‍त्‍वों के तामस अंशों के आपस में मिलने की क्रिया पंचीकरण कहलाती है और उससे स्‍थूल पंचतत्‍त्‍व बनते हैं जिन्‍हें हम पृथ्‍वी, जल आदि के रूप में देखते हैं। इनकी विस्‍तृत व्‍याख्‍या आदिशंकराचार्य ने अपने ग्रंथ तत्‍त्‍वबोध में की है।

इस प्रकार पंचतत्‍त्‍व केवल स्‍थूल पदार्थ नहीं हैं, शूक्ष्‍म संवेदनाएँ भी हैं। इसे हम एक उदाहरण से समझें । हम गहरी नींद में सोते हैं तब न तो स्‍वयं का बोध होता है और न संसार का। यदि अचानक उठ जाएँ तो पहले तो कुछ भी समझ नहीं आता, अपने-पराये का भेद नहीं रहता। यह महत् तत्‍त्‍व की अवस्‍था है। इसके बाद स्‍वयं की याद आती है। अरे यह तो मैं हूँ। यह अहंभाव का जन्‍म है। इसके बाद यह ज्ञान होता है कि मैं कहाँ हूँ। यह आकाश का जन्‍म है। इसी प्रकार प्रक्रिया आगे बढ़ती है। इसका क्रम बदला नहीं जा सकता। यही तो हमारे लिए सृष्टि के जन्‍म की प्रक्रिया है। उत्‍पत्ति का यह क्रम प्रतीति के आधार पर है। और यह प्रतीति सभी मनुष्‍यों में एक समान होती है। इसलिए वेदांत का सृष्टि विकास किसी एक धर्म तक सीमित नहीं है। यह सार्वभौमिक है, स्‍वाभाविक है।

हमारा शरीर स्‍थूल पंचतत्‍त्‍वों से बना है परंतु इसमें स्थित 5 ज्ञानेन्द्रियाँ, 5 कर्मेन्द्रियाँ, 5 प्राण, मन, बुद्धि, अहंकार और चित्‍त शूक्ष्‍म पंचतत्‍त्‍वों से निर्मित हैं। सभी पंचतत्‍त्‍व जड़ हैं। इसलिए इनके क्रियाशील होने के लिए चेतना की आवश्‍यकता होती है जो ब्रह्म का अंश है। इसलिए इन्द्रियों के तीन स्‍तर होते हैं – स्‍थूल शरीर में उनका स्‍थान, उनमें वास करने वाली प्राणमयी इन्द्रिय और उनका देवता। स्थूल शरीर का अंग कान तो जड़ है उसमें स्थित क्रियाशक्ति प्राण है। शब्‍द, ध्‍वनि के रूप में स्‍थूल कान से प्राण के द्वारा अंत:करण तक जाते हैं और उसके साथ का चेतन तत्‍त्‍व उसे ग्रहण करता है। यह चेतन तत्‍त्‍व ही देवता कहा जाता है। ब्रह्म की चेतना के जिस अंश से जो इन्द्रिय सक्रिय होती है उसे देवता का नाम दिया गया है। इस प्रकार 5 ज्ञानेन्द्रियों के देवता दिक्, वायु, सूर्य, वरुण और अश्विनीकुमार तथा 5 कर्मेन्द्रियों के देवता अग्नि, इन्‍द्र, विष्‍णु, यम और प्रजापति के नाम से जाने जाते हैं।

विज्ञान केवल स्‍थूल पंचतत्‍त्‍व तक सीमित है। वह पृथ्‍वी, पर्यावरण, ऊर्जा, अंतरिक्ष, स्‍थूल शरीर आदि पर कार्य करता है। कुछ सीमा तक मनोविज्ञान अंत:करण की परतें खोलने का प्रयास करता है। परंतु शूक्ष्‍म पंचतत्‍त्‍व और उनसे निर्मित शूक्ष्‍म व कारण शरीर; पाँच प्राण; प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्‍दमय कोश, ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्द्रियों में वास करनेवाली चेतना विज्ञान के क्षेत्र से बाहर है।

यहाँ यह शंका होती है कि कैसे मानें कि यह सब कल्‍पना नहीं है। इसका उत्‍तर यही है कि विज्ञान में प्राकृतिक घटनाओं को देखते हुए किसी नियम की कल्‍पना की जाती है, फिर उसे गणितीय सूत्रों से सिद्ध किया जाता है तब उसे प्रयोग में लाते हैं। उदाहरण के लिए खगोलीय घटनाओं पर प्रयोग करते समय आइंस्‍टीन के मन में यह विचार आया कि स्‍थान व समय सापेक्ष हो सकते हैं और किसी पिण्‍ड के गुरुत्‍वाकर्षण के कारण दिक् व काल (स्‍पेस एंड टाइम) में वक्रता आ जा सकती है। उन्‍होंने इस प्रमेय को गणितीय विधि से सिद्ध किया और E=mc2 का सू्त्र दे दिया । इसी का उपयोग कर परमाणु ऊर्जा जैसे आविष्‍कार हुए। चूँकि विज्ञान वाह्य जगत का हिस्‍सा है इसलिए एक खोज सब को दिखती है और सब उससे लाभांवित होते हैं।

इसी प्रकार अंतर्जगत् की खोज के दौरान पंचतत्‍त्‍वों की अवधारणा आई। आप उसे समझना चाहें तो अपने आप पर स्‍वयं प्रयोग करना होंगे। पहले बौद्धिक रूप से पंचतत्‍त्‍व की अवधारणा पर प्रारंभिक विश्‍वास करना होगा। फिर जीवन के हर कार्य में सचेत रहना होगा कि कार्य-व्‍यवहार, स्‍थूल, शूक्ष्‍म या कारण किस शरीर के स्‍तर पर हो रहा है और मैं इन सबसे पृथक् हूँ। जाग्रत, स्‍वप्‍न और सुषुप्ति (गहरी नींद जब कुछ भी स्‍मरण नहीं रहता) पर विचार करना होगा कि वह कौन है जो तीनों को अनुभव कर रहा है। इस प्रकार तीन शरीर, पाँच कोशों और तीन अवस्‍थाओं को अलग करते जाने पर दृढ़ विश्‍वास होता जाएगा कि मैं इनसे अलग हूँ, सदैव एक सा हूँ । यह विश्‍वास जब अनुभव में बदल जाएगा वही आत्‍मा की सत्, चित् और आनन्‍द की स्थिति है।

इस प्रकार विज्ञान व अध्‍यात्‍म का लक्ष्‍य एक हो सकता है पर रास्‍ते अलग-अलग हैं। इसलिए न तो अध्‍यात्‍म, विज्ञान हो सकता है और न ही विज्ञान, अध्‍यात्‍म। यहाँ ध्‍यान रहे अध्‍यात्‍म व धर्म दोनों अलग हैं, इनके बीच वही संबंध है जो विज्ञान और तकनीकी के बीच है। तकनीकी अच्‍छी या बुरी हो सकती है परंतु शुद्ध विज्ञान तो सदैव एक सा रहेगा । इसी प्रकार धर्म अच्‍छे या बुरे हो सकते हैं परंतु अध्‍यात्‍म तो सदैव एक सा रहेगा।