Flashback: लिखने में आलस्य और लेखन के प्रति जिज्ञासा का बेमेल संयोग!

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Flashback: लिखने में आलस्य और लेखन के प्रति जिज्ञासा का बेमेल संयोग!

पठन और पुन: उस पर मनन मेरे स्वभाव का सदैव एक महत्वपूर्ण अवयव रहा है।परन्तु लेखन के प्रति मुझमें बहुत आलस्य रहा है और अत्यंत आवश्यक होने पर ही क़लम उठाता रहा हूँ। यह आलस्य मेरे होश संभालने से लेकर आज तक यथावत है। प्राथमिक से स्नातकोत्तर कक्षाओं तक मैं नोट्स लेने में कतराता था और इसलिए कक्षा में मैं बहुत ध्यान से सुनता था और उसे अपने स्मरण कोष में संचित रखने का प्रयास करता था। कभी कोई भी विषय समझने में मुझे समस्या नहीं होती थी। परीक्षाओं में कक्षा में अर्जित ज्ञान के आधार पर अवश्य मुक्त हस्त से लिखा करता था।

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कक्षा तीन तक मैं पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुज़फ़्फ़रनगर में सरस्वती शिशु मंदिर में पढ़ता था।वहाँ पढ़ाई के अतिरिक्त वैदिक परम्परानुसार कुछ श्लोक भी याद कराए जाते थे जिनकी कुछ पंक्तियाँ अभी भी स्मरण हैं।चौथी कक्षा में मुझे पूर्वी उत्तर प्रदेश के ग़ाज़ीपुर में लूदर्स कॉंन्वेंट स्कूल में भर्ती कराया गया जहाँ समर्पित मिशनरी नन पढ़ाया करतीं थीं। पूर्वी उत्तर प्रदेश में प्रसिद्ध कवि घाघ से प्रभावित होकर उन दिनों मैंने ( संभवतः पहली) कविता लिखी जिसकी प्रथम पंक्ति थी-
आया अषाढ़,
सब मन भाया अषाढ़ – – –

पांचवीं कक्षा की परीक्षा जिला बोर्ड द्वारा ज़िले के सभी स्कूलों के लिए आयोजित होती थी।मेरा एक सहपाठी दिलीप सरकार पूरे ज़िले में प्रथम आना चाहता था और इसके लिए उसका परिवार भी बहुत उद्विग्न था।संयोगवश सहज ढंग से मैं प्रथम आ गया। इसके कारण दिलीप सरकार को हुए दुख के प्रति मेरी वास्तविक सहानुभूति थी।प्रथम आने पर मुझे स्कूल द्वारा फ्रांसीसी जनरल और सम्राट नेपोलियन बोनापार्ट के ऊपर एक पतली इंग्लिश पुस्तक पुरस्कार में दी गई। इंग्लिश हमारे स्कूल के वातावरण में थी। मैंने पुस्तक पढ़कर इंग्लिश में इसके बारे में लिखा जिसे पुस्तक समीक्षा लिखने का एक बाल प्रयास कहा जा सकता है। मैं लिखता कम था परन्तु अंग्रेज़ी और हिंदी दोनों भाषाओं में आराम से लिखने लगा था।
सातवीं कक्षा के पाठ में प्रसिद्ध देश भक्त कवियत्री सुभद्रा कुमारी चौहान की एक कविता ‘वीरों का कैसा हो वसंत’ थी।

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इससे प्रभावित होकर मैंने एक कविता लिखी जिसका प्रारंभ कुछ इस प्रकार था-
वीरों बताओ रक्त का रंग।
आश्चर्य मनाती हल्दीघाटी,
उस नाहर पर जिसने नरमुण्डों से उसको पाटी।-
बनारस में मैंने जे पी मेहता इण्टर कॉलेज में आठवीं से हाई स्कूल तक की पढ़ाई की। इस काल में मुझे संयोगवश प्रेमचंद एवं जयशंकर प्रसाद का समस्त साहित्य मिल गया जिसमें से अधिकांश मैने पढ़ डाला। इन तीन वर्षों में स्कूल की मैगज़ीन में मेरी कुछ कविताएँ और लेख प्रकाशित हुए। इसके बाद मेरठ के गवर्नमेंट इण्टर कॉलेज में ग्यारहवीं और बारहवीं कक्षा के समय मैं कम्युनिस्ट विचारधारा से बेहद प्रभावित हो गया था और सर्वहारा वर्ग के लिए दो एक लेख मैने केवल स्वान्त: सुखाय लिखे। मेरठ में भी स्कूल की मैग्ज़ीन में कुछ कविताएँ मैंने दी।मुझे पाठ्य पुस्तक में दिए गए तुलसीदास और कबीर की रचनाएँ भी मुझ को बहुत आकर्षित करती थीं और मैंने अवधी में कुछ दोहे लिखने का भी प्रयास किया।एक निबंध प्रतियोगिता में मेरे निबंध ‘प्रसाद का काव्य सौष्ठव’ को प्रथम पुरस्कार प्राप्त हुआ।


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इलाहाबाद विश्वविद्यालय में साइंस के छात्र के रूप में मैंने कुछ नहीं लिखा परन्तु वहाँ पर मुझे राजनीतिक दर्शन तथा इतिहास आदि विषयों में गहरी रुचि हो गई। लखनऊ विश्वविद्यालय में आकर मैंने बी ए में पोलिटिकल साइंस, हिस्ट्री और इंगलिश लिटरेचर लेकर पढ़ाई की। श्री राज बिसारिया हमें इंग्लिश काव्य पढ़ाते थे। वे संभ्रांत व्यवहार के अत्यंत कुशाग्र शिक्षक थे। उनके पढ़ाते समय पूरा वातावरण काव्यमय हो जाता था। मैं मंत्रमुग्ध होकर समग्र ध्यान से उन्हें सुनता था। उनकी पढ़ाने की भाषा, शैली और हाव भाव अत्यंत प्रभावशाली होते थे। उनको सुनकर परीक्षा में किसी भी प्रश्न का उत्तर आसानी से लिखा जा सकता था।

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मैं शेक्सपीयर, वर्ड्सवर्थ, शैली, कीट्स, बायरन और जॉर्ज बर्नार्ड शा आदि से बहुत प्रभावित था तथा उनके साहित्य पर चिंतन किया करता था। मुझे घर पर मेरे मामा द्वारा अमेरिका से लाया हुआ पुराना बड़ा टाइपराइटर मिल गया।यह टाइपराइटर मेरे लिए ख़ज़ाना सिद्ध हुआ।कवियों के प्रभाव में मैं इंग्लिश में अपनी कविताएँ टाइप करने लगा। बी ए के छात्र जीवन में अंग्रेज़ी कवियों की भाषा और छंद की शैली में कुछ अपनी कविताएँ टाइपराइटर पर दाहिनी तर्जनी उंगली से टाइप करता था। मेरी कविताओं को पढ़ने या सुनने वाला कोई नहीं था। बी ए पास करने के बाद मैंने राज बिसारिया के ऊपर एक कविता लिखी है जो पोस्ट से उन को भेज दी। उनकी कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली।

मेरी रुचि केवल कविता तक सीमित नहीं थी। कुछ सामायिक विषयों पर मैं इंग्लिश में लेख भी लिखा करता था जिनमें मेरी कुछ मौलिकता होती थी।इन लेखों को मैं केसरबाग स्थित नैशनल हेरल्ड प्रेस के डिब्बे में डाल देता था। ये मेरे लेख रविवार को नेशनल हेराल्ड समाचार पत्र के मैगज़ीन खंड में प्रकाशित हो जाते थे। मुझे 30 रुपये का पारिश्रमिक तुरंत मनी ऑर्डर से आ जाता था। मेरी मित्र मंडली को पैसे की आवश्यकता अनुभव होने पर वे मुझ पर कुछ लिखने का दबाव भी डालते थे। कुल मिलाकर छह या सात लेख नेशनल हेराल्ड में प्रकाशित हुए। यह सब घर पर रखे टाइपराइटर का कमाल था।पुरानी टाइप की हुई कविताओं की मूल प्रतियाँ तथा नैशनल हेरल्ड की पेपर कटिंग मेरे पास उपलब्ध हैं। मुझे लेखन का बहुत लाभ मिला। जब मैं एम ए प्रथम वर्ष में था तब बिना किसी तैयारी के आइपीएस की परीक्षा में बैठ गया।परीक्षा में निबंध तथा अन्य सभी विषयों में अच्छे लेखन तथा इंटरव्यू में आत्मविश्वास के कारण मैं प्रथम प्रयास में ही सफल हो गया।


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सेवाकाल में मेरा लेखन फाइलों में नोटिंग अथवा रिपोर्ट लिखने तक सीमित हो गया। विस्तृत नोटिंग के लिए मैं हिंदी में डिक्टेशन देता था और छोटी टीप होने पर इंग्लिश में अपने हाथ से लिखता था।संभवतः मेरी टीप और प्रतिवेदन आदि वरिष्ठ अधिकारियों को ठीक लगते थे क्योंकि उनके बारे में कभी कोई विपरीत टिप्पणी नहीं की गई।एक बार स्पेशल DG CRPF की जम्मू कश्मीर में पदस्थापना के समय अत्यधिक हिंसक वातावरण में ऊधमपुर के रेस्ट हाउस में देर रात को मैंने दार्शनिक भाव में कुछ लिखा और उसे यथावत अपने एक मित्र को भेज दिया। सेवानिवृत्त के बाद मैंने देखा कि सोशल मीडिया के रूप में एक संचार क्रांति आ गई है। 2013 से मैंने फ़ेसबुक पर अपने भ्रमण के चित्रों के साथ कुछ छोटी पंक्तियों में उनका वर्णन देना प्रारंभ कर दिया।छात्र जीवन की एक उंगली से टाइपिंग यहाँ मेरे कार्य आयी।इसके तीन- चार वर्षों बाद आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक आदि सामयिक विषयों पर मैंने अंग्रेज़ी में लिखना प्रारंभ किया। इसके पश्चात हिंदी में भी कुछ लिखना प्रारंभ कर दिया क्योंकि हिन्दी समझने वाले लोगों की संख्या अधिक है। हिन्दी टाइप करना बहुत कष्टसाध्य था।

गूगल पर वॉयस रिकॉर्डिंग की सुविधा आ जाने के बाद मेरा अंग्रेज़ी और हिंदी का लेखन फ़ेसबुक और वॉट्सऐप पर कुछ बढ़ गया।गूगल पर हिंदी का डिक्टेशन बहुत स्तरहीन होता है और उसमें बहुत सुधार करना पड़ता है।संपादकों के विशेष आग्रह पर हिंदी में हाथ से लिख कर उसकी फ़ोटो वॉट्सऐप पर उन्हें भेजे देता था। ये मेरे लेख अमर उजाला, दैनिक भास्कर और नईदुनिया आदि समाचार पत्रों में छपे। कोविड-19 महामारी के समय कुछ मित्रों के सुझाव पर मैंने अपनी सोशल मीडिया में लिखी अंग्रेज़ी की रचनाओं का एक संकलन प्रकाशित करने का निश्चय किया। इस पुस्तक का नाम ‘My Empire in Social Media’ रखा और इसे दिल्ली के प्रसिद्ध ज्ञान प्रकाशन द्वारा पुस्तक रूप में प्रकाशित किया गया।इस पुस्तक में मेरे छात्र जीवन की रचनाओं को सूर्य का प्रकाश मिला। इसमें एक अध्याय में मेरे छात्र जीवन में लिखी गई कुछ रचनाएँ भी हैं।मेरी कभी पुस्तक लिखने के लिए महत्वाकांक्षा नहीं थी परन्तु महामारी का परिणाम यह अनायास मेरी पुस्तक थी। मैं कोई लेखक, कवि अथवा विचारक होने का दावा नहीं करता हूँ, फिर भी अपने जीवन में छिटपुट रूप से अपनी भावनाओं और विचारों को सविनय व्यक्त करता रहा हूँ।

मीडियावाला के संस्थापक और प्रधान संपादक श्री सुरेश तिवारी के आग्रह पर बुधवारीय संस्मरण लेख श्रंखला लिख रहा हूँ जिसका यह 56वां अंक है।