Flashback: अपने घर का अहसास और जूझने की वो स्मृतियां

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Flashback: अपने घर का अहसास और जूझने की वो स्मृतियां

सभी का सपना होता है कि वह अपना स्वयं का एक घर बनाये।के एल सहगल का एक भावनापूर्ण गाना था “एक बंगला बने न्यारा, रहे कुनबा जिसमें सारा”।संसाधनों की कमी के बीच बनाया हुआ घर कल्पना की एक मूर्ति है जो मनुष्य के जीवन के पश्चात भी जीवित रहती है।

IPS की सेवा प्रारंभ करने के कुछ वर्षों बाद 1983 में, जब मैं घर का कोई सपना नहीं देख रहा था, तब इंदौर में मेरे प्रिय पुलिस अधीक्षक रहे श्री आर एस एस यादव ने मुझे फ़ोन किया।उन्होंने सीधे मुझसे कहा कि पुलिस हाउसिंग सोसाइटी भोपाल में 4 हज़ार वर्गफीट का प्लॉट ले लो। तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह से उनके ससुर आइजी इंटेलिजेंस श्री शिवमोहन सिंह ने पुलिस हाउसिंग सोसाइटी के लिए 11 एकड़ शासकीय भूमि कोटरा सुल्तानाबाद में पहाड़ी की हल्की ढलान में ले ली थी।

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श्री यादव उस समय पुलिस अधीक्षक भोपाल थे तथा इसी सोसायटी के सेक्रेटरी थे। मेरे पास उस समय बचत की कोई धन राशि नहीं थी, इसलिए मैंने उन्हें कोई जवाब नहीं दिया। श्री यादव ने मुझे कई बार फ़ोन किया तथा कहा कि कहीं से भी पैसे उधार लेकर 20 हज़ार रुपये अभी दे दो और शेष 20 हज़ार बाद में दे देना। मैंने अपने ससुर से 20 हज़ार रुपये उधार लेकर सोसायटी में जमा कर दिये तथा इसकी सूचना शासन को दे दी।

दो वर्ष बाद शेष धनराशि जमा कर दी। कुछ वर्षों बाद मैंने अपने ससुर के उधार के पैसे वापस कर दिये।भोपाल जा कर जब मैं अपना प्लॉट देखने गया तो MACT चौराहे से आगे पतली कच्ची सड़क थी। क़रीब पौन किलोमीटर बाद सोसाइटी की ढालू ज़मीन काँटेदार झाड़ियों से भरी थी।मेरा हृदय बैठ गया, लेकिन श्री यादव ने कहा कि वर्तमान नहीं, भविष्य की सोचो।

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6 जून को बैतूल से पुलिस मुख्यालय, भोपाल हुआ अकस्मात् स्थानांतरण मेरे लिए वरदान सिद्ध हुआ। मैं मकान बनाने की योजना में जुट गया। भारत की निचली नौकरशाही से जूझने के बाद नगर पालिका और राजस्व विभाग से NOC प्राप्त की और रजिस्ट्री करवाई। इसके पश्चात अधिकतम पात्रतानुसार 1.25 लाख के ऋण के लिए शासन को प्रस्ताव भिजवाया। चार इमली में मेरे पड़ोसी श्री मलय राय, IAS गृह विभाग में उप सचिव थे। वे सदैव मेरे सहायक सिद्ध हुए। उन्होंने सरकारी ढर्रे की गति से हट कर शीघ्र ऋण स्वीकृत करा दिया।

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हाउसिंग सोसायटी का नाम अब वैशाली नगर हो चुका था तथा थोड़े से मकान बन चुके थे या निर्माणाधीन थे।अपने बैचमेट अलिन्द जैन का मकान बनाने वाले आर्किटेक्ट बेलगाँवकर से नक़्शा बनवा कर पास करवाया तथा उनके मार्गदर्शन में जनवरी 1987 में कार्य का श्रीगणेश कर दिया। जगलाल मेरा मुख्य मिस्त्री, मज़दूर ठेकेदार और सलाहकार था।ढलान पर चट्टान वाले प्लाट में थोड़ी सी नींव खोद कर बिना कॉलम के ईंटों की चुनाई प्रारंभ हो गयी।प्लाट पर अंबिका नामक एक नौजवान चौकीदार रख दिया था जो ईटों की कोठरी बनाकर रहता था।

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ईंट और बालू सीधे प्लॉट पर जाती थी और सीमेंट मैं अपने गैरेज में रखता था जहाँ से थोड़ी- थोड़ी सीमेंट की बोरियाँ जाती थी। प्रतिदिन पुलिस मुख्यालय जाने से पहले मैं प्लॉट पर जाता था जहां पिछले दिन की प्रगति देखकर अगले कार्य की जानकारी लेता था।मकान बनाने वाले अधिकांश लोग मेरी तरह ही अनुभवहीन होते हैं और विडंबना यह है कि मकान बना लेने के पश्चात ही वे मकान बनाने के योग्य हो पाते हैं।मकान का बजट कम होने के कारण मैं दिन और रात किफ़ायत करने की ही बात सोचता था।

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दमोह की डायमंड सीमेंट मुझे मामूली कंसेशन पर मिल जाती थी। प्रारंभ में जब दीवारें खड़ी हो रही थीं तो ऐसा लगता था कि बड़ी तेज़ी से घर बन रहा है।छत डालने के लिए लोहा लेना पड़ा। जगलाल ने कुछ पूजा अर्चना करके छत डाली। कहा जाता है कि सिर पर छत होना एक विशिष्ट अनुभूति है। छत बनाकर उस पर हफ़्तों तक पानी भरकर रखा जाता है।एक बार तेज गर्मी में पानी की कमी के कारण छत सूखने लगी तब पच्चीसवीं बटालियन के कमांडेंट श्री हेमंत सरीन ने सौभाग्य प्रदत्त सहायता करते हुए मुझे पानी का टैंकर उपलब्ध कराया। मेरा मकान साधारण एकमंज़िला बन रहा था जिसमें असाधारण केवल हवा और प्रकाश का प्रावधान था।

छत ढलने के बाद व्यय की गति बहुत बढ़ गई।सौभाग्य से चौथे वेतन आयोग का 25 हज़ार का एरियर और GPF से पच्चीस हज़ार का उधार मिल गया। कार्य जारी रहा। वन विभाग की नीलामी में कुछ सस्ती सागौन की लकड़ी मिल गई। दिल्ली के लालक़िले के पास स्वयं जाकर कुछ बिजली फिटिंग्स् का सामान लेकर आया। योजना के अनुसार अंत में कोआपरेटिव बैंक से 17% ब्याज पर 50 हज़ार रुपये का ऋण लिया। अन्तिम क्षणों में कुछ सामान बाज़ार से उधार भी लेना पड़ा।

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लगभग एक वर्ष बाद मकान पूरा होने को आया। मेरी अम्मा,पिता, बहन और जीजा मेरी उपलब्धि देखने आये। अम्मा की देख रेख में सत्यनारायण भगवान की कथा के साथ गृह प्रवेश की औपचारिकता पूरी हुई।मुझे ठेठ अवधी धोती पहनी पड़ी। अब अचानक मुझे किराएदार की गंभीर समस्या का ध्यान आया। बिना किरायदार के कोआपरेटिव बैंक का ब्याज चुकाना संभव नहीं था। पुनः मेरा भाग्य देखिए कि दो तीन दिन बाद मेरे मकान के ठीक सामने पहले से रह रहे श्री कोहली मेरे पास आए और बोले कि मैं लगातार आपके घर को बनता देख रहा हूँ और शाम को सपत्नीक आकर इसका अवलोकन कर रहा हूँ, और मुझे यह बहुत पसंद है। मैं यहाँ रहना चाहता हूँ।1 जनवरी, 1988 को श्री कोहली द्वारा तय 1700/- ( बिना मोलतोल के) मासिक पर घर उन्हें किराए पर दे दिया। उनके बाद मणि मेहता किरायदार के रूप में रहे। ये दोनों ही मेरे अच्छे मित्र थे और कभी भी घर जाने पर हर तरह की आवभगत करते थे।

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कालांतर में 2001 में मैंने अपने मकान की दूसरी मंज़िल व्यवस्थित ढंग से बनायी। 2005 में ट्रांसपोर्ट कमिश्नर बनने पर मुझे ग्वालियर में शासकीय मिला। पहले ट्रांसपोर्ट कमिश्नर को भोपाल और ग्वालियर दोनों स्थानों पर मकान मिलते थे, परंतु एक मंत्री जी के रहने के लिए मुझे भोपाल का मकान ख़ाली करने का नोटिस मिला। संयोगवश मणि मेहता उसी समय मकान ख़ाली करना भी चाहते थे। मैं तत्काल अपने घर में आ गया। समय के अनुसार मकान में परिवर्तन और उन्नयन होता रहा।अब वैशाली फ़ोर लेन से जुड़ी है। यह कालोनी और विशेष रूप से मेरे बेडरूम से दृष्टिगत घर के पीछे का क्षेत्र वृक्षों से आच्छादित है। जब मैं भोपाल में रहता हूँ तब यह घर एक अनोखी संतुष्टि प्रदान करता है।