Flashback : न्याय और अन्याय के बीच पुलिस का कर्तव्य बोध

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Flashback : न्याय और अन्याय के बीच पुलिस का कर्तव्य बोध

सरकारी, और विशेष रूप से पुलिस की, कार्रवाई में कई बार जाने-अंजाने ऐसी स्थितियाँ निर्मित हो जाती है जिसमें कुछ लोगों के साथ बहुत अन्याय हो जाता है। विडंबना यह है कि इस अन्याय को दूर करने के लिए यदि कोई अधिकारी प्रयास करता है तो कानून और नियमों की भूलभुलैया में उसका यह प्रयास दम तोड़ देता है।पुलिस की अपनी प्रारंभिक सेवा में ही मुझे स्वयं के द्वारा डाले गए एक सट्टा रेड में हुए अन्याय को समाप्त करने के लिए पूरे तंत्र के विरुद्ध जाना पड़ा था।

सत्तर के दशक के अन्त तक इन्दौर में सट्टे का बहुत प्रचलन हो गया था। इसी के साथ आदि काल से चला आ रहा व्यसन जुआ भी अनेक अड्डों पर चला करता था। बहुत से पुलिस अधिकारियों और कर्मचारियों के जुए-सट्टे के संचालकों से पैसा लेकर उनसे मिले रहने की भी शिकायतें आती थी।CSP परदेशीपुरा, इंदौर का चार्ज लेते ही मेरे पुलिस अधीक्षक श्री आरएलएस यादव ने निर्देश दिए थे कि प्रत्येक शाम को जुएं-सट्टे के अड्डों पर छापा डालकर कार्रवाई की जाए।

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मेरी व्यस्त दिनचर्या में यह कार्रवाई भी सम्मिलित थी।प्रतिदिन सुबह सभी अधीनस्थ थानों से पिछले 24 घंटे के अपराध तथा अन्य महत्वपूर्ण जानकारी फ़ोन पर लेकर अपने पूरे क्षेत्र की संकलित जानकारी पुलिस अधीक्षक महोदय को फ़ोन पर ही देनी पड़ती थी।इसके उपरांत 10बजे कंट्रोल रूम मीटिंग के लिए जाना पड़ता था।

कोतवाली थाने में ही कंट्रोल रूम और मेरा ऑफ़िस था।मीटिंग के बाद दोपहर तक अपने कार्यालय में लिखापढ़ी और लोगों से मिलने का सिलसिला चलता था। अधिकांशतः क्षेत्र के गंभीर अपराधों के घटना स्थलों पर भी जाना पड़ता था।इसके अतिरिक्त अक्सर छात्र, श्रमिक, सांप्रदायिक या राजनीतिक क़ानून व्यवस्था या पथराव आदि संभालने अथवा VIP ड्यूटी में जाना पड़ता था।दोपहर का भोजन कई बार नहीं मिल पाता था और बाज़ार से कुछ लेकर खाना पड़ता था।

शाम को सट्टा-जुआ रेड और फिर देर रात तक थाना सदर बाज़ार में अपराधियों से पूछताछ की कार्रवाई होती थी।यदा कदा भोर होने से पहले भी कुछ विपत्ति आ जाती थी।

घरेलू स्थिति यह थी कि गर्भावस्था के समय मेरी पत्नी को समय-समय पर MYH में डाक्टर को दिखाने के लिए मेरे मित्र PG मेडिकल स्टूडेंट डॉ अशोक शर्मा अपने स्कूटर पर बैठाकर ले जाते थे। डॉ अशोक शर्मा प्रदेश के डायरेक्टर हेल्थ सर्विसेज़ के पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। वे आजीवन मेरे फ़ैमिली डॉक्टर रहे और आज भी हैं।

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1978 में एक शाम को गोपनीय सूचना के आधार पर मैं अपनी पुलिस पार्टी के साथ सर्राफ़ा बाज़ार के निकट एक मकान के दूसरे तल पर स्थित एक कमरे में चल रहे जुए के अड्डे पर छापा डालने गया।छापा सफल रहा और दस ग्यारह लोग पकड़े गये तथा क़रीब 20 हज़ार रूपये (जो उस समय बड़ी रक़म थी) ज़ब्त किए गए। सभी लोगों को गिरफ़्तार कर उन्हें एम जी रोड थाने पर पहुँचा दिया और जप्त रक़म देकर अगली कार्रवाई थाने वालों को करने का निर्देश देकर दूसरी जगह रेड करने चला गया।

वास्तव में जप्ती आदि की कार्रवाई घटनास्थल पर ही होनी चाहिए थी और प्रत्येक व्यक्ति से जितनी रक़म मिली थी उसे उसके नाम पर जप्त की जानी चाहिए थी। लेकिन ऐसा व्यावहारिक दृष्टि से नहीं हो पाता था क्योंकि इसमें बहुत समय लगता था तथा एक ही शाम को अनेक स्थानों पर रेड करना पड़ता था।

इसलिए रेड डालने के बाद संबंधित लोगों को पकड़ कर जप्त रक़म, ताश गड्डियाँ और पर्चियाँ आदि संबंधित थाने पर अग्रिम की कार्रवाई के लिए दे दिये जाते थे।इस प्रकरण में जप्त की गई लगभग 20 हज़ार रुपये की रक़म को गिरफ़्तार लोगों में थाना स्टाफ द्वारा अनुमान से बाँट कर केस डायरी में बता दी गई।

तीन दिन बाद मेरे कार्यालय में देपालपुर का एक ग़रीब किसान, जिसका नाम संभवतः मुरारीलाल था, आया और उसने कहा कि उस दिन जुए में जो रक़म पकड़ी गई थी उसमें 15 हज़ार रूपये उसके थे और वह उस कमरे में केवल दर्शक की तरह मौजूद था। यह रक़म उसने उसी दिन बैल बेच कर पायी थी।

वह जुआ खेलना तक नहीं जानता था और अपने एक रिश्तेदार के कहने पर साथ चला गया था जिसके साथ रात में ही उसे वापस देपालपुर जाना था। अपनी बेटी की शादी के लिए उसने अपने बैल बेचे थे।उसके हाव भाव देखकर मुझे तुरंत विश्वास हो गया कि वह बिलकुल सही बोल रहा है, फिर भी मैंने उसकी बातों का पृथक से सत्यापन करवाया।

इस प्रकरण की जानकारी जब मैंने थाना प्रभारी से ली तो उन्होंने बताया कि इस प्रकरण में मजिस्ट्रेट के सामने चालान प्रस्तुत कर दिया गया है और अब इसमें कुछ नहीं किया जा सकता है।मैं स्वयं यह जानता था कि अब नियमानुसार कोर्ट से फ़ैसला होने के बाद ही यदि यह रक़म वापस भी की जाती है तो मुरारी लाल को केवल दो तीन हज़ार रुपये ही मिलेंगे और वह भी महीनों या वर्षों बाद।

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मैंने सरकारी वक़ील से मुरारीलाल की सहायता करने का कोई उपाय पूछा तो उन्होंने कहा कि कोई रास्ता नहीं है क्योंकि पुलिस इस प्रकरण को ख़त्म करने का निवेदन न्यायालय से नहीं कर सकती है क्योंकि यह खुद पुलिस की अपनी कार्रवाई है और वो इसे अब ग़लत किस प्रकार कह सकती है।यद्यपि सरकारी वक़ील ने यह संभव नहीं होना बताया परन्तु इस प्रकरण में कोर्ट में ख़ात्मा लगाने का विचार मेरे मन में समा गया।

अपने पुलिस सहयोगियों की राय के विरुद्ध मैं मजिस्ट्रेट साहब से, जो पुलिस अधीक्षक के मित्र थे तथा जिनका नाम बताना उचित नहीं होगा, मैं व्यक्तिगत रूप से मिला और उनसे इस प्रकरण को ख़त्म करने की बात कही। उन्होंने कहा कि ऐसा करना पुलिस और कोर्ट दोनों के लिए संभव नहीं होगा तथा यह दोनों के लिए ख़तरनाक भी हो सकता है।मेरे लगातार एक ग़रीब व्यक्ति की सहायता करने का निवेदन करने पर उन्होंने इस प्रकरण में अपवाद स्वरूप ख़ात्मा करना स्वीकार कर लिया।

न्यायालय में पुलिस ने अपनी नई रिपोर्ट में अपनी कार्रवाई को गलत होना स्वीकार किया।मजिस्ट्रेट साहब ने पुलिस की रिपोर्ट पर ख़ात्मा स्वीकृत कर लिया और रक़म वापस करने के आदेश दे दिए।उन्होंने अनौपचारिक रूप से कोर्ट के कर्मचारी को अभियुक्तों के बीच रक़म बाँटने के लिए मेरे निर्देश के अनुसार कार्रवाई करने के लिए कहा।

मैं उस कर्मचारी को साथ लेकर अभियुक्तों को न्यायालय परिसर में अलग ले गया और जिसकी जितनी वास्तव में रक़म थी उतनी वापस करवा दी। न्यायालय के रिकॉर्ड में सबके प्राप्ति के हस्ताक्षर पुलिस कार्रवाई की जप्ती के अनुसार ही लिये गये।

मुरारीलाल को अपनी बेटी के विवाह के लिए पूरे 15 हज़ार रुपये मिल गए। वह न्यायालय परिसर से मुझ से बिना कुछ बोले, परन्तु आँखों से बहुत कुछ कहता हुआ ओझल हो गया।