Flashback: मेरा विवाह
IPS में आने के बाद मेरा पुलिस और प्रशासन अकादमियों का प्रशिक्षण समाप्त हो चुका था और मध्य प्रदेश काडर मिलने के बाद खंडवा में ज़िले का प्रशिक्षण कर रहा था। मैं 25 वर्ष की आयु पार कर चुका था और सामाजिक रूप से पूर्णतः विवाह योग्य हो गया था। परिवार के लगभग सभी निर्णयों की तरह मेरे विवाह का पूरा निर्णय भी मेरी अम्मा के हाथ में था। एक अच्छी बात थी कि मेरे माता पिता को विवाह में दहेज का कोई लालच नहीं था।मैंने एक बार दबे स्वर में अपनी अम्मा को किसी विवाह का सुझाव दिया तो उन्होंने तुरंत मुझे चुप कर दिया।
अम्मा लखनऊ से परिवार के साथ जनवरी 1976 में भोपाल मेरी एक मात्र मौसी की बेटी के विवाह में आईं।मैं खंडवा से 26 जनवरी की परेड कमांड कर बस से चलकर देर संध्या को मुख्य कार्यक्रम में भाग लेने भोपाल पहुँचा। मेरे मौसा श्री ऋषि कुमार पांडे IAS अधिकारी थे। मेरी अम्मा ने बिना मेरी जानकारी के भोपाल में ही किसी अन्य कार्यक्रम में मेरी होने वाली पत्नी को देख लिया था। उसकी जन्मपत्री उन्होंने पहले ही लखनऊ में मिलवा ली थी। विवाह का निर्णय उन्होंने तुरंत भोपाल में ही ले लिया। लखनऊ लौटकर उन्होंने हमारे परिवार के परंपरागत पंडितजी से विवाह हेतु लगभग एक वर्ष बाद सोमवार 17 जनवरी, 1977 का शुभ मुहूर्त निकलवा लिया।
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विवाह से एक सप्ताह पूर्व मैं छुट्टी लेकर खंडवा से लखनऊ पहुँचा।मेरे तीनों बड़े भाई और सबसे बड़ी बहन के परिवारों के अतिरिक्त अनेक रिश्तेदार भी एकत्र हुए। अमेरिका से मेरी मामी अपनी दो बेटियों के साथ आई थीं जो भारतीय विवाह देखने के लिए बहुत उत्सुक थीं।इतने सब लोग घर पर ही थे क्योंकि उन दिनों होटल के बारे में सोचना भी अपमानजनक था।मेरी अम्मा आधुनिकता एवं परंपरा का मिश्रण थीं। दिल्ली में शिक्षित होने के उपरांत भी पूरी निष्ठा से रीति रिवाजों का पालन करती थी।प्रतिदिन किसी न किसी कार्यक्रम के अतिरिक्त महिला संगीत ढोलक और मंजीरे के साथ होता था। मुझे अनेक पूजाओं व रीतियों में भाग लेना पड़ा। चारों ओर हर्षोल्लास का वातावरण था तथा मेरी मामी की बेटियाँ भी भाषा की समस्या लॉंघ कर विस्मय से आनंदित थीं।
16 जनवरी, 1977 को मुहल्ले के इष्टदेव भैरोंजी के मंदिर में घर की महिलाओं के साथ आशीर्वाद लेकर मैंने बारात के साथ बस से रीवा प्रस्थान किया। परंपरा को तोड़ते हुए बारात में मेरी मौसी और मामी की बेटियां भी थी। बारात में मेरे लखनऊ विश्वविद्यालय के पाँच मित्र भी थे। प्रयागराज में कुंभ लगा होने के कारण टीकाकरण की समस्या से बचने के लिए बस बाँदा घूमकर 75 किमी अधिक कुल 400 किमी की यात्रा पर संकरे रास्तों पर चल पड़ी। बाँदा में सुविधाजनक रात्रि विश्राम कर के अगले दिन हम लोग रीवा पहुँच गए।रीवा में फ़ॉरेस्ट रेस्ट हाउस में बारात ठहरने की व्यवस्था थी।
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रात होते ही बारात बैंड के साथ विवाह स्थल के लिए रवाना हुई। उस समय हमारे घर की परंपरानुसार बारात में नाचने का कोई प्रश्न नहीं था और मेरे पापा को यह पूर्णतः अप्रिय था। मुझे अपने सिर पर परम्परागत मौर पहनना पड़ा जिसमें चेहरा भी ढँक जाता है। रीवा की प्रसिद्ध पीली कोठी की छत पर शीतलहर के बीच विवाह का मंडप बनाया गया था। विवाह से पूर्व मैंने अपनी होने वाली पत्नी को नहीं देखा था और कार्यक्रम प्रारंभ होने के बाद तक भी देख नहीं सका था। मेरे मित्र अनुपम बाजपेयी ने किसी तरह उसे देख कर मुझ से कहा कि भौजी ठीक है।
अग्नि के फेरे लेने के लिए उठते समय मैंने पहली बार लक्ष्मी को देखा तो वह मेरी अपेक्षाओं और कल्पना से कहीं अधिक अच्छी थी। भावी वैवाहिक जीवन में उसका व्यवहार उसके स्वरूप से भी अच्छा सिद्ध हुआ। बहुत देर रात तक पंडितों का कार्यक्रम चलता रहा। अगले दिन दोपहर को पूरी बारात को भात ( चावल ) खिलाने की रीति हुई। भात खाते समय ठहाकों का दौर चलता रहा। संध्याकाल में कलेवा का कार्यक्रम हुआ जिसमें मुझे ससुराल पक्ष की महिलाओं और बच्चों के बीच में जाना पड़ा। वहाँ सभी लोगों ने मुझे गाना गाने के लिए बहुत दबाव डाला। यद्यपि मैं तबला बजा लेता था परंतु मैं गाने से दूर था। अंततोगत्वा उस अवसर से बहुत बेमेल गाना याद आया- ‘आँसू भरी हैं ये जीवन की राहें’- जिसे सुनते ही सब हंस पड़े। जूते की चोरी की समस्या से भी निपटना पड़ा।
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19 जनवरी को सुबह विदाई के दुखी दृश्य से कुछ क्षण के लिए मैं भी भावुक हो गया। बारात पूर्व मार्ग से ही वापस लौट पड़ी। इस बार बिना अधिक रूके शाम तक लखनऊ पहुँचने का लक्ष्य था। रीवा से निकलते ही कुछ देर के बाद हल्की बूंदाबांदी प्रारंभ हो गई है और फिर रुक रुक कर पूरे मार्ग में पानी गिरता रहा। चित्रकूट और बाँदा के बीच में तीन चार बार सड़क में जाम लगा मिला। प्रत्येक बार मेरे मित्रों ने बस से नीचे उतर कर गाड़ियों और ट्रकों का जाम खुलवाया। बाँदा पहुँचने पर पता चला कि वर्षा के कारण हमीरपुर का मार्ग बंद हो गया है और हमें कुछ और घूम कर काल्पी होकर जाना पड़ेगा। काल्पी में यमुना नदी पर पहुँचते तक अंधेरा हो चुका था।
यमुना नदी पर पोंटून ब्रिज ( तैरता पुल) बना था जिसके पहुँच मार्ग पर गाड़ियां गीली मिट्टी में फँस गई थी। विवश होकर हमें पूरी रात वहीं बस में ही रुकना पड़ा। वहाँ अधिक गाड़ियाँ नहीं थी। काली रात के सन्नाटे में दूर दूर तक कोई प्रकाश नहीं था। उस क्षेत्र में रात में लौटती बारात का रुकना न केवल असुविधाजनक था अपितु भयावह भी था। उस समय मोबाइल नहीं होते थे। लखनऊ में प्रतीक्षारत घर की महिलाओं को सूचना भेजने का कोई उपाय नहीं था और उनकी व्यग्रता की कल्पना की जा सकती थी।
बारात की लड़कियों को बहुत ही कठिन परिस्थितियों से जूझना पड़ा। प्रातः बादलों के बीच कुछ प्रकाश हुआ तो बहुत परिश्रम के बाद वह मार्ग खुला। यमुना पार कर कुछ देर बाद हम लोग पुखरायां क़स्बे में पहुँचे और वहाँ चाय नाश्ता इत्यादि उपलब्ध हुआ। वहाँ से कानपुर होते हुए 20 जनवरी, 1977 को दोपहर लगभग 12 बजे बारात घर पहुँची। बारात को सकुशल देख कर घर के लोगों की साँस में साँस आयी। घर में प्रवेश करने के पूर्व मुझे सपत्नीक भैंरो जी के मंदिर जाना पड़ा। मेरे विवाह का स्मरण वर्षों तक मेरे रिश्तेदार इस लौटती यात्रा से ही करते रहे।
विवाह के उपरांत मैंने शिमला जाने का कार्यक्रम पहले से बना रखा था।मेरे शिमला में पदस्थ दो बैचमेट्स अजित लाल और प्रेम सिंह ने समस्त व्यवस्था कर ली थी। उस समय पूरे उत्तर भारत में असामान्य शीत लहर चल रही थी और इसलिए घर में सभी लोगों ने मेरे शिमला जाने का विरोध किया। इस योजना में मेरी सहायक मेरी अमेरिका से आयी मामी हुई जिन्होंने मेरे जाने का ज़ोरदार समर्थन किया था।लक्ष्मी और मैं कालका मेल से कालका पहुँचे और वहाँ से शिमला के लिए विश्व धरोहर ट्वॉय ट्रेन में बैठ कर हिमालय की गोद में उसके अनन्य सौंदर्य में खो गये।