Flashback: बॉस के प्रतिशोध का अजब तरीका

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18 अक्टूबर, 1997 को लगभग सवा तीन वर्ष तक DIG इंदौर रेंज रहने के पश्चात मेरी पदोन्नति IG टेलीकॉम एंड फ़ायर सर्विसेज़ के पद पर कर दी गई। मैं पदोन्नति से अत्यधिक प्रसन्न था परन्तु बीच सत्र में मेरी बच्चियों की पढ़ाई के व्यवधान की समस्या उत्पन्न हो गई। इंदौर के तत्कालीन कलेक्टर श्री मोहम्मद सुलेमान ने सुझाव दिया कि आप अपना मुख्यालय सत्रावसान तक इन्दौर करवा लीजिए। उन्होंने कहा कि मुख्यमंत्री श्री दिग्विजय सिंह आपको मना नहीं कर सकते हैं। मुख्यमंत्री जी अक्सर इंदौर आते रहते थे और दो तीन दिन बाद ही उनका इंदौर आगमन हुआ तो एयरपोर्ट पर मुख्यमंत्री के VIP लाउंज में बैठते ही सुलेमान जी ने मेरा प्रार्थना पत्र श्री दिग्विजय सिंह जी के समक्ष रख दिया। उन्होंने उसे थोड़ा पढ़ा तथा फिर मेरी तरफ़ देख कर मुस्कुराते हुए पैन निकाल कर अगले वर्ष 30 जून तक मेरा मुख्यालय इन्दौर कर दिया। तत्कालीन प्रमुख सचिव गृह श्री डीएस माथुर ने दो दिन में ही आदेश जारी कर दिये। उल्लेखनीय है कि इंदौर में पुलिस फ़ायर स्टेशन के साथ ही टेलीकम्युनिकेशन का प्रशिक्षण केन्द्र भी था। भोपाल में जब मैं अपने नये बॉस ADG साहब से मिला तो उन्होंने सामान्य तरीक़े से मुझसे बात की तथा कहा कि आप इंदौर की इकाइयों को सुदृढ़ बनाने का कार्य करे। इसके पश्चात उन्होंने भोपाल में वैशाली स्थित उनके तथा मेरे निजी मकानों की बात की तथा कुछ लखनऊ की बात की जो हम दोनों का गृह जिला था।

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एक माह बाद उनका आदेश आया कि मैं नक्सल प्रभावित बस्तर और दंतेवाड़ा (दक्षिण बस्तर) ज़िलों का सघन दौरा करके वहाँ की वायरलेस व्यवस्था को और सुदृढ़ करने के लिए विस्तृत प्रस्ताव प्रस्तुत करूँ। यह प्रस्ताव वहाँ के स्थानीय तकनीकी अधिकारी DSP टेलीकॉम अंसारी से आसानी से प्राप्त किया जा सकता था।यद्यपि यह आदेश मुझे अटपटा लगा परन्तु बस्तर ज़िले के भ्रमण का अवसर प्राप्त होने से मैं बहुत उत्साहित हो गया। इसके पहले मैं केवल एक बार स्वर्गीय राजीव गांधी की आम सभा में सुरक्षा ड्यूटी के लिए पूरे बस्तर को उत्तर से दक्षिण पार करते हुए आँध्र प्रदेश की सीमा से लगे हुए कोंटा गया था परन्तु कोई विशेष दर्शनीय स्थल नहीं देख सका था।

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मैं तुरंत भोपाल पहुँचा और वहाँ से रात्रि ट्रेन के द्वारा सुबह रायपुर पहुँचा। वहाँ कुछ देर रुकने के बाद DSP टेलीकॉम अंसारी के साथ बस्तर के मुख्यालय जगदलपुर के लिए रवाना हो गया जो रायपुर से साढ़े तीन सौ किलोमीटर दक्षिण में है। बहुत देर तक चलने के बाद बस्तर ज़िले के सबसे पहले मुख्य शहर कांकेर पहुँचे। वहाँ मैंने स्थानीय पुलिस अधिकारियों से वायरलेस व्यवस्था की जानकारी प्राप्त करने की और फिर हम आगे बढ़े। कुछ ही देर में केसकाल घाट की सुरम्य ऊंचाइयों पर चढ़ने लगे। ऊपर एक ऑब्जर्वेशन प्वाइंट से पूरी घाटी का बहुत विहंगम दृश्य देखने को मिला। ज़िला मुख्यालय जगदलपुर पहुँचते अंधेरा हो चुका था। SP साहब भेंट करने आये। अगले दिन वायरलेस व्यवस्था का अवलोकन कर अधिकारियों से चर्चा की।दोपहर बाद लगभग 40 किमी दूर प्रसिद्ध चित्रकूट प्रपात ( झरना) देखने गया। 90 फ़ीट गहरा यह बड़ा प्रपात इंद्रावती नदी पर है जो उड़ीसा के कालाहांडी पठार से निकल कर पूर्व से पश्चिम बहते हुए आती है।

बाद में यह महाराष्ट्र की सीमा बनाते हुए दक्षिण मुड़ कर मध्यप्रदेश ( अब छत्तीसगढ़) , महाराष्ट्र व आन्ध्रप्रदेश ( अब तेलंगाना) की सीमाओं के जोड़ पर गोदावरी नदी से मिलती है।हरे जंगलों के बीच में यह प्रपात बहुत मनोहर था। सुरक्षा की अनदेखी करता हुआ मैं अंधेरा होने के बाद तक बैठा रहा। अगले दिन कुछ थानों को देख कर कांगेर वैली नेशनल पार्क में स्थित प्रसिद्ध कुटुमसर की गुफा देखने गया। लाइम स्टोन में पानी के कटाव से भारत की सबसे बड़ी व गहरी यह गुफा अत्यंत नयनाभिराम है।इसके अन्दर भाँति-भाँति की पत्थर की संरचनाएँ तथा गड्ढों में रंगीन मछलियाँ देखने को मिली।आस पास जंगल भी बहुत घना था। अगले दिन दक्षिण बस्तर ज़िले के मुख्यालय दंतेवाड़ा गया जो नक्सलवादी गतिविधियों का केंद्र बन रहा था।SP तथा अन्य स्थानीय अधिकारियों से चर्चा करने के बाद पवित्र दंतेश्वरी शक्तिपीठ के दर्शन करने गया जहाँ किंवदंती के अनुसार सती का दाँत गिरा था। यह 52 शक्तिपीठों में से एक है तथा यहाँ दशहरे में दूर-दूर से आदिवासी एकत्र होते हैं। बस्तर क्षेत्र का आनंददायक भ्रमण करके इंदौर लौटकर मैंने एक बहुत विस्तृत रिपोर्ट बनाकर बड़े लिफ़ाफ़े में सीलबंद करके ADG को भेज दी।

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लगभग एक महीने बाद फिर आदेश आया कि मैं डाकू प्रभावित ग्वालियर और चंबल क्षेत्र का सघन भ्रमण कर वहाँ की वायरलेस व्यवस्था के सुधार के संबंध में विस्तृत प्रतिवेदन प्रस्तुत करूँ। मेरे बॉस वास्तव में बहुत जटिल व्यक्तित्व के थे। मैंने अनेक ऐसे अधिकारियों के अधीन काम किया है जो अत्यधिक कठिन कार्य लेते थे परन्तु उनका कठिन कार्य लेने का उद्देश्य सकारात्मक होता था। उनके साथ कठिन काम करना भी आनंद और संतोष प्रदान करता था। परन्तु पूरे सेवाकाल में ऐसे जटिल व्यक्तित्व के बॉस का सामना नहीं करना पड़ा था। मेरे वर्तमान बॉस को काम में कोई विशेष रुचि नहीं थी। मुख्यालय का सारा कार्य वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक टेलीकॉम श्री पुरुषोत्तम शर्मा करते थे। ADG केवल मेरा मुख्यालय इंदौर हो जाने से व्यथित थे। अनावश्यक बस्तर तथा अब ग्वालियर-चम्बल भेजने का आदेश वायरलेस व्यवस्था सुधारने का नहीं अपितु उनके प्रतिशोध का भाग था।

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सर्वप्रथम में ग्वालियर पहुँचा जहाँ मैं पुलिस अधीक्षक रह चुका था। वहाँ अधिकारियों से चर्चा के उपरांत अगले दिन मैं दतिया के लिए रवाना हुआ और वहाँ पीताम्बरा पीठ का दर्शन करने के पश्चात भांडेर जाकर रुक गया। अगले दिन पंडोखर और लहार थाने देखता हुआ ज़िला मुख्यालय भिंड पहुँचा। अगले दिन अटेर में राजा बदन सिंह भदौरिया का बनवाया क़िला देखा। यह क़िला अब ख़ज़ाने की खोज में हुई खुदाई से क्षत विक्षत हो गया है। आगे बढ़कर पहले पोरसा और फिर मार्ग से हटकर चम्बल की गहरी घाटी देखने नगरा गया जहाँ ‘मुझे जीने दो’ पिक्चर की शूटिंग की गई थी।फिर अम्बाह होते हुए ज़िला मुख्यालय मुरैना पहुँच गया। मुरैना इस क्षेत्र में ग्वालियर के बाद सबसे बड़ा शहर है।

वहाँ से अगले दिन जौरा, कैलारस, सबलगढ़ और विजयपुर के थानों को देखता हुआ श्योपुर पहुँचा।सीप और कलवल नदी के संगम पर बना किला यहाँ के वैभव को बताता है। यह दूरस्थ जिला मुख्यालय अपने लकड़ी के काम के लिए जाना जाता है। अगले दिन पालनपुर-कूनो सेंचुरी में वन्य प्राणियों को देखता हुआ शिवपुरी जिला मुख्यालय पहुँचा। अगले दिन माधव नेशनल पार्क देख कर एबी रोड पर मोहना और घाटीगाँव होता हुआ वापस ग्वालियर पहुँच गया। इस प्रकार ग्वालियर की पूरी परिक्रमा समाप्त हुई। इन्दौर लौटकर सभी SP तथा अधिकारियों से की गई चर्चा तथा अधोसंरचना के अवलोकन के आधार पर विस्तृत रिपोर्ट सीलबंद लिफ़ाफ़े में ADG साहब को भेज दी।


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अप्रैल में मैं छुट्टी लेकर अपनी प्रथम और निजी इंग्लैंड और यूरोप की 21 दिवसीय विदेश यात्रा पर चला गया। शैक्षणिक सत्र समाप्त होने पर जुलाई 1998 में मेरा स्थानांतरण IG CID के पद पर हो गया और मैं सपरिवार भोपाल आ गया। एक लाभ यह हुआ कि ग्वालियर-चंबल क्षेत्र के भ्रमण से मुझे भविष्य में IG ग्वालियर रेंज और उसके बाद ग्वालियर-चम्बल में दस्यु विरोधी अभियान के इंचार्ज के रूप में बहुत सहायता मिली।

कालान्तर में चार वर्ष बाद संयोगवश मेरी पदस्थापना ADG टेलीकॉम के पद पर हो गई। इस पदस्थापना के कुछ ही दिनों बाद जब मैंने ADG की व्यक्तिगत अलमारी को खोला तो उसमें सबसे नीचे के खाने में मेरे बस्तर तथा ग्वालियर-चंबल क्षेत्र की वायरलेस व्यवस्था के सुधार के प्रस्तावों के सीलबंद लिफ़ाफ़े पड़े हुए मिले। उन्हें खोला तक नहीं गया था।