

लोक पर्व: निमाड़ का महापर्व गणगौर
फागुणऽ फरक्यो नऽ चईतऽ लगी गयो
रनुबाई जोवऽ छे वाटऽ
असी रूढ़ी ग्यारसऽ रे वीरोऽ कदऽ आवेसऽ
फागुन मास पंख फड़फड़ा कर उड़ गया। चैत मास लग गया है। रनुबाई प्रतीक्षा करती है कि ग्यारस का शुभ दिन कब आयगा, जब मेरा भाई मुझे पीहर लेने के लिए आयगा।
चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की दसमीं से लेकर चैत्र शुक्ल पक्ष की तृतीया तक चलने वाला यह नौ दिवसीय लोकपर्व निमाड़ में ‘गणगौर’ के नाम से जाना जाता है। यह एक लोक अनुष्ठानिक पर्व है। समूचा निमाड़ नौ दिनों तक हर्षाेल्लास में डूबा रहता है। यह मान्यता है कि रनुबाई अर्थात् गौरी अपने पीहर आई है। बेटी का पीहर आना, राग-अनुराग, आनन्द-आसक्ति का भाव मातृपक्ष की ममतामय अनुभूति, सब कुछ गीतों में गूँथा मिलता है।
यह एक सामूहिक लोक-पर्व है। इसमें गाँव की सभी महिलाओं की भागीदारी होती है, पुरुष भी शामिल होते हैं। रनुबाई को पीहर लाने की भी लोक पद्धति है। चैत्र कृष्ण दसमीं की सुबह महिलाएँ शुचिता पूर्वक होलिका दहन के स्थान पर जाती हैं। कोई एक प्रमुख महिला अर्थात् गाँव की पुजारिन या पटेलन अन्यथा और कोई भी अन्य सुहागन óी, होलिका की राख से पाँच कंकर चुनकर उन्हें गौर (गौरी) के रूप में पाट पर प्रतिष्ठित करती है। निमाड़ी में गौर का अर्थ सहेली या सखी होता है और जो गण अथवा लोग की गौर हो, वही ‘गणगौर’ है।
प्रतिष्ठा द्वारा होली पर लोक गीतों के रंगारंग आयोजन के साथ फागोत्सव मनाया

गौर स्थापना के पश्चात् होलिका की राख में पवित्र जल छिड़ककर उसे हाथों से गूँधा जाता है। मुट्ठी से उस राख की पाँच मुठिया बनाई जाती हैं। राख की मुठियों को गौर के आसपास रखा जाता है। इसे गणगौर पर्व पर ‘मूठ धरना’ कहते हैं। यह पर्व का प्रमुख कृत्य है। पूजन के साथ दीपक प्रज्वलित किया जाता है। यह नौ दिनों तक अखण्ड जलेगा। इसे ‘माँय की अखण्ड जोत’ कहते हैं।
सामान्यतः होलिका दहन का स्थान गाँव के बाहर ही हुआ करता है। अब इस स्थान से पाट पर स्थापित ‘गौर’ और जलते दीपक को लेकर महिलाएँ एक निश्चित स्थान पर गाती बजाती ले जाती हैं। यह स्थान मंदिर होता है या किसी का घर भी हो सकता है। इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता है कि रनुबाई का दीपक एवं ‘गौर’ का पाट ले जाने वाली सौभाग्यवती महिला रेशमी एवं बिना सिले वó पहनी हुए हो। इस पर्व में शुचिता का विशेष ध्यान रखा जाता है। इसीलिए गाँव के सभी लोगों की माता (गौर) एक ही स्थान पर स्थापित रहती हैं। जिन व्यक्तियों को माता (गौर) स्थापित करना होता है, वे देवी स्थापना होने वाले स्थान अर्थात् देवी घर पर बाँस की पाँच कुरकई और गेहूँ के दाने दे आते हैं। सम्पूर्ण गाँव अब रनादेवी की आराधना में लग जाता है, गाँव जाग जाता है….
जागोऽ जागोऽ नगरी का लोगऽ
रनाऽ देवी आयाऽ पावणाऽ जी …
– जागो हे नगरी के लोग, जाग जाओ। रना देवी मेहमान- पाहुना बनकर अपने घर आई हैं…
‘गौर’ के पाट की जिस स्थान पर स्थापना की जाती है, उस स्थान को स्थापना पूर्व ही लीप-पोतकर और गंगाजल छिड़क कर पवित्र किया जाता है। यहाँ कुरकई (बाँस की छोटी टोकनी) में मिट्टी के साथ गेहूँ बोकर, जवारे के रूप में देवी की प्राण प्रतिष्ठा की जाती है। माता की कुरकई की संख्या कम से कम ग्यारह तो होती है, और अधिक से अधिक हजारों भी हो सकती है।

गणगौर पर्व बड़े विधि-विधान से सम्पन्न होता है। गणगौर पर्व पर हर विधान के लोकगीत हैं। शाóीय अनुष्ठान में संस्कृत मंत्रों का प्रयोग होता है और इस लोकपर्व मेंलोकगीत ही मंत्रों का कार्य करते हैं। गेहूँ बोने के बाद, यह स्थान ‘माता की बाड़ी’ और ‘माता की ठाणऽ’ के नाम से जाना जाता है। नौ दिनों तक यह स्थान श्रद्धा एवं आस्था का केन्द्र बना रहता है। मूलतः यह लोक-पर्व कृषक समाज का ही पर्व है। घर में आए अन्न की पूजन अर्चन स्वरूप एवं श्रम-परिश्रम के द्वारा पकी फसल घर में भरकर उस अन्न के प्रति सामूहिक रूप से उपकृत भाव का पर्व गणगौर-पर्व है। कुरकई में गेहूँ बोये जाने के पश्चात्, नौ दिनों तक उनका सुबह और शाम सद्यजात शिशु की भाँति पूरी सावधानी से सिंचन किया जाता है। अंकुरित गेहूँ को ‘माता के जाग’, ‘ज्वारे’, या ‘जवारा कहते हैं। यही देवी का मूर्त रूप है। उनके स्नान के समय जो गीत गाये जाते हैं, वे सब खेती-बाड़ी फसल आदि से ही संबंधित हैं।
Butea Monosperma Lutea: पीले पलाश की आमद का फागोत्सव
म्हारा हरिया ज्वारा रे
गहूँडा लह्यऽ हो लह्याऽ।
– मेरे हरे-हरे जॅवारे हैं। गेहूँ अब लह-लहा उठे हैं
इस पर्व में प्रमुख रूप से गौर अर्थात् गौरी, धणियर अर्थात् ईश्वर शिवजी के नाम लेकर गीत गाए जाते हैं। गौर का एक नाम रनादेवी भी है। गीतों में रनुबाई नाम से गीत गाए जाते हैं। रनुबाई धणियर राजा, गौरबाई, इसवर राजा, सईतबाई ब्रह्माराजा, लक्ष्मीबाई विष्णु राजा, रोपणबाई चन्द्रमा राजा के नाम लेकर गीतों की कड़ियाँ आगे बढ़ती हैं।
नौ दिनों तक कुआँरी कन्याएँ आम्र वन जाकर कोमल आम्र पŸाों से अपने कलश सजाती हैं। जल भरे कलश में अर्कपुष्प, कनेरपुष्प, दूर्वा आम्रपŸाी के साथ डेडऽ (टुंडी) की कैरी रखकर कलश को मध्य में रखकर सामूहिक रूप से इन कलशों की परिक्रमा करते करते नृत्य गीत गाती हैं। इसे ‘पाती खेलना’ कहते हैं। इन गीतों में कन्याओं की यह अरज होती है कि गौर देवी रनुबाई हमारे साथ बाग-बगीचों में रमने आए। साथ ही देवी के रूप स्वरूप और सौंदर्य के गीत भी गाती हैं।
थारी आँगळई मूँगऽ की सेंगळई रनुबाईऽ
थारोऽ काई काई रूपऽ वखाणूऽ रनुबाईऽ
सौरठऽ देशऽ सी आई हो।
अर्थ – हे देवी तुम्हारे हाथ की अँगुलियाँ हरे मूँग की फली जैसी लम्बी, नाज़ुक एवं पोरदार हैं। तेरे किस-किस अंग और रूप की सुन्दरता का बखान करूँ। हे देवी! तुम अति स्वरूपा हो। सोरठ देश (सौराष्ट्र) से आई हो।
कन्याओं द्वारा लाए गए कलश से सौभाग्यवती महिलाएं देवी को अर्घ देती हैं। वे देवी से आशीष माँगती हैं, वे एक सुखी और समृद्ध गृहस्थ जीवन की कामना करती हैं। गीत है –
दूधऽ पूतऽ आव्हातऽ माँगऽ
टोंगळया उडन्तों गोबरऽ माँगऽ
पोयचों उड़न्तों गोरसऽ माँगऽ।
गौर पूजन के समय अर्घ देते हुए इस गीत में नारी अपना अखण्ड सौभाग्य माँगती है। गोदी में संतान माँगती है। उसके घुटने गोबर में धँसे रहें और उसके हाथ घी-दूध में डूबे रहें। यह उसकी कामना है। जिसके घर जितना अधिक गोधन होगा, उसके घर उतना ही अधिक अन्न-धन होगा। इस माँग में कृषक नारी की दूर दर्शिता भी झलकती है।
पाँचवें दिन से देवी के गीतों में वाँजुली गीत गाए जाते हैं। इनमें वंध्या óी की पीड़ा और करुणा बड़े ही करुण भाव से प्रकट हुई है।
एकऽ बाळऽ का कारणऽ
म्हारो जलम् अकारथऽ जायऽ हो रना देवी,
एकऽ बाळुड़ोऽ दऽ-
गीत का अर्थ है: हे रना देवी! एक संतान के बिना मेरा जन्म अकारथ सिद्ध हो रहा है, हे माता! एक बालक दे, मेरा बाँझपन दूर कर।
आठवें दिन फिर बहुत सी परम्पराओं और पूजा का विधान होता। अब तक ‘माता की बाड़ी के जवारे काफी बड़े हो चुके होते हैं। इस दिन देवी स्वरूप जवारों को नाड़ों से बाँधा जाता है, इसे ‘माथा गूँथणा’ कहते हैं। जवारों की पूजा कर उनमें से पाँच टोकनियों को पाट पर रखा जाता है। इस रस्म को देवी का ‘पाट बठणू’ कहते हैं। अब तक देवी को आम लोगों से बचाकर रखा जाता है। सात दिनों तक बड़ी ही शुचिता पवित्रता से देवी का स्नान पूजन अर्चन किया जाता है। इन दिनों देवी (जवारे) अत्यधिक कोमलांगी और सुकुमार होती हैं। देवी स्वरूप जवारों को बन्द कमरे में, पर्दों में रखा जाता है, छूत-अछूत का बहुत अधिक ध्यान रखा जाता है। संक्रमण का खतरा बना रहता है। किन्तु आठवें दिन बाड़ी आम लोगों के पूजन के लिए खोल दी जाती है। इसे ‘भरी बाड़ी’ का पूजन कहते हैं। भरी बाड़ी के पूजन का बहुत महŸव होता है। परिवार सहित पूरा गाँव पूजन करता है। जात पाँत का कोई परहेज़ नहीं रहता। अब इसे ‘जग माँय’ कहते हैं।
पूरे समय माता की सेवा करना बड़ा कठिन कार्य होता है। इसकी सेवा में विशेष कर्मनिष्ठ श्रद्धावान महिलाएँ होती हैं। नहा-धोकर वे देवी घर में (माता की बाड़ी) में प्रवेश करती हैं। जवारे बोने से लेकर बड़े होने तक वे बड़ी कठिन तपस्या करती हैं। सबके लिए यह कार्य आसान नहीं है। अतः गाँव वाले पहले ही दिन पाँच-पाँच कुरकई और गेहूँ के दाने इस घर में दे जाते हैं। कुरकई देने वालों की यह उनकी अपनी माता होती है।
अब आठवें दिन ये लोग अपनी-अपनी माताओं के लिए अपने-अपने रथ लेकर आते हैं और उनमें बैठाकर अपनी-अपनी माताओं को ले जाते हैं।
गाँव के जिन लोगों की माता बाड़ी में होती हैं, वे लोग रथ लेकर बाड़ी में आते हैं। रथ लकड़ी के मूर्त रूप होते हैं। पाट पर बाँस की चीपों से मानवाकृति बनाते हैं। ऊपर मिट्टी से बना मुख लगाते हैं। कपड़े से बने हाथ बनाते हैं। इनमें अंदर नीचे जवारे रखने का स्थान रहता है। हर रथ में जवारे वाली पाँच कुरकई रखते हैं। एक रथ नारी शृँगार कर बनाते हैं। दूसरा पुरुष रूप शृँगार कर बनाते हैं। óी रूप रनुबाई और पुरुष रूप धणियर राजा होते हैं। रना देवी अब बाड़ी से उठकर रथ में प्रतिष्ठित हो गई। जिनकी देवी (माता) यहाँ होती है; वे जोड़े सहित रथ सिर पर रखकर अपने-अपने घर गीत गाते-गाते ले जाते हैं।
इस अवसर का एक गीत है-
पयलो बधावो आयो म्हारा मनऽ भायोऽ
रनुबाई आयाऽ उनकाऽ धणियर राजाऽआया
चटकऽ चूनड़ऽ बिनऽ शोभा नीऽ होयऽ
पेरऽ वो बड़ा की बेटी चूँदड़ रुळन्ती!
पहली बधाई मेरे घर आई है। बधाई स्वरूप रनुबाई और धणियर राजा आये हैं। हे रनुबाई! तुम बड़े बाप की बेटी हो, सुन्दर घेरदार कीमती चूँदड़ ओढ़ो। इस कीमती साड़ी से तुम्हारी शोभा सुन्दरता का मैं कैसे बखान करूँ।
जिनके घर रनुबाई आ गई है, उन घरों में आनन्द सरोवर लहरा उठता है। रनुबाई-धणियार राजा को बैठाकर उनकी परिक्रमा कर गीत गाते हुए और नृत्य करते हुए आनन्द मनाते हैं। इन गीतों को ‘झालरिया’ गीत कहते हैं। ‘झालरिया’ गीत गणगौर के विशेष गीत हैं। कुछ गीत हैं जिनमें कन्या अपने पिता से अनुरोध करती है कि पिता हमें अभी ससुराल मत भेजो, अभी तो हमारे बाग-बगीचों में खेलने के दिन हैं।
दादाजी हमारा बापऽ का कुँआ वावड़ीऽ
हमऽ भी पाती खेलाँऽ हो झालरियो दऽ
दादाजी हमारा बापऽ का अम्बाऽ-आमली
हमऽ भी पाती खेलाँऽ हो झालरियो दऽ
दादाजी हमारे बाप के कुआँ बावड़ी हैं, हमारे बाप के आम-इमली के बगीचे हैं। हम अपनी सखियों के साथ बाग-बगीचों में पाती खेलेंगे। हमें अभी ससुराल मत भेजो। गीत आगे बढ़ता है, इस पर पिताजी कहते हैं –
बेटी – थारोऽ ससरो भी फिरीऽ गयो
जेठऽ भी फिरी गयो
हाड़ाऽ रावऽ को कुंवर लाड़िलोऽ
यो नई पाछऽ फिरऽ
हो झालरियो दऽ
गीत का अर्थ है – बेटी तेरा ससुर वापिस चला गया। जेठ देवर सबको हमने वापिस फेर दिया; किन्तु ये धणियर हाड़ा वंश का कुँवर है, यह तुम्हें साथ ले कर ही जायगा। खाली हाथ नहीं जायगा।
किन्हीं गीतों में गृस्वामिनी कहती है, ‘‘हे पति हमारी बाड़ी में चन्दन का वृक्ष है, इसे कटवा कर चंदन का बाजुट बनवा दीजिए। इस बाजुट पर हम रनुबाई व धणियर राजा को साथ-साथ बैठाएंगे। उनका मान -सम्मान करेंगे। आव-भगत, आदर करेंगे। वे हमारे घर मेहमान बनकर आए हैं। तालियों, चुटकियों और ठुमकों के साथ झालरिया गीत घण्टों चलते हैं।
रात्रि में महिलाएँ उन सब घरों में जाती हैं, जिनके घर रनुबाई धणियर राजा हैं। वहाँ जाकर आरती करती हैं एवं देवी को मेहँदी लगाती हैं। अमावस की काली अँधेरी रात में, आरती के दीपक ऐसे टिमटिमाते हैं, मानों आसमान के तारे धरती पर उतर कर आ गए हों। पूरा गाँव गणगौर गीतों से सराबोर हो उठता है। गीतों की स्वर लहरियाँ इस गली से उस गली तक तरंगित हो उठती हैं। चमकते तारों को देखकर ही गीतों के बोल फूट पड़ते हैं –
शुक्र को तारो रेऽ ईसवरऽ उँगी रह्यो,
तेकी मखऽ टीकी घड़ाओ,
चाँदऽ अरू सूरजऽ रेऽ ईसवरऽ
चमकी रह्या, तेकीऽ मखऽ टूकी लगावऽ।
गीत का अर्थ है – ‘हे ईश्वर! आसमान में यह अति तेजस्वी शुक्र का तारा है, उसे रनुबाई अपने पति धनियर राजा से कहती हैं – मुझे टीकी गढ़वा दो। चाँद और सूरज की मेरी अँगिया में टूकी लगवा दो।
आठवें दिन पूरी रात जागरण होता है।
यह रात महिलाओं की आनन्द – मंगल की रात होती है। इस रात में पति के रूठने से उन्हें मनाने तक का गीत गणगौर गीत का एक प्रसिद्ध गीत है।
अरे सायबाऽ खेलणऽ गई गणगौरऽ
अबोलो क्यों लियो जीऽ म्हारा राजऽ
अबोलो देवरऽ जेठऽ
साहेबऽ जी सी नी रह्नाँजी म्हारा राजऽ
गीत का अर्थ है: हे स्वामी हम तो सखियों के साथ गणगौर खेलने गये थे, आप हम से अबोला क्यों हैं। अर्थात् हमसे बोलना बन्द क्यों कर दिया। देवर जेठ से तो अबोले रह सकते हैं, पति से अबोला नही रहेंगे।
गाते बजाते और नाचते नवमा दिन आ गया। यह देवी की विदाई का दिन है। सभी महिलाएं मिलकर आम्रवन में पाती खेलने जाती हैं। देवी के साथ रमण के गीत गाती हैं। सभी अपने घरों में गवर्नी जिमाते हैं अर्थात् देवी के नाम से सौभाग्यवती óियों को भोजन करवाते हैं।
देवी की बिदाई भी बड़ी भावभीनी होती है। पहले तो देवी को रोकते हैं। धणियर जी से मान-मनौती करते हैं कि आप एक दिन और रुक जाइये। रनुबाई का शृँगार किया जाता है। उन्हें पीली साड़ी पहनाई जाती है। उनके पल्लू (आँचल) में नरियल, धानी (ज्वार की फूली) भरी जाती है। देवी के रथों में रखी कुरकई से भेंट की जाती है। कुरकई को पकड़कर जवारों को गले लगाकर भेंट की जाती है। बार-बार प्रणाम कर देवी से क्षमा याचना की जाती है – ‘‘नौ दिन हमारी पूजा अर्चना में जो कोई, कभी त्रुटि हुई हो तो क्षमा करें।’’ घर से बिदाई के पश्चात् गाँव के सभी देवी स्वरूप रथ एक स्थान पर एकत्रित होते हैं। यहाँ गाँव का पटेल, मुखिया आदि सभी देवी की पूजा आरती करते हैं। आरती के उपरान्त सभी लोग रथ से कुरकई निकालकर गले मिलते हैं। देवी पर मेवा (धानी) लुटाते हैं। यहाँ से सभी रथ जलाशय पर जाते हैं। जलाशय पर वे परिवार जिनके घर देवी की बाड़ी थी, सब रथ (देवी) की जोड़े से पूजा करते हैं। बार-बार क्षमा याचना कर रथ से जवारे की कुरकई निकालते हैं। इस समय का गीत बड़ा ही विरक्त निगुर्ण भाव का है… इसमें आत्मा परमात्मा का भाव विद्यमान है –
दोयऽ मह्यला राऽ बीचऽ
पोपटड़ो यो पंछी मोतीऽ चुगाऽ
मतिऽ कोई दीजो उड़ायऽ
रनुबाईऽ अति स्वरूपऽ
हिवड़ो लगई रेऽ धणियर लई जासेऽ।
अर्थ है: दो महलों के बीच पोपट, पंछी मोती चुग रहे हैं। उन्हें कोई उड़ा मत देना। हमारी रनुबाई अति स्वरूप, अति सुन्दर है, धणियर राजा उन्हें अपने हृदय में रखकर ले जायँगे।’’
कभी-कभी जलाशय के किनारे से विसर्जन से कुछ क्षण पूर्व रथ बौड़ाए जाते हैं। रथ बौड़ाने की एक प्रथा और है। देवी के रथ जलाशय पर पहुँच जाते हैं। देवी को एक दिन और रोकने के लिए धणियार राजा से नाना प्रकार से मिन्नते करते हैं – ‘एक दिन अरु रुकि जाओ…।’’ यदि धणियर-राजा मान जाते हैं तो फिर जलाशय से भारी खुशी के साथ गाते-बजाते वापस ले आते हैं। गाँव के किसी स्थान पर, ‘माता की बाड़ी’ से दूर, सभी रथों को ठहराते हैं। गाते-बजाते रात्रि जागरण होता है। दूसरे दिन संध्याकाल फिर विदाई होती है। इस प्रथा को रथ बौड़ाना कहते हैं। यह मन्नत का एक अनुष्ठान है। रथ बौड़ाने का संकल्प लिया जाता है। जिस व्यक्ति की मन्नत पूरी हो जाती है, वही व्यक्ति रथ बौड़ाने का संकल्प लेता है, वह धणियर राजा को रनुबाई सहित रुकने का आग्रह करता है। इसे ही रथ बौड़ाना कहते हैं। रथ वापस आने से लेकर पुनः दूसरे दिन होने तक का पूरा खर्च रथ बौड़ाने वाला व्यक्ति ही उठाता है। इसमें पूरे गाँव के भोज आदि का खर्च भी शामिल रहता है।
इस प्रकार सम्पूर्ण रथ से देवी स्वरूप जवारों की कुरकई जलाशय में विसर्जित कर देते हैं। खाली रथ लेकर घर लौटते हैं।
नौ दिन तक जिसने एक-एक क्षण देवी के स्वरूप जवारों की सद्यजात शिशु जैसे सेवा की, उस माँ को आज बहुत सूना-सूना लगता है। रनुबाई की बिदाई में भी अपनी बेटी की बिदा जैसा दर्द भरा होता है। भारी मन से सब खाली रथ लेकर घरों को लौटते हैं।
पहाड़ चयड़îा पर्वतऽ उतरया
खाली रथऽ घरऽ जायऽ जी
पहाड़ चढ़े। पर्वत उतरे। खाली रथ लेकर घर जा रहे हैं।
यहाँ गीत का बड़ा गूढ़ार्थ है। जब आत्मा स्वरूप जवारों का विसर्जन हो गया। रथ याने शरीर खाली है। पहाड़ चढ़ने इतना भार व भारी मन हो गया है।
इस प्रकार नौ दिन तक गणगौर लोक पर्व की निमाड़ में खूब धूमधाम रहती है। फिर सब कृषक अपने-अपने कामों में व्यस्त हो जाते हैं।
यहाँ इस बात का जिक्र करना आवश्यक है कि निमाड़ से लगा भुवाणा क्षेत्र (हरदा क्षेत्र) है। यहाँ गणगौर पर्व लोकपर्व के रूप में नहीं मनाया जाता, अपितु किसी की मनौती होती है, तो वे इस अनुष्ठान को वैशाख मास में सम्पन्न करते हैं। निमाड़ क्षेत्र सहित राजस्थान आदि क्षेत्रों में भी गणगौर पर्व चैत्र मास में मनाया जाता है। चैत्र शुक्ल तृतीया को गणगौर तृतीया कहते हैं।
डॉ. सुमन चौरे,भोपाल
लोकसंस्कृतिविद,साहित्यकार
मप्र साहित्य अकादमी का प्रतिष्ठित ‘ईसुरी पुरस्कार’ डॉ सुमन चौरे को देने की घोषणा