Follow Protocol : जब लोगों के चढ़ने से टूटा था, अर्जुन सिंह का मंच!
खंडवा से वरिष्ठ पत्रकार जय नागड़ा की प्रासंगिक टिप्पणी
Khandwa : बात पुरानी लेकिन प्रासंगिक है। अविभाजित मध्यप्रदेश के दुर्ग में जनवरी 1993 में तब वरिष्ठ कांग्रेस नेता अर्जुन सिंह की सभा का आयोजन था। मंच पर बहुत सारे लोग चढ़ गए, तो अचानक मंच भरभराकर टूट गया। अर्जुन सिंह सहित तमाम नेता लड़खड़ाकर जमीन पर आ गिरे। खासा हल्ला मचा, वहां के एसपी पर दोषारोपण हुआ कि मंच की सुरक्षा का उन्हे ख्याल रखना चाहिए था, उनके विरुद्ध कार्यवाही हो। एसपी को निलंबित किया जाए जैसे बयान भी आए।
अब जवाब देने की बारी एसपी की थी, उन्होंने सीधे कार्यक्रम के संयोजक स्थानीय कांग्रेस नेता बदरुद्दीन कुरैशी (जो बाद में छतीसगढ़ में मंत्री भी रहे) के विरुद्ध आपराधिक लापरवाही का प्रकरण दर्ज़ कर लिया और उनकी गिरफ्तारी कर चालान भी न्यायालय में पेश कर दिया। अब पूरे प्रदेश की राजनीति में हड़कंप मच गया कि कांग्रेस के प्रभावशाली नेता को एसपी ने गिरफ़्तार कैसे कर लिया! एसपी के विरुद्ध कड़ी कार्यवाही का दबाव बनने लगा। तब प्रदेश में राष्ट्रपति शासन था और तत्कालीन राज्यपाल कुंवर मेहमूद अली भी एसपी को निलंबित करने का मन बना चुके थे। राष्ट्र्रपति शासन में सत्ता के सारे अधिकार राज्यपाल के पास ही केंद्रित थे इसलिए उनके निर्णय को बदलना नामुमकिन सा था।
तत्कालीन ADG इंटेलिजेंस एनके शुक्ला ने तत्कालीन प्रमुख सचिव गृह एनबी लोहानी को बताया कि दुर्ग एसपी प्रेमलाल पांडे बहुत ईमानदार, कर्मठ और स्वच्छ छवि रखते हैं। उन पर इस तरह की कोई कार्यवाही होती है तो इसका बहुत ख़राब संदेश पूरे प्रदेश में प्रशासनिक हलकों में जाएगा। इससे पुलिस बल का मनोबल भी गिरेगा। इस बात से जब लोहानी साहब भी सहमत हुए, तो दोनों ने मिलकर राज्यपाल को अवगत कराया। नतीजतन राज्यपाल को भी अपना निर्णय बदलना पड़ा।
दरअसल तत्कालीन दुर्ग एसपी प्रेमलाल पांडेय का स्पष्ट मत था कि वह आयोजन कांग्रेस का था, इसके लिए कांग्रेस के आयोजक ही जिम्मेदार थे। वहां मंच की सुरक्षा को लेकर वे और कलेक्टर आयोजकों को पहले ही सख्त निर्देश दे चुके थे कि मंच पर दस-पंद्रह से ज्यादा लोग नहीं होना चाहिए। लेकिन, जब अर्जुनसिंह आए तो उन्हें माला पहनाने की होड़ में अचानक भीड़ मंच पर आ गई और मंच धसक गया। ज़ाहिर है सख्त अधिकारी होने के नाते एसपी पांडे ने वही किया जो विधिसम्मत था। महत्वपूर्ण बात यह है कि तब उनके वरिष्ठ अधिकारियो ने भी उनकी सही बात का पुरजोर समर्थन किया और प्रशासनिक मजबूती की मिसाल कायम की।
और अब …
सारे प्रोटोकॉल ही ख़त्म
खंडवा में कल मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का कार्यक्रम था। मंच पर इतने लोग चढ़ गए कि अफ़रा-तफ़री मच गई। हर कोई छोटा-बड़ा नेता मुख्यमंत्री के करीब दिखना चाहता था, जिससे उसका बौना कद भी बढ़ जाए। प्रशासनिक अधिकारी भी उसे पहचानने लगे, जनता में भी वह अपना रुतबा गांठ सके।
आयोजन सरकारी था, लेकिन इस पर कब भाजपा का कब्ज़ा हो गया। यह अधिकारियों को ही नहीं पता चला। प्रोटोकॉल के मुताबिक शासन और सत्ताधारी दल के बीच एक महीन लेकिन स्पष्ट दूरी होती है। लम्बे अरसे तक मंच पर शासन के प्रतिनिधि या निर्वाचित जनप्रतिनिधि (सांसद ,विधायक , महापौर, जिला पंचायत अध्यक्ष आदि) ही होते थे पार्टी के अध्यक्ष और अन्य पदाधिकारी दर्शक दीर्घा में स्थान पाते थे। लेकिन, समय के साथ सारे प्रोटोकॉल ध्वस्त होते चले गए। पार्टी के अध्यक्ष तक तो ठीक उसके छर्रे तक अब मंच पर होते है। ऐसे में व्यवस्थाएं पूरी तरह धवस्त हो जाती है, कोई अनहोनी हो जाए तो ठीकरा प्रशासन पर ही फूटना तय है।
कल भी यही हुआ ‘लाड़ली बहना सम्मेलन’ में मुख्यमंत्री की लाड़ली बहनों से ज़्यादा ‘लाड़लों में मंच पर चढ़ने की होड़ मच गई। हालात जब निचले स्तर के पुलिसकर्मियों से नहीं सम्भले, तो पुलिस अधीक्षक को कमान संभालनी पड़ी। इसी दौरान मंत्री पुत्र दिव्यादित्य शाह भी मंच पर चढ़ने लगे, तो एसपी ने उनसे कार्ड माँगा। नहीं बताने पर अप्रिय घटनाक्रम हुआ। हालाँकि जब एसपी के संज्ञान में यह बात आई, तो उन्होंने ही दिव्यादित्य शाह को मंच पर बैठाया। इसके बाद मंत्री और उनके समर्थको ने जो बवाल मचाया वह सभी के सामने है। हैरानी की बात यह है कि प्रदेश शासन के इस पॉवरफुल मंत्री को मुख्यमंत्री तक अपनी बात पहुंचाने के लिए मीडिया की ज़रुरत क्यों पड़ी? क्या वे मंत्री के रूप में स्वयं को कमज़ोर पा रहे थे? प्रशासन में उनकी सीधी सुनवाई नहीं हो रही है?
ऐसे कई सवाल उठने लगे है कि क्या प्रशासन पर मुख्यमंत्री का ही केंद्रीकृत नियंत्रण हो गया है? कल तक मंत्री और उनके समर्थकों के तेवर विपक्ष में बैठे नेताओं की तरह थे। लेकिन, आज उसमे पार्टी यू-टर्न लेती तब दिखी जब विधायक राम दांगोरे ने यह कहा कि हम विरोध प्रदर्शन करने थोड़े ही आए हैं प्रशासन तक अपनी बात पहुँचाने आए है ,हम सत्ता में है हमें विरोध की क्या ज़रूरत?
सबसे दुखद पहलु यह है कि पूरा प्रशासन इस मामले में बैकफुट पर आ गया है। वो स्वयं अपराधबोध से ग्रस्त दिख रहा है गोया उससे महापाप हो गया हो। क्या शासकीय कार्यक्रम के प्रोटोकॉल के कोई अब मायने नहीं रह गए! सत्ता की कमान अब निर्वाचित प्रतिनिधियों के बजाए सीधे पार्टी जनों के हाथ आ चुकी है।
दूसरी त्रासदी यह भाजपा के लिए भी है कि उसके नेता इतने दम्भी हो गए है कि उन्हें जनता के बीच बैठने में शर्म महसूस हो रही है। सभी वीआईपी का तमगा लगाए अपना रुतबा गांठ रहे है और आम जनता से दूरियां बढ़ा रहे है। अकेले सत्ता में वापसी का दारोमदार शिवराज जी के पास है, जो स्वयं को विनम्र और आम आदमी के रूप में प्रस्तुत करना चाहते है। इतिहास गवाह है कि दम्भ ने ही नेताओं को हमेशा बाहर किया