Friendship Day: दोस्ती पर दिल छूने वाली कविताएँ
हमने प्रस्तुत किया है मित्रता पर कुछ बेहतरीन कविताएं (poem on friendship in hindi) , जो आपको निश्चय ही अच्छी लगेंगी । मित्रता संबंधों के खजाने का वो अकेला बहुमूल्य रत्न है जिसकी उपस्थिति मात्र से ही इस खजाने की खनक और जीवन की सदाबहार चमक हमेशा बरकरार रहती है । मित्रता पर अब तक बहुत कुछ कहा जा चुका है.। इन कविताओं में अनमोल शब्दों का उपयोग करके सच्चे दोस्त और सच्ची दोस्ती के बारे में बताया गया है। दोस्ती पर कविता, अपने प्रिय मित्र के लिए एक दूसरे मित्र के भावों की काव्यात्मक अभिव्यक्ति है। दोस्त सभी के लिए अनमोल होते हैं लेकिन कुछ दोस्त ऐसे होते हैं कि हम उनसे चाहे कितनी भी दूर क्यों न हों उनकी यादें हमेशा हमारे साथ बनी रहती हैं। उन्हीं यादों और सच्चे दोस्त के महत्व को समझाने के लिए लिखी गयी है दोस्ती पर कविता.
मैथिलीशरण गुप्त की सुन्दर रचना
तप्त हृदय को , सरस स्नेह से,
जो सहला दे , मित्र वही है।
रूखे मन को , सराबोर कर,
जो नहला दे , मित्र वही है।
प्रिय वियोग ,संतप्त चित्त को ,
जो बहला दे , मित्र वही है।
अश्रु बूँद की , एक झलक से ,
जो दहला दे , मित्र वही है
मैथिलीशरण गुप्त
2.कुछ दोस्त बहुत याद आते हैं
मैं यादों का किस्सा खोलूँ तो,
कुछ दोस्त बहुत याद आते हैं ।
मैं गुजरे पल को सोचूँ तो,
कुछ दोस्त बहुत याद आते हैं।
अब जाने कौन-सी नगरी में,
आबाद हैं जाकर मुद्दत से
मैं देर रात तक जागूँ तो ,
कुछ दोस्त बहुत याद आते हैं।
कुछ बातें थीं फूलों जैसी,
कुछ लहजे खुशबू जैसे थे,
मैं शहर-ए-चमन में टहलूँ तो,
कुछ दोस्त बहुत याद आते हैं।
सबकी जिंदगी बदल गई,
एक नए सिरे में ढल गई,
सारे यार गुम हो गए हैं
तू से तुम और आप हो गए हैं
मैं गुजरे पल को सोचूँ तो,
कुछ दोस्त बहुत याद आते हैं ।
धीरे धीरे उम्र कट जाती है
जीवन यादों की पुस्तक बन जाती है,
कभी किसी की याद बहुत तड़पाती है
और कभी यादों के सहारे ज़िन्दगी कट जाती है
किनारों पे सागर के खजाने नहीं आते,
फिर जीवन में दोस्त पुराने नहीं आते
जी लो इन पलों को हंस के दोस्त,
फिर लौट के दोस्ती के जमाने नहीं आते
मैं यादों का किस्सा खोलूँ तो,
कुछ दोस्त बहुत याद आते हैं ।
–हरिवंश राय बच्चन
कविता 3: मित्रता और पवित्रता
आडम्बर में
समाप्त न होने पाए
पवित्रता
और समाप्त न होने पाए
मित्रता
शिष्टाचार में
सम्भावना है
इतना-भर
अवधान-पूर्वक
प्राण-पूर्वक सहेजना है
मित्रता और
पवित्रता को !
श्री भवानी प्रसाद मिश्र
4.वन्दी ! तुझसे मिलने आया
हरिवंश राय बच्चन
जेल कोठरी के मैं द्वार
वन्दी ! तुझसे मिलने आया,
नतमस्तक मन में शर्माया,
मित्र ! मित्रता का मुझसे कुछ निभ न सका व्यवहार ।
(२)
कैसे आता तेरे साथ ?
देश भक्ति करने का अवसर,
बड़े भाग्य से मिले मित्रवर !
मेरी किस्मत में वह कैसे लिखते विधि के हाथ !
(३)
मित्र ! तुम्हारे मंगल भाल
अंकित है स्वतन्त्र नित रहना,
मेरे, बंदीगृह दुख सहना,
“मैं स्वतन्त्र ! तू वन्दी ! कैसे ?”-तेरा ठीक सवाल ।
(४)
मित्र ! नहीं क्या यह अविवाद ?
स्वतंत्र ही स्वतन्त्रता खोता,
वन्दी कभी न वन्दी होता,
अपने को वन्दी कर सकते जो स्वतन्त्र आजाद ।
(५)
कम न देश का मुझको प्यार ।
साथ तुम्हारा मैं भी देता,
अंग अंग यदि जकड़ न लेता,
मेरा, प्यारे मित्र ! जगत का काला कारागार ।
दोस्त
तुम देखोगे कि यह कठिन नहीं है—अपने सिद्धांतों की रक्षा करते हुए भी
यह संभव है। तुम पाओगे कि तुम्हारी ही तरह
वह गेहुँआ और छरहरा है, उसे टोपी लगाना और वर्दी पहनना
पसंद नहीं है
और वह हॉस्टलों, पिकनिकों और बचपन के क़िस्से सुनाता है—
तुम्हें इसका भी पता चलेगा कि उसने सर्किल इंस्पैक्टर से कहकर
अपनी ड्यूटी वहाँ लगा ली है जहाँ लड़कियों के कॉलिज हैं
और हरचंद कोशिश करता है कि बुश्शर्ट पहनकर वहाँ जाए
और रोज़ संयोगवश बीच रास्ते में उसी स्पैशल को रुकवाकर बैठे
जिसमें नौजवान गर्म शरीर सुबह पढ़ने पहुँचते हैं। उससे हाथ मिलाने पर
तुम्हें उसकी क़रीब-क़रीब लड़कीनुमा कोमलता पर आश्चर्य होगा।
ज़िला सरहद पर
तैनात किए जाने से पहले एकाध बियर के बाद
जब वह अपनी किशोर आवाज़ में
दो आरजू में कट गए तो इंतज़ार में नुमा कोई चीज़ पढ़ेगा
तो तुम कहोगे—कुछ भी कहो, तुम इस लाइन में ग़लत फँस गए हो।
लेकिन दो तीन-बरस बाद तुम अचानक पहचानोगे
कि सड़क जहाँ पर रस्से लगाकर बंद कर दी गई है
और लोग साइकिलों पर से उतरकर जल्दी-जल्दी जा रहे हैं
और तमाशबीनों की क़िस्तों को बार-बार तितर-बितर किया जा रहा है
पास एक की दूकान से बैंच उठवा कर वह वर्दी में बैठा हुआ है
टेबिल पर टोपी और पैर रखकर।
तुम कहोगे कि उसकी हैल्थ शानदार हो गई है
जबकि ऊपर उठ आए गलों के ऊपर स्याह हलक़े पड़ गए हैं
और पेट और पुट्ठों के अप्रत्याशित उभारों पर कसी हुई पोशाक में
वह यत्नपूर्वक साँस ले रहा है। उसकी बग़लें
कलफ़ और पसीने से चिपचिपा रही हैं
और माचिस की सींक से दाँत कुरेदते हुए वह
उसे बार-बार नाक की तरफ़ ले जा रहा है। सियासत
और बड़े लोगों की रंगीन रातों की कुछ अत्यंत
गोपनीय बातें बताते हुए वह उस समय एकाएक चुप हो जाता है
जब सड़क के उस ओर दूर पर भीड़नुमा
कुछ नज़र आता है
और मेहनत के साथ वह उठते हुए कहता है
अच्छा, अब तुम बढ़ लो, ये मादरचोद आ रहे हैं।
शाम रात में बदल रही होती है जब तुम मुड़कर देखते हो
कि वह तुम्हें बिल्कुल भूल चुका है
पेट से निकली हुई गैस या दाँत से निकले हुए रेशे की तरह
और कुछ कह रहा है
पिछले हफ़्ते धुली हुई वर्दियों में तैनात एक से चेहरे वाले अपने मातहतों से
जिनके हाथों में बाँस के हथियार कभी-कभी काँपते हैं
उस एरियल की तरह
जो दाईं और कुछ दूर उस पेड़ के नीचे अदृश्य होने की कोशिश करती हुई
नीली मोटर पर हिलता है।