बचपन की सलौनी स्मृतियों से, कोई फुहार भिगो जाती है भाई-बहनों के सरस-पावन त्योहार पर
डॉ. सुमन चौरे
सावन की रिमझिम फुहारों के साथ-साथ थिरकती बूँदें ले आती हैं बहुत सारी यादों की बौछारें। कोई बौछार मन को नहला जाती है बचपन की सलौनी स्मृतियों से, तो कोई फुहार भिगो जाती है भाई-बहनों के सरस-पावन त्योहार रक्षा-बन्धन की यादों से।
एक लम्बा अरसा हो गया, बचपन हमसेे बहुत पीछे छूट गया। फिर भी सावन आते ही बूँदों में बचपन लौट आता है। कभी सुनाई देती है, गाँव की गलियों में बैलों के गले की घण्टियाँ, गाड़ियों के चकों को घुर-घुर, नई नवेली बहन बेटियों के पैरों की पायल की छुन-छुन, तो नीम पर बँधे हिण्डोलों से उठते सखियों के सुमधुर कण्ठों की स्वर लहरियाँ..।
रिमझिम वरसऽ छे मेहऽ
सखी री सरावणऽ आयो जीऽ
हिण्डोला थिगी रह्या आकासऽ
वीरों म्हारों लेणऽ आयो जीऽ।….
आसमान को छूते हिण्डोले, उतने ही ऊँचे अरमान बहनों के। बाबुल के घर जाना है। रक्षा बंधन पर भाई लेने आयँगे। सब कुछ भाव हिण्डोलों के साथ स्वरों में लहराने लगते हैं। बार-बार बूँदों में प्रतिबिम्बित होता है मेरे गाँव का हाट। रंग-बिरंगी राखियाँ, डोरे, चूड़ी बिल्लौर से सजे हाट। बहनें बड़े उत्साह से बाजार में घूम-घूम कर सुन्दर राखी खरीदती हैं, तो कहीं से बहुत सारे चकरी भौरों के बीच से भाई के लिए सुन्दर रंगीन लट्टू खरीदती हैं। बहन-भतीजों के लिए हार-साकळा, फुंदना, पाँचा, लम्बे हरे-लाल रंग की फुँदने की चोटियाँ, तो गिल्ली, कंचा आदि आदि, सब कुछ कितना लुभावना सलौना सौदा होता था हाट का। खुशी-खुशी आँचल में भरकर उत्साहित कदमों से घर लौटती थीं सभी बहन-बेटियाँ।
राखी का त्योहार हमारे घर कई रूपों और रंगों में आता था। भोर होते ही श्रावणी के पूजन की तैयारी। बहुत से पंडित-पुजारी और हमारे परिवार के सभी सदस्य कावेरी तट पर यज्ञोपवीत बदलते थे। फिर कच्चे सूत की रंगीन राखी देवताओं को बांधी जाती। पंडित-पुजारी हमारे आजा को राखी बांधते थे। फिर घर के नौकर-चाकर हमारे आजा, दादा, बाबूजी आदि सभी को राखी बांधते थे।
दोपहर बाद घर की बहन-बेटियाँ, सबको राखी बाँधती थीं। हम भी जल्दी से भाइयों को राखी बाँध देते थे। राखी के पहले तक बड़ा संयम रखना पड़ता था। क्योंकि आज के दिन भाई-बहनों के लड़ने पर बड़ी पाबन्दी रहती थी। बड़ा मुश्किल दिन होता यह। भाई बहन लड़ें नहीं, तो प्रेम कैसा। मझला भाई राखी के अवसर का बड़ा फायदा उठाता था। बहुत सारी फरमाइशें करता था। उसकी स्लेट पत्थर के कोयले से घिसकर काली चमकाना, उसकी कलम (चाॅक मिट्टी की) की बारीक नोक करना, ताकि अक्षर सुडौल निकलें। हमारे बस्ते में रखी जो वस्तु हो, उसे वही चाहिए।
विरोध करने पर कहता था, ‘‘देख, अगर तूने कहना नहीं सुना, तो मेरे हाथ में जो तेरी राखी बँधी है ना, उसको दाँत से तोड़कर फेंक दूँगा। तुझे ससुराल भी लेने नहीं आऊँगा।’’ हाँ, एक बात अवश्य थी; अगर इस प्रकार के झगड़े की भनक आजी माँय को लग जाती, तो वे लड़कों को ही डाँटती थीं, हम लड़कियों को नहीं। माँय के सामने कोई भी भाई किसी बहन से ऊँची आवाज़ में नहीं बोल सकता था। हम बहुत सारे भाई-बहन थे। किस भाई की कौन सी बहन, सब तय हो जाता था, जिससे झगड़ते समय अपनी-अपनी बहनें, अपने-अपने भाइयों का साथ दे सकें।
राखी के दिन हमारे घर का माहौल साँझ होते-होते मेले जैसा हो जाता था। आजा मालगुजार थे। अतः गाँव की हर बहन बेटी हमारे घर राखी बाँधने आती थीं। घर के चारों दरवाजों से टोलियाँ ही टोलियाँ दिखाई पड़ती थीं। कोई गाड़ी दरवाजे से, कोई कचेरी दरवाजे से, कोई अगवाड़े से तो, कोई पिछवाड़े के दरवाजे से आते थे। हाथ की आरती में टिमटिमाता दीपक और थाली भर रंग-बिरंगी राखियाँ। बहनों के दस-बीस गज के घाघरों से आँगन बहुरंगी बगिया जैसे लगने लगता था। पैरों के झन-झन झाँझर। राखी बाँधकर भाइयों की आरती उतारते, बहनों के हाथ के कंगना खनकते थे। यह ध्वनि वातावरण को रसमय बना देती थी।
आँगन में कतारबद्ध बैठते थे आजा, दादा, बाबूजी, दाजी, भाई आदि लोग। साथ में बैठतीं, आजी माँय, बड़ी बाई ताकि हर बहन को उचित नेग मिले। आजी माँय दो दिन पहले से ही सेठ दाजी की दुकान से बहुत सारे ब्लाउस-पीस कटवा लेती थीं और ढाई गज की साड़ी बुलवा लेती थीं। सब बहन-बेटियों को कपड़ा, तो किसी को अठन्नी, तो किसी को नगद पैसा भी देती थीं। पैसे की बात से मन रोमांचित हो उठता था। तब हमारे पास नगदी पैसे कहाँ होते थे। बस लड़कियों को राखी पर ही, आना, आधाना, धेला, तो पाई मिल जाती थी। मुझे तो सेठ दाजी के घर से मेरी पसन्द का फ्राॅक का कपड़ा और दुअन्नी मिलती थी। सबको राखी बांधे तब ब-मुश्किल, दस-बारह आने हो पाते थे। उन्हें बड़े सम्हालकर रखना पड़ता था। भाई लोग आये दिन कहते, ‘‘तेरे पास पैसे हैं तो उधार दे दे। दशहरे पर दशहरा जीतने के बाद जो पैसे मिलेंगे उससे तेरी उधारी चुका देंगे और छेदवाला धेला ब्याज में दे देंगे।’’ हम बहनें अपनी आजी माँय के हवाले कर देते थे। क्योंकि तब घरों में पेटी अलमारी में ताले-चाबी लगाना अच्छा नहीं माना जाता था। आजी माँय हम सब बहनों के पैसे अलग-अलग रंग की चिंदियों में बाँध कर रख देती थीं। फिर भी आजी माँय की नज़र चुराकर हम अपनी चिंदी की पोटली देख लेते थे कि कहीं पैसे कम तो नहीं हुए।
रक्षा-बंधन पर्व का आखरी दिन होता जन्माष्टमी। जो लोग किसी कारण से पूनम को राखी नहीं बांध पाते थे, वे इस दिन राखी बाँधते थे। इस दिन भी गाँव की बहुत सी बहनें आती थीं राखी बाँधने। भील आवार की जितनी भी बहनें आती थीं। वे अपने हाथ से कच्चे सूत को रंगकर राखी व फुँदना बनाती थीं और बड़े मनोयोग से राखी बाँधती थीं। उन्हें नहीं मालूम कि राखी या रक्षा बंधन का क्या अर्थ है। उन्हें तो बस इस बात की खुशी होती थी कि मालगुजार दाजी के बेटे उनसे राखी बँधवाते हैं, वे ससुराल में बड़ी ऊँची नाक रखकर यह बात कहती थीं। मुझे सावन की झरती बूँदों सा सुखद लगता था यह त्योहार, जहाँ बिना छुआछूत के राखी का पर्व मनाया जाता था। आज भी मैं अपने आँगन की वह रौनक, वह छवि, आँखों में बसाये हुए हूँ और सावन की फुहार से उस प्रेम बेल को सींच लेती हूँ, सरस सलोना सावन आया।
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– डॉ. सुमन चौरे
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