नईदुनिया का पूर्णविराम

नईदुनिया का पूर्णविराम

साल 1994 का दिसंबर का महीना नईदुनिया का वह अंतिम शिखर था, जिसके बाद उसकी ढलान है। वह इंदौर में खेल प्रशाल के लोकार्पण का रौनक भरा रमजान है, जब इसके संस्थापक अभय छजलानी शोले के सिप्पी की सफलता के सूचकांक पर थे। इंदौर के इतिहास में वे पहले से ही अंकित थे। प्रशाल के निर्माण ने उनका कद केवड़िया के लौहपुरुष की ऊंचाई पर ला दिया था। एक प्रदर्शनप्रिय शहर में लता मंगेशकर अलंकरण के बाद वह उनका सबसे मनोहारी प्रदर्शन था।

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मैं कहता रहा हूँ कि प्रशाल के निर्माण में अभयजी ने जितना समय और जितनी ऊर्जा व्यय की, उतने में वे कम से कम दो राज्यों में दस संस्करण खड़े कर सकते थे। यह वही समय था, जब दैनिक भास्कर एक विशाल मीडिया समूह बनने के लिए आधार बना रहा था। हर दिन अभय छजलानी प्रशाल की परिकल्पना को भूमि पर उतारने के लिए जितना परिश्रम कर रहे थे, सुधीर अग्रवाल उसी इंदौर में दैनिक भास्कर के लिए नए क्षितिज के निर्माण में स्वयं को खपाए हुए थे।

 

2012 में जब ‘पुरानी नईदुनिया’ का अंतिम संस्कार उत्तरप्रदेश के जागरण समूह के नवनिर्मित देवी अहिल्या घाट पर हुआ, दैनिक भास्कर 10 राज्यों में 50 संस्करणों की एक समृद्ध श्रृंखला स्थापित कर चुका था, जहाँ हिंदी पत्रकारिता में सर्वाधिक भारी-भरकम जेब वाले संपादक अपनी चमचमाती लंबी गाड़ियों में दृष्टिगोचर थे। विषयांतर न हो अत: मैं अभयजी पर लौटता हूँ।

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15 अक्टूबर 1994 को दो बटुक हिंदी पत्रकारिता की इस महान विद्यापीठ में सेवा के योग्य पाए गए थे। पहले प्रवीण शर्मा थे और दूसरा मैं था। दोनों परमाणुओं का परीक्षण आदरणीय अभयजी के करकमलों से हुआ था। परीक्षण सफल रहा था और हम दोनों को प्रूफ डेस्क की अनिवार्य दीक्षा से न गुजारते हुए सीधे सिटी डेस्क पर प्रक्षेपित कर दिया था। हमारी भाषा कुछ मात्रा में इतनी शुद्ध पाई गई थी कि चार-छह महीने प्रूफ की पुरोहिती से बचा लिए गए थे।

 

बाबू लाभचंद छजलानी, बसंतीलाल सेठिया और नरेंद्र तिवारी की तिकड़ी ने नईदुनिया की विरासत खड़ी थी, जो अपने-अपनी विधाओं में सर्वश्रेष्ठ थे। तीनों के बीच एक सुदृढ़ समीकरण था। संपादक के रूप में एक ऋषि उन्हें मिल गया था, जिन्हें प्यार से सब बाबा कहा करते थे। राहुल बारपुते उनका नाम था। सौभाग्य है कि बाबा की पदचाप पर हमने नईदुनिया में अपने काँपते हुए चरण रखे थे। डेढ़ साल बाद बाबा पंचतत्व में लीन हुए। पचकुइया के धूल भरे मार्गों पर हमने उनकी अंतिम यात्रा में उमड़ पड़े इंदौर को देखा है। उन्हें राजकीय सम्मान से अंतिम विदाई दी गई थी।

 

शरद जोशी, प्रभाष जोशी और राजेंद्र माथुर के समय के संपादकीय प्रसंग हमारा पत्रकारीय हीमोग्लोबिन बढ़ाया करते थे। ये तीनों अपनी विधाओं में देश के सर्वाधिक सम्मानित लेखक-संपादकों के केवल तीन नाम हैं। तब प्रभाष जोशी अक्सर मोती तबेला के अपने घर आया करते थे। उनकी शिराओं में नईदुनिया का ही रक्त था। शरद जोशी ने हमें अपनी चुटीली रचनाओं में पकड़ा और राजेंद्र माथुर के साथ उनके वैश्विक संचयन में सैर की। वेदप्रताप वैदिक लगभग इन सबका ही एक प्रभावशाली समकालीन व्यक्तित्व है। अभी जब अभयजी सदा के लिए विदा हुए, वैदिकजी स्वर्ग के मार्ग पर उनकी ही प्रतीक्षा कर रहे होंगे। दोनों ने आसपास ही प्रस्थान किया। ये सारे नक्षत्र पत्रकारिता के आकाश में एक साथ चमके थे। अब जरा इंदौर का भाग्य देखिए!

 

अभयजी के अंतिम संस्कार और अभयजी के उठावने के समाचार और विज्ञापन देखकर लगा सारे शिखर एक दिन उसी शून्य में विलीन हो जाते हैं, एक दिन वे जहाँ से आते हैं! यह जीवन शून्य से शिखर और शिखर से शून्य की यात्राओं की एक अंतहीन चुनौती है। संभवत: इसीलिए हमारे चतुर ऋषियों ने इस चक्र से मुक्ति के लिए मोक्ष की कामनाएँ ठाेक दी थी!

 

शायद 1990 नईदुनिया के लिए एक आघात का साल है, जब वह दो हिस्सों में बँट गया। स्वर्गीय नरेंद्र तिवारी की अगली पीढ़ी में दो जोड़ी डॉक्टर-इंजीनियर पिता-पुत्रों ने छजलानी और सेठिया परिवार से अलग मार्ग पकड़ा। उन्हें भोपाल का भाग अपने प्रसार क्षेत्र और भवन-भूखंड सहित प्राप्त हो गया था। विरासत बटती नहीं है। अत: यह विरासत का नहीं, संपत्ति का बटवारा था। उस घटना ने नईदुनिया के कुछ पत्रकारों का भी भाग्य सदा के लिए बदल दिया था। नए शक्तिकेंद्र भोपाल में बने। नईदुनिया से टूटा हुआ समाचार पत्र ‘दैनिक’ जोड़कर नईदुनिया के नाम से ही भोपाल में देखा गया। मूल नईदुनिया ने ‘राज्य की नईदुनिया’ निकाल दी।

 

नईदुनिया को छोड़कर सब फर्राटे से आगे निकल गए!नईदुनिया का पाठक चकरा गया। जहाज दोनों के डूबे। इंदौर की नईदुनिया ने अपने लिए भारत में तीव्र प्रसार के सारे मार्ग स्वयं मजबूती से बंद कर लिए। नियति दैनिक भास्कर की ऐतिहासिक अश्वमेध यात्रा के लिए एक और पिता-पुत्र को नईदुनिया के लिए चोट खाए हुए उसी भोपाल में चुन रही थी। वे थे रमेशचंद्र अग्रवाल और उनके सबसे बड़े सुपुत्र सुधीर अग्रवाल।

 

शून्य हों या शिखर, दोनों की सत्ताएँ क्षणभंगुर हैं! कल के शून्य आज के शिखर हैं। आज के शिखर कल के शून्य हो सकते हैं! कोई भी पतन सिर्फ कुछ समय ले सकता है, किंतु तय मानिए कि वह नियति है!

 

अधिकारपूर्वक लिखने के लिए आलोक मेहता अकेले हैं, जो नईदुनिया के उस वैभव से नईदुनिया के इस पराभव के निकट साक्षी हैं। उनकी अनुभव सीमा अभयजी से विनयजी तक विस्तृत है। दिल्ली के बुर्ज पर बैठकर उन्हांेने नईदुनिया के इन दो बिंदुओं के बीच गाजे-बाजे से निकली दैनिक भास्कर की अश्वमेध यात्रा के विस्मयकारी दर्शन भी किए हैं। क्या कहानी उनके पास होगी?

 

दिसंबर 1994 में केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री अर्जुनसिंह प्रशाल प्रसंग में आए थे। नए-नए बने मुख्यमंत्री दिग्विजयसिंह भी। सत्ता के अधिकतर चमकते शिखर कांग्रेस के थे। महेश जोशी, कृपाशंकर शुक्ला, उजागर सिंह, डॉ. रेखा गाँधी, सुरेश सेठ, पंकज संघवी, अश्विन जोशी, रामेश्वर-सत्यनारायण पटेल, सज्जन वर्मा, मधुकर वर्मा मंचों के आकर्षण थे।

 

प्रशाल ने इंदौर में एक ऊर्जा पैदा कर दी थी। वह अाधुनिक इंदौर के एक परिचय के रूप में सबके बीच उतारा गया। अभयजी अपने जीवन के एक सबसे शानदार दिन के समापन पर गहरे रंग के सूट टाई में उस दिन कार्यालय में आए तो हम सबने उनमें एक साथ होली-दिवाली के उत्सव दर्शन किए थे। वह उनके जीवन में आई अंतिम प्रसन्नता थी। एक अपार, सच्ची और अंतिम प्रसन्नता!

 

दो वर्ष बाद। देर रात सराफे की चाट खाकर सोए शहर को एक प्रात: कुछ विशेष होर्डिंग चौराहों पर दिखाई दिए। उन पर लिखा था-‘एक लाख प्रतियाँ समारंभ।’ दैनिक भास्कर ने इंदौर में एक लाख प्रतियों के प्रसार का दावा कर नईदुनिया में हलचल पैदा कर दी थी। ऐश्वर्या राय के साथ संभवत: शाहरुख खान की एक रैली के अलावा सयाजी में कई दिन चले उत्सव के रूप में सुधीर अग्रवाल ने भी अपने जीवन के एक सर्वाधिक प्रसन्नतादायी दिन का आरंभिक अनुभव किया था। एक दशक से अधिक की तपस्या के बाद नईदुनिया की सीमा में वे चढ़ बैठे थे। उस चमकदार दिन भी वे राजस्थान में जयपुर का सपना बुन रहे थे। हिंदी पत्रकारिता में वे एक नए दौर के निर्णायक बने!

 

डरी-सहमी नईदुनिया पर धूल उड़ने लगी थी। तब भी कुछ लोग थे, जो अभयजी के आसपास दैनिक भास्कर की केवल खिल्ली उड़ाना जानते थे। ऐसी स्तुतियों ने अभयजी को सच्चाई का अनुभव करने ही नहीं दिया। अभयजी अंत को स्वीकार कर चुके थे! सुधीर अग्रवाल की टक्कर का कोई बिजनेस योद्धा छजलानी परिवार की अगली पीढ़ी में नहीं था। सेठिया परिवार में भी नहीं था। दोनों में संयुक्त नहीं था।

 

हिस्सा हासिल कर लेना भी एक बड़ी कामयाबी है। राजधानी में बैठकर डॉक्टर डॉक्टरी से और इंजीनियर इंजीनियरी से वंचित हो गया। दो पिता-पुत्र पत्रकारिता की महान विरासत को कहां से कहां ले गए, इस पर केडी शर्मा चाहें तो स्वच्छ सोलर प्रकाश डाल सकते हैं!

 

नईदुनिया के हॉल में उस कठिन समय में अभयजी की उपस्थिति गरिमामय और प्रभावशाली थी। हमने नईदुनिया के महान अतीत के रोमांचकारी अनुभव जय सिंह और रवींद्र शुक्ला से सुने। नईदुनिया के परिसर में एक अलौकिक सुगंध थी। पुरखों के संचित पुण्यों का प्रताप छपे हुए अखबार की गंध में धूपबत्ती की भांति वायु में विलीन होता रहता था। अपने जादुई जगत में अभयजी हम सबके सिर पर मंडराते अंधकारमय भविष्य से अनभिज्ञ रहते हुए अगले लता मंगेशकर अलंकरण की बैठकों में समय व्यतीत करते और रात आकर केवल यह तय करते कि अखबार में वह कहाँ कितना किस फोटो के साथ छपेगा और उसका कैप्शन क्या होगा।

 

ऐसा उनका अपना एक जादुई जगत था, जो रोटरी क्लब के आयोजनों से लेकर खेल समाराेहों में हर दिन दो या तीन बार चमचमा रहा था। अक्सर तय करना मुश्किल होता कि अभयजी को किसी पेज पर छपने से कैसे छोड़ें। वे मुस्कराकर कहते, यार दिलीप, गावड़े साब से कहना कि ये किक्रेट का फोटो वो ले लें, सिटी में पहले से ही तीन कार्यक्रमों के फोटो हैं। फिक्की वाला बहादुरसिंह को दे दो। साल में दो-चार बार ऐसे किसी दृश्य में जब अभयजी फोटो के निर्णय कर रहे होते, एक भद्र और शिष्ट मूर्ति अभयजी के केबिन में प्रतीक्षारत् होतीं। हम सब उन्हें नमस्ते कहा करते थे। वे पुष्पा मित्तल थीं!

 

आज सोचता हूँ तो लगता है कि किसी ने सत्य ही कहा है, मनुष्य अपनी नियति स्वयं लिखता है! अभयजी अत्यंत प्रतिभाशाली और विलक्षण गुण संपन्न व्यक्ति थे, इस पर उनके आलोचक भी मुहर लगाएँगे। वे असाधारण थे। वे अथाह शक्ति के धनी थे। लेखनी ऐसी कि किसी अखबार मालिक की क्या होगी। प्रबंधन की दक्षता ऐसी जो किसी पत्रकार में तो क्यों होगी? कभी किसी ने किया नहीं, किंतु अभयजी के आसपास मंचों की रौनक के केंद्र रहे संजय पटेल सहमत होंगे कि अभयजी की आवाज में रेडियो पर प्रभावी वॉयस ओवर किसी भी पेशेवर उदघोषक से अधिक प्रभावी हो सकते थे।

 

वे शब्दाें का प्रयोग सावधानी से करते थे। बोलने में भी, लिखने में भी। उनकी डायरियाँ सबके लिए खुली थीं। वे कई दिशाओं में सोचने और कर सकने में एक साथ सक्षम दुर्लभ संपादक थे। विधायकों के टिकटों से लेकर मंत्रियों के विभागों तक, अफसरों की बदली से लेकर सरकार की नीतियों की उलझनों के बीच प्रशाल निर्माण करते हुए वे भूल गए थे कि नईदुनिया पर ग्रहण लग चुका है! किंतु क्या चमत्कार है कि उस डूब क्षेत्र में ‘प्रतिभावान भूअर्जन अधिकारियों’ के भाग्य उदय हो रहे थे! हर पड़ाव पर एक उपन्यास की सामग्री भरपूर है!

 

नौ साल उनके साथ काम करते हुए मैंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर्वाधिक चर्चित हिंदू संगम को झाबुआ में कवर किया, भोजशाला आंदोलन ने मुझे परमारों के महान वैभव से ऐसा साक्षात कराया कि उनका आशीर्वाद मुझे उदयपुर में मिल रहा है, मैं स्वाध्याय परिवार के उन गाँवों में गया, जहाँ देश के एक महान सपूत ने दूरदराज के भारत की नियति बदलकर रख दी थी, वे गाँवों के लिए आशा की एक किरण हैं। शायद ही हमारी कोई कहानी छपने में छूटी हो। भोजशाला की रिपोर्टिंग के बाद एक लंबे लेख का शीर्षक था- “राजा राजा के फर्क को रेखांकित करती भोजशाला, कहाँ राजा भोज, कहाँ दिग्गी राजा!” मुस्कुराकर अभयजी ने अंतिम शब्द हटाकर पूरा छापा था!

 

अभयजी ने हमें सिटी की सीमाओं से पार का योद्धा स्वीकार कर लिया था। तभी ताे हम रविवारीय में भी छपते, धड़कन में भी, पुस्तक में भी, पुस्तक समीक्षा में भी और आउटडोर भी। प्रवीण शर्मा की भुज की रिपोर्टिंग किसे याद नहीं है? इस विषय में विकास मिश्र को भी जोड़ते हुए कहूंगा कि हमें यह स्वीकार करने में संकोच नहीं, गर्व है कि हम सबकी दीक्षा में अनेक आशीर्वाद अभयजी के भी हैं।

 

जो भी हो अभयजी का अपना सिग्नेचर स्टाइल था,जिस पर जयश्री पिंगले अच्छा लिख सकती हैं। उन्हाेंने अपने हिस्से का यश प्रत्येक दिशा से कमाया। नईदुनिया की नियति उनके सहारे टिकी थी। इस बिंदु पर आकर मुझे महेंद्र सेठिया याद आए हैं, जो अभी कुछ ही समय पहले नहीं रहे हैं। वे होते तो पता नहीं कौन सा अज्ञात अध्याय खोलते!

 

कभी-कभी सोचता हूं कि राजधानी के अपने ड्राइंगरूमों में बैठे डॉक्टर-इंजीनियर पिता-पुत्र अपनी अगली पीढ़ी को कौन सी कहानी सुनाते होंगे? उनकी दीवारों पर किनकी तस्वीरें होंगी? इंदौर में सेठियाजी के वारिसों में कौन किस काम में लगा होगा और उनके पास उषानगर एक्सटेंशन के नरेंद्र तिवारी मार्ग की क्या स्मृति होगी? क्या वे तिवारीजी के बारे में चर्चा करते होंगे? इंदौर में छजलानी परिवार की चहलपहल में विनयजी के लिए इस अतीत के क्या मायने होंगे? विनयजी की अगली पीढ़ी किस लोक में होगी? जयदीप कर्णिक या किशोर भुराड़िया लिखें तो नामालूम कहानी का कौन सा एंगल निकले!

 

अभयजी की नईदुनिया की दीवारों पर नरेंद्र तिवारी ही नहीं, राहुल बारपुते, राजेंद्र माथुर और प्रभाष जोशी सब गायब थे। वहाँ केवल अभयजी थे। अभयजी अपने शिखर पर थे। उनके कठोर डग थे। उनके सधे कदम थे।

 

मगर अभी 2018 में वे अपने पासपोर्ट के काम से भोपाल आए तो चिंतित थे कि ऑफिस में पता नहीं कितना समय लगे।

 

मेरे पास उनका फोन आया। मैं दैनिक भास्कर में था। एक अनुभवी रिपोर्टर को इस काम में लगाया कि आदरणीय अभयजी को पाँच मिनट भी प्रतीक्षा न करनी पड़े। उसने अभयजी का केवल नाम सुना था। उसके मन में अभयजी के प्रति भरपूर आदर था। कुछ ही मिनट में पासपोर्ट आॅफिस से मुक्त हुए तो खुश होकर अभयजी मेरे कार्यालय में आए। वह मेरे जीवन का कंपित कर देने वाला अनुभव है। वे मेरे छोटे संकरे केबिन में साथ बैठकर काँच महल के रूप में दैनिक भास्कर का विशाल न्यूजरूम देख रहे थे। बीते 25 साल उनकी आँखों में तैर गए होंगे। ये वो अखबार था, जिसे कभी गिनती में नहीं लिया था!

 

मैंने उस दिन उन्हें उल्लासपूर्वक सबसे मिलवाया। बीच के वर्षों में राहुल बारपुते के जीवन वृत्त पर लिखते हुए उनसे लगातार इंदौर में मिलना हुआ था। हरसूद की किताब ने हमारे संबंधों की गाँठ और मजबूत कर दी थी। अंतिम मुलाकात कोविड के आसपास की है। कमलेश सेन और मोहन वर्मा को याद होगा। लालबाग पैलेस से सटे उसी किंतु पूर्णत: परिवर्तित नईदुनिया के परिसर में बैठकर हमने देखा कि अभयजी की स्मृतियाँ गड्‌डमड्‌ड हो रही थीं। उस दोपहर विनय छजलानी की पूज्य माताजी मुझसे कह रही थीं कि विजय, तुम्हें नईदुनिया की कहानी लिखनी चाहिए। सबकी सच्चाई लिखनी चाहिए। इन्होंने कैसे लोगों पर भरोसा किया।

 

मैंने सिर्फ सुना। विस्तार में नहीं गया। अभयजी मौन थे! वे स्मृतियों के पार हो रहे थे!

 

लिखने के लिए तो मैं उन सबसे निवेदन करूंगा, जो किसी भी कालखंड में नईदुनिया में रहे या अभयजी के संपर्क में रहे। नागपुर में विकास मिश्र और मणिकांत सोनी, दिल्ली में आलोक मेहता, यशवंत व्यास, रामशरण जोशी और सुरेश बाफना, जम्मू में सुरेश डुग्गर, इंदौर में श्रवण गर्ग, रवींद्र शुक्ला, प्रकाश हिंदुस्तानी, सुरेश ताम्रकर, मुकुंद कुलकर्णी, सतीश जोशी, गोविंद मंघानी, भोपाल में उमेश त्रिवेदी, एनके सिंह, राजेश बादल, शिवकुमार विवेक, राजेश सिरोठिया, राजीव सोनी के अलावा पद्मश्री डॉ. कपिल तिवारी और पद्मश्री विजयदत्त श्रीधर। और भी हैं। जैसे कमलेश पारे…

 

सबसे कनिष्ठ होने के नाते सबसे मेरा प्रश्न है कि अभयजी के उज्जवल प्रकाश में नईदुनिया के विनाशकारी विसर्जन के कारण और उन कारणों के सूक्ष्म विश्लेषण भी बताएँ…

 

पता नहीं मुझे क्यों लगता है कि नईदुनिया बिकना नहीं था। वह हिंदी पत्रकारिता की महान धरोहर थी। वह इंदौर की सामूहिक धरोहर थी। वह प्रदेश का प्रकरण था। वह संपत्ति हो सकता है कि छजलानी, सेठिया या तिवारी परिवार की मानी जाए, लेकिन वह इंदौर की विरासत थी। क्या इंदौर का सबल समाज उतने रुपए इकट्‌ठा करके नहीं दे सकता था कि संकट टल जाते। निस्संदेह वह चाहता तो स्वामित्व की सामाजिक शर्तें तय करता।

 

नईदुनिया एक समय इंदौर की प्राण शक्ति थी। यह#iimindore के लिए एक केस स्टडी है।

 

आज भी इंदौर जाता हूं। 2012 के बाद एक कमी हर बार खलती रही। इंदौर में होकर उस नईदुनिया की कमी। जिसमें अभयजी अपने रुतबे में नज़र न आते हों, वह कैसी नईदुनिया! अपनी नईदुनिया से वह रिश्ता टूटते ही अभयजी अकेले पड़ गए। स्मृतिलोप होने तक यह एकांत के अनेक विस्तृत और सुनसान वर्ष थे।

 

अभी-अभी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आवाज से गूंजता प्रवासी भारतीय समागम अभय प्रशाल में नहीं, एक अलग इलाके में और भी भव्य कन्वेंशन सेंटर में हुआ। इंदौर की रौनकें नए रास्तों पर जा टिकी हैं। अपने एकांत में तब व्हील चेअर पर अभयजी की आँखें क्या देख रही होंगी?

 

एक सूर्य ने स्वयं को पूर्णत: निस्तेज होते हुए देखा! यह नईदुनिया का पूर्णविराम है!!