Gallows, Collector and Commentary : फांसी, कलेक्टर और टीका

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भारत में नौकरशाही हो या सियासत बिगड़े बोलों के लिए जगजाहिर हैं। मध्यप्रदेश में नेताओं ने कलेक्टरों पर इतना दबाब बढ़ा दिया है कि वे अब अपने मातहतों को फांसी पर चढ़ाने की धमकी देने लगे हैं। घबड़ाहट आदमी से कुछ भी करा सकती है। धमकी देना अपराध है और भारतीय दंड संहिता में ऐसे अपराध के लिए धारा 506 के तहत सात साल की सजा का प्रावधान है। लेकिन सवाल ये है कि जब जिले का दंडाधिकारी ही अपराध कर रहा हो तो सजा देगा कौन?

मध्यप्रदेश में सरकार एक तरफ कोरोना प्रोटोकॉल की धज्जियां खुद उड़ा रही है। प्रदेश के मंत्री और विधायक तीस-तीस हजार लोगों के भोज करा रहे हैं लेकिन कलेक्टरों से कहा जा रहा है कि वे अपने जिलों में निषेधाज्ञाएं लागू करें और कोरोना टीकाकरण के लक्ष्य हर सूरत में लागू करें अन्यथा उनके खिलाफ कार्रवाई की जाएगी।

सरकार की चेतावनी नौजवान कलेक्टर झेल नहीं पा रहे हैं और टीकाकरण का लक्ष्य पूरा न करने पर अपने मातहतों को फांसी पर लटकाने की खुले आम धमकियां दे रहे हैं। ग्वालियर के कलेक्टर कौशलेन्द्र विक्रम सिंह ने ऐसी ही धमकी बीते दिनों दी।

लोकतंत्र में कलेक्टर लोकसेवक हैं, वे अपने मातहतों को फांसी पर लटकाने की धमकी कैसे दे सकते है। मातहत बेचारे मातहत हैं, किसी में इतना साहस नहीं की कलेक्टर के खिलाफ पुलिस थाने में जान से मारने की धमकी देने का मामला दर्ज कराएं या सीधे अदालत जाएँ। लेकिन अपराध तो अपराध है। ऐसे अपराध को हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए।

दरअसल इस अपराध की जड़ में खुद सरकार है। पहले से कामबाढ़ के शिकार कलेक्टरों को यदि मुख्यमंत्री रोज-रोज हड़कायेंगे तो कलेक्टर आखिर क्या करेंगे? कायदे से तो सरकार को अपने विधायकों और मंत्रियों के खिलाफ कोरोना प्रोटोकॉल तोड़ने के लिए दण्डित करना चाहिए। किन्तु ऐसा हो नहीं सकता। कलेक्टरों को हड़काया जा सकता है विधायकों और मंत्रियों को नहीं।

सवाल एक ग्वालियर कलेक्टर का नहीं है,सवाल पूरे प्रदेश का है। आज मध्यप्रदेश में नौकरशाही सरकार के लिए प्रशासन नहीं बल्कि सत्तारूढ़ दल की राजनीति चला रही है। पूरे प्रदेश में आगामी चुनावों को देखते हुए किये जाने वाले समारोहों, रैलियों, सभाओं, सम्मेलनों और नेताओं की आवभगत में उलझी नौकरशाही पर टीकाकरण के लक्ष्य पूरे करने का भी दबाब है। यही दबाब नौकरशाहों के तनाव की वजह बन रहा है और अंतत: फांसी पर लटकने की धमकियों के रूप में सामने आ रहा है।

छतरपुर में कलेक्टर ने इसी तनाव के चलते तांडव मचा रखा था, हारकर सरकार ने कलेक्टर को हटाया तो छतरपुर की जनता ने दीपावली मनाई, घी के दिए जलाये। ग्वालियर में भी सरकार यदि संज्ञान नहीं लेगी तो यहां भी कभी भी कुछ भी अप्रिय हो सकता है।

अकेले कलेक्टर ही नहीं विधायकों की जुबान का खड़ा नहीं है। प्रदेश के गृहमंत्री हों या कांग्रेस के विधायक उमंग सिंघार, कुछ भी बोल सकते हैं, बोल रहे हैं। उमंग सिंघार ने काशी में शिवभक्ति में लीन प्रधानमंत्री को रावण बता दिया।

उन्हें ऐसा नहीं कहना चाहिए था लेकिन आखिर वे सीखे कहाँ से हैं? एक समय में संसद में एक महिला सांसद की हंसी पर तंज करने वाले भी आखिर प्रधानमंत्री ही तो थे।

विसंगति ये है कि कोई किसी को हटकने वाला नहीं है। जिसके मन में जो आ रहा है सो कर रहा है। सरकार हो या नौकरशाही किसी पर किसी का नियमांतरण नहीं है। सरकार ने लोकसेवा के लिए बनी नौकरशाही को अपना दास बना लिया है और दास बनी नौकरशाही ही अब आक्रमक और अपराधी प्रवृत्ति की हो गयी है।

मजे की बात ये है की अपने मातहतों को फांसी पर लटकाने का आपराधिक कृत्य कर चुके कलेक्टर को नहीं मालूम की वो अपने मातहतों को सिवाय निलंबित करने के और कुछ नहीं कर सकते। खुद कलेक्टरों को ताश के पत्तों की तरह फेंटा जाता हैं।

आज की स्थिति में तो कलेक्टर से लेकर कमिश्नर तक और आईजी से लेकर एसपी तक अपनी-अपनी नौकरी बचाये रखने के लिए नेताओं के सामने साष्टांग दंडवत करते हुए देखे जा सकते हैं। इस पूरे परिदृश्य को तत्काल बदले जाने की जरूरत है, लेकिन सवाल वही है कि आखिर स्थितियों में बदलाव लाएगा कौन ?जिन्हें बदलाव लाना है उन्हें इसका अहसास ही नहीं है।