Gandhi Thoughts : सिनेमा में आज भी वैचारिक रूप से गांधी मौजूद
प्रोफ़ेसर डॉ वत्सला का विश्लेषण
कुछ लोग सिनेमा को कल्पनालोक कहते हैं। जैसे लोक का अनुकीर्तन काव्य, नाटक आदि सभी विधाओं में होता है वैसे ही लोक का अनुकरण, लोक का प्रतिबिंब फिल्मों में भी देखने को मिलता है। फिल्मों में भी लोक में परिव्याप्त समस्याओं, विसंगतियों, विषमताओं, जीवन दर्शन, युद्ध , शांति, लोक संस्कृति, लोक परंपरा आदि का फिल्मांकन बेहतरीन तरीके से किया जाता हैं। समाज में प्रसृत प्रवृत्तियों का प्रभाव साहित्य की तरह फिल्मों में भी परिलक्षित होता हैं। साहित्य की तरह सिनेमा से भी रसानुभूति की प्राप्ति होती है।
इसका अनुमान सिनेमाघरों से निकलने वाली भीड़ को देखकर लगाया जा सकता हैं। सिनेमा नाटक की तरह दृश्य होता है। कालिदास ने भिन्न रुचि वाले लोगों के लिए नाटक को एक सामान्य मनोरंजन का साधन बताया और कहा था ‘नाट्यं भिन्नरुचेर्जनस्य बहुधाप्येकं समाराधनम्!’ इसी प्रकार सिनेमा भी भिन्न रुचि वाले लोगों के लिए मनोरंजन का साधन है। फिल्मों में नाटकों की भांति ही दर्शकों को आनंदानुभूति की प्राप्ति होती है। लोक की अभिरुचि के अनुसार ही निर्माता, निर्देशक कहानी का चयन कर फिल्म का निर्माण करते हैं। इस तरह सिनेमा साहित्य और समाज का आपस में अंत:संबंध है।
भारतीय सिनेमा का इतिहास 20वीं शताब्दी के प्रारंभ से शुरू हुआ है। पहले फिल्मों की कहानी धार्मिक, पौराणिक व ऐतिहासिक होती थी किंतु 20वीं शताब्दी के मध्य से फिल्मों की पटकथा में परिवर्तन हुआ। देशभक्ति, सामाजिक समस्याओं और उनके उन्मूलन हेतु संदेश देने वाली फिल्में बनने लगी। 20वीं शताब्दी में जब पूरे देश में स्वतंत्रता आंदोलन की लहर फैली थी तो इस आंदोलन का प्रभाव भी फिल्मों पर पड़ा। परिणाम स्वरूप देशभक्ति पर केंद्रित फिल्में बनीं जो जन समुदाय को आजादी के लिए प्रेरित करने वाली थी। ऐसी फिल्में लोगों द्वारा बहुत पसंद की गई।
इन फिल्मों के माध्यम से देश की गरीबी, अशिक्षा, न्याय प्रणाली, सामाजिक असमानता, क्रूर अमानवीय अत्याचार,आजादी की लड़ाई, चौरी चौरा कांड, जलियांवाला बाग हत्याकांड, युद्ध की विभीषिका, भुखमरी, महामारी, नारी शिक्षा आदि अनेक घटनाओं का चित्रांकन किया गया। ऐसी कुछ प्रसिद्ध फ़िल्में हैं इंकलाब (1935), चित्तौड़ विजय (1947), आनंद मठ (1952) जो बंगाल के भीषण अकाल पर बनी थी। 1943 में ‘किस्मत’ द्वितीय विश्व युद्ध की घटना पर आधारित थी। 1948 में आई शहीद झांसी की रानी (1953), हकीकत (1964) भारत-चीन के 62 के युद्ध पर बनी।
भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भी नामचीन स्वतंत्रता सेनानियों, महापुरुषों के चरित्र तथा स्वतंत्रता के लिए किए गए संघर्ष की घटनाओं पर फिल्मों का निर्माण हुआ। ऐसी कुछ फिल्में हैं उपकार, पूरब और पश्चिम, गर्म हवा, आक्रमण, सत्य मेव जयते, द लीजेंड ऑफ भगत सिंह (2002), मंगल पांडे (2005), द राइजिंग, रंग दे बसंती (2006), गांधी (1982), नेताजी सुभाषचंद्र बोस : दी फॉरगॉटेन हीरो (2004), सरदार (1993), बॉर्डर (1997), माँ तुझे सलाम (2002), सरफरोश, लगान, ग़दर : एक प्रेम कथा (2007), लक्ष्य (2004), उरी द सर्जिकल स्ट्राइक (2019), स्वातंत्र्य वीर सावरकर (2023) आदि अनेक फिल्में हैं जो परोक्ष व अपरोक्ष रूप से गांधी जी के जीवन दर्शन से सम्बद्ध हैं। इन सभी फिल्मों में कहीं न कहीं महात्मा गांधी की उपस्थिति देखी जा सकती है।
गांधी जी पर बनी फिल्में व गीत सदा अविस्मरणीय बने रहेंगे। 1954 में बनी फिल्म ‘जागृति’ इसके गीतों को कवि प्रदीप ने लिखा। इस फिल्म का प्रसिद्ध गाना ‘दे दी हमें आजादी बिना खड्ग बिना ढाल, आओ बच्चों तुम्हें दिखाएं झांकी हिंदुस्तान की और ‘हम लाए हैं तूफान से किश्ती निकाल के आज भी हर हिंदुस्तानी की जुबान पर हैं। 1959 ‘धूल का फूल’ इस गाने में गांधी जी के धर्मनिरपेक्षता के संदेश को देखा जा सकता है।1962 में आई फिल्म ‘बापू ने कहा था’ में एक छोटा बालक किस प्रकार बापू के आदर्शों से प्रभावित होता है और वह बापू के आदर्श को अपने गांव में लोगों को सिखाता है। ‘महात्मा : लाइफ ऑफ गांधी’ फिल्म 1869 से 1948 तक गांधी जी के जीवन और भारत की आजादी के लिए उनके संघर्षों को दिखाया गया है।
1982 में बनी फिल्म ‘गांधी’को आठ ऑस्कर अवार्ड मिले थे। ऑस्कर के साथ ही वार्ता, ग्रैमी, गोल्डन ग्लोब और गोल्डन गिल्ड समेत 26 अवार्ड प्राप्त हुए थे। यह सिनेमा गांधी जी के बायोग्राफिकल पर बनाया गया था। इस फिल्म में गांधी जी की भूमिका को वेस्टर्न एक्टर बेन किंग्सले ने निभाया था और फिल्म का निर्देशन रिचर्ड एटनबरो ने किया था। 1993 में बनी ‘सरदार’ गांधी और सरदार पटेल के विचारों में पार्थक्य को दर्शाने में तथा उभय महापुरुषों के रिश्तों को समझने का अवसर देती है। 1996 में आई फिल्म ‘मेकिंग ऑफ महात्मा’ का निर्माण हुआ। इसमें मोहनदास करमचंद गांधी के महात्मा बनने की कहानी को विस्तार से दिखाया गया। ब्रिटेन और अफ्रीका में रहने के दौरान गांधी जी ने क्या देखा और उससे उनके जीवन में क्या कुछ बदलाव हुआ। इस पूरी यात्रा को काफी प्रभावी ढंग से इस फिल्म में दिखाया गया है।
सन् 2000 में बनी फिल्म ‘हे राम’ में विभाजन के बाद फैली अशांति और गांधी जी की हत्या के बीच की कहानी का फिल्मांकन किया गया है। ‘मैंने गांधी को नहीं मारा’ सन् 2000 में बनी इस फिल्म में फिल्म का नायक यह स्वीकार करता है कि उसने ही गांधी को मारा। किंतु, फिल्म में नायक की पुत्री यह पता लगाने की कोशिश करती है कि क्या सच में उसके पिता ने गांधी की हत्या की है या कुछ और बात है। सन 2000 में बनी फिल्म ‘लगे रहो मुन्ना भाई’ यह फिल्म न केवल गांधी जी के ऊपर बनी थी बल्कि इसमें उनकी शिक्षाओं पर भी प्रकाश डाला गया। इसमें दिखाया गया है कि आज के जमाने में भी गांधी जी प्रासंगिक क्यों हैं? गांधी जी की विचारधारा को काफी अलग तरीके से प्रस्तुत किया गया है। इस पिक्चर में बड़े ही मनोरंजक ढंग से गांधी जी के किरदार को बड़े पर्दे पर उतर गया है।
फिल्म में संजय दत्त उर्फ मुन्ना भाई गांधी जी की विचारधारा पर चलते हैं और उन्हें कुछ भी गलत करने पर बार-बार बाबू नजर आते हैं। इस फिल्म ने आज के युग में गांधीगिरी को भी प्रचलित किया। 2007 में फिल्म आई ‘गांधी माई फादर’ यह फिल्म महात्मा गांधी और उनके बेटे हरिलाल के रिश्ते पर बनी थी। फिल्म में यह दिखाया गया है कि हरिलाल को लगता है कि देश के पिता होने के बावजूद महात्मा गांधी उनके लिए एक अच्छे पिता होने में असफल रहे। इस फिल्म को नेशनल अवार्ड मिला था। ‘गांधी द कॉन्सपिरेसी’ यह फिल्म भारत विभाजन के बाद से गांधी जी के हत्या तक के घटनाक्रम पर आधारित है इस फिल्म में हॉलीवुड और बॉलीवुड दोनों के कलाकारों ने किरदारों की भूमिका निभाई है।
दीपा मेहता की फिल्म ‘वाटर’में महात्मा गांधी का संदर्भ कई बार आता है। 1918 में बनी महात्मा विदुर, स्वदेश और टॉयलेट एक प्रेम कथा, शिखर, रोड टू संगम में भी गांधी जी के प्रभाव को देखा जा सकता हैं। इन फिल्मों में स्वतंत्रता काल के गांधीवाद से लेकर आधुनिक काल तक की गांधीगिरी दर्शकों को बहुत पसंद आई। फिल्मों ने स्वतंत्रता से पूर्व और स्वतंत्रता के बाद गांधी के विचारों को समाज में पहुंचाया। वास्तव में सिनेमा ने किताबों में लिखे महात्मा गांधी के चरित्र, विचार व दर्शन को बाहर निकाल कर पूरे देश में फैलाया हैं। पहले समाज में फिल्मों को देखना अच्छा नहीं समझा जाता था। लोग चोरी से पिक्चर देखने जाते थे जिससे घर वालों को पता न चले।
गांधी जी ने भी अपने जीवन में फिल्मों से सदा परहेज किया किंतु फिल्मों ने उनको विश्व पटल पर ला खड़ा किया। फिल्मों में देश और समाज की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक सभी ज्वलन्त समस्याओं को प्रदर्शित किया जाता है और कुछ हद तक उनका निवारण भी प्रस्तुत किया जाता है। यदि जिन्होंने गांधी को नहीं पढ़ा हैं, समाज के ऐसे लोग गांधी पर बनी फिल्में देखने जाते हैं तो वे गांधी को समझ सकते हैं। जैसे साहित्य समाज का दर्पण होता है वैसे ही सिनेमा समाज का आईना होता है।