
Gauvardhan Puja:भक्ति, प्रकृति और ग्राम्य संस्कृति का उत्सव”
-डॉ. तेज प्रकाश व्यास
दीपावली के अगले दिन भारत के प्रत्येक ग्राम में, आँगन में सजे दीपों और गौपूजन की गंध से वातावरण पवित्र हो उठता है।
गौवर्धन पूजा, जिसे अन्नकूट पर्व भी कहा जाता है, केवल एक धार्मिक परंपरा नहीं बल्कि प्रकृति, पशुधन और ग्राम्य जीवन के प्रति कृतज्ञता का उत्सव है।
ब्रजभूमि के मथुरा–वृन्दावन से लेकर मध्यप्रदेश के मालवा क्षेत्र और उत्तर भारत के प्रत्येक गाँव तक, यह पर्व भक्ति, गो-सेवा, और पर्यावरण संतुलन का प्रतीक बन चुका है।
1. पौराणिक पृष्ठभूमि
भागवत पुराण और हरिवंश पुराण में वर्णन आता है कि जब इन्द्र देव से क्रुद्ध होकर श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत उठाया, तो उन्होंने यह शिक्षा दी —
“प्रकृति और गो-पालन की सेवा ही सच्चा धर्म है।”
सात दिनों तक उन्होंने पर्वत को अपनी छोटी उँगली पर धारण किया और समस्त वृन्दावन को सुरक्षित रखा। यह घटना अहंकार पर विनम्रता और बल पर भक्ति की विजय का प्रतीक बनी।

2. मथुरा–वृन्दावन का गौरव
मथुरा और वृन्दावन में इस दिन लाखों श्रद्धालु गोवर्धन पर्वत की परिक्रमा (21 किमी) करते हैं।
राधा कुंड, मानसी गंगा, पूँछरी का लौठा, और दानघाटी जैसे तीर्थस्थल अन्नकूट भोग से सुशोभित होते हैं।
छप्पन भोग, भजन-कीर्तन, गो-सेवा, दीपदान, और कथा-पाठ इस दिन के मुख्य आकर्षण हैं।
यह पर्व यहाँ केवल आस्था नहीं, बल्कि ब्रजवासियों के लिए प्रकृति के प्रति कृतज्ञता और गोमाता के प्रति प्रेम का प्रतीक है।
3. मकावा ग्राम्य क्षेत्र की परंपरा
मकावा तथा आसपास के ब्रजग्रामों में गौवर्धन पूजा अत्यंत भावनात्मक रूप से मनाई जाती है।
गोवर्धन पर्वत का निर्माण:
ग्रामवासी आँगन में गोबर से पर्वत बनाते हैं, उसके ऊपर तुलसी, फूल, धान, गन्ना, फल और दीप रखते हैं।
महिलाएँ मंगलगीत गाती हैं
“जय जय श्री गोवर्धनधारी, सुख-संपत्ति देनहारी।”
गो-पूजन और अन्नकूट:
गायों को नहलाकर, सींगों पर हल्दी-कुमकुम लगाया जाता है। फिर 56 भोग और स्थानीय व्यंजन जैसे खीर, पूरी, दाल, गुड़, सब्जियाँ, मक्के की रोटी और दही अर्पित किए जाते हैं।
भजन और लोकनृत्य:
रात में ग्रामवासी रसिया गाते हैं, बालक कृष्ण-इन्द्र लीला की झाँकियाँ सजाते हैं।
4. मालवा क्षेत्र (मध्यप्रदेश) की ग्रामीण परंपराएँ
मालवा की मिट्टी, जो श्रम, संगीत और श्रद्धा की प्रतीक है, वहाँ भी गौवर्धन पूजा अपार उत्साह से मनाई जाती है।
(1) गोवर्धन पर्वत की रचना
गांवों में गोबर से पर्वत बनाकर उस पर छोटी-छोटी मिट्टी की गायें, बछड़े और बटुलियाँ सजाई जाती हैं।
घर की महिलाएँ कहती हैं —
“गोवर्धन महाराज की जय, अन्नकूट महोत्सव की जय।”
(2) पशुधन का पूजन
किसान अपनी बैलों, गायों और बछड़ों को सजाते हैं। उनके गले में घंटियाँ, माथे पर चंदन और लाल ध्वजा लगाई जाती है। खेतों के औजारों का भी पूजन किया जाता है — जो कृषि और श्रम की साधना का प्रतीक है।
(3) लोकगीत और भक्ति
मालवा की स्त्रियाँ “गिरिराजधरन की कथा” और “कृष्ण भजनों” का गायन करती हैं।
कई गाँवों में सामूहिक “अन्नकूट भंडारा” होता है, जिसमें समाज के हर वर्ग के लोग एक साथ बैठकर प्रसाद ग्रहण करते हैं — यही सामूहिक एकता और समानता का संदेश देता है।
5. आध्यात्मिक और सामाजिक महत्त्व
(i) प्रकृति का आदर:
गोवर्धन पर्वत और गाय — दोनों प्रकृति के दो जीवित रूप हैं। पर्व सिखाता है कि धरती, जल, वनस्पति और पशुधन सब जीवन के अभिन्न अंग हैं।
(ii) ग्रामीण अर्थव्यवस्था का आधार:
मालवा और ब्रज — दोनों ही कृषि और पशुपालन पर आधारित क्षेत्र हैं। यह पर्व ग्रामीण अर्थव्यवस्था के प्रति सम्मान और आभार व्यक्त करता है।
(iii) अहंकार का दमन:
इन्द्र का अहंकार कृष्ण की भक्ति से मिटा — यह सन्देश देता है कि विनम्रता ही सच्चा बल है।
(iv) सामुदायिक सौहार्द:
अन्नकूट भोजन में किसी का ऊँच-नीच नहीं — सब एक साथ बैठकर भोजन करते हैं। यह भारत की समरसता और समानता की जीवंत मिसाल है।
6. वैदिक और सांस्कृतिक सन्दर्भ
“गावो विश्वस्य मातरः।” — अथर्ववेद
गायें समस्त विश्व की माताएँ हैं।
“नदीनां पतये नमः, पर्वतानां पतये नमः।” — श्रीरुद्रम्
नदियों और पर्वतों के अधिपति को नमस्कार — यही गौवर्धन पूजा का वैदिक भाव है।
“भक्त्या तु तुष्यति भगवान्।” — भगवद्गीता
ईश्वर केवल भक्ति से प्रसन्न होते हैं, बाह्य यज्ञ से नहीं।
गौवर्धन पूजा — भक्ति, प्रकृति और कृतज्ञता का महोत्सव है।
मथुरा–वृन्दावन में यह पर्व आस्था का स्वरूप है, मकावा और मालवा में यह कृषि, श्रम और गोपालन की जीवनधारा बनकर बहता है।
यह पर्व हमें सिखाता है कि
“जो प्रकृति, गाय और अन्न का आदर करता है, वही सच्चा भक्त है।”
जय गोवर्धनधारी। जय गोमाता। जय ब्रजधाम।





