
गीता जयंती विशेष: श्रीमद्भगवद्गीता के 18 चयनित सर्वश्रेष्ठ श्लोक
1. कर्मण्येवाधिकारस्ते (अध्याय 2, श्लोक 47)
संस्कृत श्लोक
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥
भावार्थ:
हे अर्जुन! तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं। इसलिए तू कर्मों के फल का हेतु मत हो और तेरी अकर्मण्यता (कर्म न करने) में भी आसक्ति न हो।
2. नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि (अध्याय 3, श्लोक 23)
संस्कृत श्लोक
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः॥
भावार्थ
इस आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते, इसको अग्नि जला नहीं सकती, इसको जल गीला नहीं कर सकता और वायु सुखा नहीं सकती। (अर्थात् यह आत्मा नित्य, अजर-अमर और अविनाशी है)।
3. यदा यदा हि धर्मस्य (अध्याय 4, श्लोक 7)
संस्कृत श्लोक
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
भावार्थ:
हे भारत (अर्जुन)! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं (परमात्मा) अपने रूप को रचता हूँ अर्थात् साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूँ।
4. परित्राणाय साधूनां (अध्याय 4, श्लोक 8)
संस्कृत श्लोक
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥
भावार्थ:
साधु पुरुषों का उद्धार करने के लिए, पाप कर्म करने वालों का विनाश करने के लिए, और धर्म की अच्छी तरह से स्थापना करने के लिए मैं युग-युग में प्रकट होता हूँ।
5. श्रद्धावान् लभते ज्ञानं (अध्याय 4, श्लोक 39)
संस्कृत श्लोक
श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति॥
भावार्थ:
श्रद्धावान मनुष्य, अपनी इंद्रियों को वश में रखने वाला और ज्ञान प्राप्ति में तत्पर (लगा हुआ) मनुष्य ज्ञान को प्राप्त होता है। ज्ञान को प्राप्त होकर वह बिना विलंब के परम शांति को प्राप्त हो जाता है।
6. योगस्थः कुरु कर्माणि (अध्याय 2, श्लोक 48)
संस्कृत श्लोक
योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।
सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥
भावार्थ:
हे धनंजय (अर्जुन)! तू आसक्ति को त्यागकर तथा सिद्धि और असिद्धि में समान बुद्धि वाला होकर योग में स्थित हुआ कर्मों को कर। समत्व (समभाव) ही योग कहलाता है।
7. हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं (अध्याय 2, श्लोक 37)
संस्कृत श्लोक
हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः॥
भावार्थ:
यदि तू युद्ध में मारा गया तो स्वर्ग को प्राप्त होगा, और यदि जीत गया तो पृथ्वी के राज्य को भोगेगा। इसलिए हे कुंतीपुत्र (अर्जुन)! तू युद्ध के लिए निश्चय करके खड़ा हो जा।
8. सर्वधर्मान् परित्यज्य (अध्याय 18, श्लोक 66)
संस्कृत श्लोक
सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥
भावार्थ:
(तू) सम्पूर्ण धर्मों (कर्तव्यों) को मेरे में त्यागकर, केवल एक मुझ (परमात्मा) की शरण में आ जा। मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, तू शोक मत कर।
9. पत्रं पुष्पं फलं तोयं (अध्याय 9, श्लोक 26)
संस्कृत श्लोक
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः॥
भावार्थ:
जो कोई भक्त मेरे लिए प्रेम से एक पत्ता, फूल, फल, या जल अर्पित करता है, उस शुद्ध बुद्धि वाले प्रेमी भक्त का वह प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ उपहार मैं (सगुण रूप में) स्वीकार करता हूँ।
10. तस्मात्सर्वेषु कालेषु (अध्याय 8, श्लोक 7)
संस्कृत श्लोक
तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयः॥
भावार्थ:
इसलिए तू सब समय में मेरा (परमात्मा का) स्मरण कर और युद्ध भी कर। इस प्रकार मेरे में अर्पण किए हुए मन-बुद्धि से तू निःसंदेह मुझे ही प्राप्त होगा।
11. यत्र योगेश्वरः कृष्णो (अध्याय 18, श्लोक 78)
संस्कृत श्लोक
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम॥
भावार्थ:
जहाँ योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण हैं और जहाँ गाण्डीव-धनुषधारी अर्जुन है, वहीं पर श्री (लक्ष्मी), विजय, विभूति (ऐश्वर्य) और अचल नीति है— ऐसा मेरा मत है।
12. ये यथा मां प्रपद्यन्ते (अध्याय 4, श्लोक 11)
संस्कृत श्लोक
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः॥
भावार्थ
हे पार्थ (अर्जुन)! जो भक्त मुझे जिस प्रकार भजते हैं, मैं भी उनको उसी प्रकार भजता हूँ (अर्थात् उनके प्रति व्यवहार करता हूँ)। मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं।
13. दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः (अध्याय 2, श्लोक 56)
संस्कृत श्लोक
दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते॥
भावार्थ:
जिसके मन में दुःखों की प्राप्ति पर उद्वेग (घबराहट) नहीं होता, सुखों की प्राप्ति में सर्वथा निःस्पृह (इच्छा रहित) है और जिसके राग, भय तथा क्रोध नष्ट हो गए हैं, ऐसा मुनि स्थिर बुद्धि वाला कहा जाता है।
14. नियतं कुरु कर्म त्वं (अध्याय ३, श्लोक ८)
संस्कृत श्लोक
नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मणः॥
भावार्थ:
तू शास्त्रविहित (निश्चित किए हुए) कर्तव्य कर्म कर, क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है। तथा कर्म न करने से तेरा शरीर-निर्वाह भी सिद्ध नहीं होगा।
15. यद्यदाचरति श्रेष्ठः (अध्याय ३, श्लोक २१)
संस्कृत श्लोक
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥
भावार्थ:
श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, अन्य सामान्य मनुष्य भी उसी का अनुसरण करते हैं। वह श्रेष्ठ पुरुष जो कुछ प्रमाण (मानक) कर देता है, समस्त लोक उसी के अनुसार बरतने (कार्य करने) लगता है।
16. सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो (अध्याय 15, श्लोक 15)
संस्कृत श्लोक
सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्॥
भावार्थ:
मैं (परमात्मा) सबके हृदय में स्थित हूँ। मुझसे ही स्मृति, ज्ञान और उनका अपोहन (नष्ट होना या संशय) होता है। सम्पूर्ण वेदों द्वारा जानने योग्य मैं ही हूँ, वेदान्त का कर्ता और वेदों का ज्ञाता भी मैं ही हूँ।
17. उद्दरेदात्मनात्मानं (अध्याय 6, श्लोक 5)
संस्कृत श्लोक
उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः॥
भावार्थ
मनुष्य को चाहिए कि वह स्वयं ही अपना उद्धार करे, अपने को (अधोगति में) न डाले। क्योंकि यह मनुष्य आप ही अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है।
18. अहिंसा सत्यमक्रोधः (अध्याय 16, श्लोक 2)
संस्कृत श्लोक
अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम्।
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम्॥
भावार्थ:
अहिंसा, सत्य भाषण, क्रोध का न होना, कर्म-फल का त्याग, अन्तःकरण की शान्ति, किसी की निन्दा न करना, प्राणियों पर दया, विषयों में न ललचाना, कोमलता, लोक और शास्त्र से विरुद्ध आचरण में लज्जा और चपलता (व्यर्थ की हलचल) का अभाव— (ये सब दैवी सम्पदा के लक्षण हैं)।
12. ये यथा मां प्रपद्यन्ते (अध्याय 4, श्लोक 11)
संस्कृत श्लोक
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः॥
भावार्थ
हे पार्थ (अर्जुन)! जो भक्त मुझे जिस प्रकार भजते हैं, मैं भी उनको उसी प्रकार भजता हूँ (अर्थात् उनके प्रति व्यवहार करता हूँ)। मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं।
13. दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः (अध्याय 2, श्लोक 56)
संस्कृत श्लोक
दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते॥
भावार्थ:
जिसके मन में दुःखों की प्राप्ति पर उद्वेग (घबराहट) नहीं होता, सुखों की प्राप्ति में सर्वथा निःस्पृह (इच्छा रहित) है और जिसके राग, भय तथा क्रोध नष्ट हो गए हैं, ऐसा मुनि स्थिर बुद्धि वाला कहा जाता है।
14. नियतं कुरु कर्म त्वं (अध्याय ३, श्लोक ८)
संस्कृत श्लोक
नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मणः॥
भावार्थ:
तू शास्त्रविहित (निश्चित किए हुए) कर्तव्य कर्म कर, क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है। तथा कर्म न करने से तेरा शरीर-निर्वाह भी सिद्ध नहीं होगा।
15. यद्यदाचरति श्रेष्ठः (अध्याय ३, श्लोक २१)
संस्कृत श्लोक
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥
भावार्थ:
श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, अन्य सामान्य मनुष्य भी उसी का अनुसरण करते हैं। वह श्रेष्ठ पुरुष जो कुछ प्रमाण (मानक) कर देता है, समस्त लोक उसी के अनुसार बरतने (कार्य करने) लगता है।
16. सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो (अध्याय 15, श्लोक 15)
संस्कृत श्लोक
सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्॥
भावार्थ:
मैं (परमात्मा) सबके हृदय में स्थित हूँ। मुझसे ही स्मृति, ज्ञान और उनका अपोहन (नष्ट होना या संशय) होता है। सम्पूर्ण वेदों द्वारा जानने योग्य मैं ही हूँ, वेदान्त का कर्ता और वेदों का ज्ञाता भी मैं ही हूँ।
17. उद्दरेदात्मनात्मानं (अध्याय 6, श्लोक 5)
संस्कृत श्लोक
उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः॥
भावार्थ
मनुष्य को चाहिए कि वह स्वयं ही अपना उद्धार करे, अपने को (अधोगति में) न डाले। क्योंकि यह मनुष्य आप ही अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है।
18. अहिंसा सत्यमक्रोधः (अध्याय 16, श्लोक 2)
संस्कृत श्लोक
अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम्।
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम्॥
भावार्थ:
अहिंसा, सत्य भाषण, क्रोध का न होना, कर्म-फल का त्याग, अन्तःकरण की शान्ति, किसी की निन्दा न करना, प्राणियों पर दया, विषयों में न ललचाना, कोमलता, लोक और शास्त्र से विरुद्ध आचरण में लज्जा और चपलता (व्यर्थ की हलचल) का अभाव— (ये सब दैवी सम्पदा के लक्षण हैं)।
प्रस्तुति –
डॉ तेज प्रकाश पूर्णानंद व्यास
ग्लोबली हैप्पीनेस हार्मोन्स एवं श्रीमद्भगवद्गीता
प्रचारक)





