
Goa और Mumbai: “चरैवेति (चलते रहो)” की प्रवृत्ति
– एन. के. त्रिपाठी
यात्रा केवल स्थानांतरण नहीं होती – वह आत्मा का विस्तार होती है। नए दृश्य, नए लोग, नए अनुभव जब हमारे भीतर उतरते हैं, तो वे हमें भीतर से समृद्ध करते हैं। जीवन के इसी सतत प्रवाह में “चरैवेति”– चलते रहो- की प्रेरणा निहित है। यही प्रेरणा बार-बार मुझे पथ पर ले आती है। और इस बार, उसी प्रवृत्ति ने मुझे फिर से गोवा पहुंचा दिया।
गोवा की ओर
अंततः एक बार फिर गोवा आना हुआ। इस बार आगमन आकस्मिक था–किसी नियोजित यात्रा का नहीं, बल्कि यात्रा-प्रेरित आत्मिक उन्माद का परिणाम। कोंकण क्षेत्र की अनुपम सुंदरता को रेल से देखने की उत्कंठा में मैं भोपाल से मुंबई और फिर गोवा से भोपाल की हवाई यात्रा पर था।
मुंबई और गोवा–दोनों ही स्थलों से मेरा पुराना रिश्ता रहा है। अनेक बार यहां आ चुका हूं, फिर भी हर बार कुछ नया पा लेता हूं।
गोवा, भारत का वह मनोवांछित पर्यटन स्थल है जहां भारतीय ही नहीं, विदेशी पर्यटक भी अपनी आत्मा को विश्राम देते हैं। यहां के समुद्री तट दिन में स्वर्णिम रेत पर चमकते हैं और रात में झिलमिलाते प्रकाश में जीवन का अनूठा रस घोल देते हैं। तटों के किनारे बसे होटल, क्रूज़ पर स्थित कैसीनो, और रात्रिकालीन संगीत- सभी मिलकर गोवा को एक स्वतंत्र, उन्मुक्त और तनावमुक्त अनुभव बना देते हैं।
इस बार गोवा ने स्वागत किया तो बारिश से भरे आसमान के नीचे। लगातार असामयिक वर्षा के कारण मैं और लक्ष्मी होटल के आसपास तक ही सीमित रहे। परंतु, पिछली यात्राओं की स्मृतियां इतनी सजीव थीं कि वही हमें संतोष दे गईं।
मुंबई की झलक और कोंकण की राह
गोवा से पहले की इस यात्रा में, कोंकण के लिए निकलने की तैयारी मुंबई से शुरू हुई। संध्या का समय था जब मैं हवाई अड्डे से जुहू के अपने होटल की ओर बढ़ रहा था। परंतु जुहू बीच की सड़कों पर उस दिन जीवन थम-सा गया था– छठ पर्व के तीसरे दिन डूबते सूरज को अर्घ्य देने हजारों श्रद्धालु उमड़े हुए थे।
पुरुष अपने सिर पर पूजन की पोटली लिए चल रहे थे, और महिलाएं मधुर भक्ति-स्वर में गुनगुना रही थीं। वर्षा की तेज़ बूंदें भी इस आस्था की भीड़ को नहीं रोक पा रही थीं।
कठिनाई से मैं होटल पहुंचा, जहां बताया गया कि कई लोग तो वहीं बीच पर रात्रि विश्राम करते हैं ताकि प्रातः उगते सूर्य को अर्घ्य दे सकें। मैंने तय किया कि भीड़ से पहले निकल जाऊं। प्रातः पांच बजकर दस मिनट पर चलने वाली कोंकण जन शताब्दी के लिए मैं और लक्ष्मी पौने तीन बजे ही छत्रपति शिवाजी टर्मिनस पहुंच गए। उस समय प्लेटफ़ॉर्म लगभग सुनसान था–हम दोनों पहले यात्री थे।

यात्रा का दर्शन
यात्राएं मेरे लिए केवल गंतव्य नहीं, बल्कि आत्म-साक्षात्कार का माध्यम हैं। देश हो या विदेश– हर यात्रा में मैं किसी नए स्थान को खोजने, किसी नए अनुभव को पाने की इच्छा लेकर निकलता हूं।

प्रत्येक स्थल की अपनी एक मौलिक सुंदरता होती है– कहीं प्रकृति का विस्तार, कहीं संस्कृति का संगम। मुंबई और गोवा इस बार केवल “कोंकण यात्रा” के पड़ाव थे, किंतु अनुभव ने उन्हें फिर विशेष बना दिया।
दरअसल, नए स्थानों पर जाना मानव की नैसर्गिक प्रवृत्ति है। एक रोता हुआ शिशु भी जब गोद में लेकर बाहर घूमाया जाता है, तो शांत हो जाता है। यही प्रवृत्ति सभ्यता की जननी भी रही– आदिमानव जब अफ्रीका के एक कोने से जिज्ञासा वश पूरे संसार में फैल गया, तब उसने ‘मानवता’ का विस्तार किया। घोड़े की सवारी और समुद्री यात्राओं ने इस खोज को गति दी।

और यही प्रवृत्ति आज भी हमारे भीतर विद्यमान है– चलते रहो, देखते रहो, जानते रहो।
मैं अपने भीतर उसी प्राचीन मानव की जिज्ञासा महसूस करता हू़ं- नए स्थानों को देखने, नई कहानियों को सुनने और जीवन के नए रंगों को आत्मसात करने की चाह।

इसलिए, चाहे कोंकण की हरियाली हो, मुंबई का सागर किनारा हो या गोवा की वर्षामयी रातें– हर जगह एक ही आवाज़ गू़जती है–
“चरैवेति… चरैवेति!”





