Goatmar Fair Pandhurna: गोटमार याने पत्थर मारना,ऐतिहासिक मेला पांढुर्णा ,देखिये वीडियो

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Goatmar Fair Pandhurna:गोटमार याने पत्थर मारना, ऐतिहासिक मेला पांढुर्णा,देखिये वीडियो

                                           पोला का दूसरा दिन।

डॉ. विकास शर्मा

आप कल्पना भी नही कर सकते कि भारत के किसी हिस्से में एक परंपरा (जो अब त्यौहार का रूप ले चुकी है) ऐसी है कि हजारों की भीड़ एक दूसरे पर पूरे दिन और कभी कभी तो दूर दिन तक पत्थर बरसाती रहती है। जिनमे वे ही लोग शामिल रहते हैं जो एक दिन पहले तक आपके साथ घूमते फिरते हैं, एक दूसरे के सुख दुख में शामिल होते हैं। गोटमार के बाद पुनः वही भाईचारा कायम हो जाता है। तो आखिर क्या कहानी है इस खूनी संघर्ष वाले खेल की जिसमे आपका पडौसी, आपका परिचित, या आपका मित्र ही आपकी जान का दुश्मन बन जाता है।

चलिये, आज बात करते हैं, एक 300 सालों से अधिक पुरानी खूनी परंपरा की, जो मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा जिले में स्थित तहसील पांढुर्ना में आज भी चली आ रही है – ये है गोटमार मेला, जो पोले के अगले दिन, यानी आज आयोजित हो रहा है। आपको लगता है यह कोई सांकेतिक खेल होगा जिसमें पत्थर फेंकने का दिखावा कर परम्परा पूरी कर ली जाती होगी, अगर आप ऐसा सोचते हैं तो फिर आप पूरी तरह गलत है। यहाँ तो वास्तविक और जानलेवा युद्ध होता है, वह भी आमने सामने वाला। इसमे हजारों लोग भाग लेते हैं, तथा लाखो लोग इस खूनी खेल को देखने आते हैं।

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गोटमार मेले का आयोजन महाराष्ट्र की सीमा से लगे मध्यप्रदेश के छिंदवाड़ा जिले के पांढुर्ना तहसील में हर वर्ष भादो मास के कृष्ण पक्ष में अमावस्या पोला त्योहार के दूसरे दिन किया जाता है। मध्य प्रदेश का यह मराठी भाषी क्षेत्र है और मराठी भाषा में गोटमार का अर्थ पत्थर मारना होता है। शब्द के अनुरूप मेले के दौरान पांढुर्णा और सावरगांव के बीच बहने वाली नदी (जाम) के दोनों ओर बड़ी संख्या में लोग एकत्र होते हैं और सूर्योदय से सूर्यास्त तक पत्थर मारकर एक-दूसरे को लहू लुहान करते हैं। इस घटना में प्रतिवर्ष कई लोग घायल हो जाते हैं। शासकीय आंकड़ों के हिसाब से घायलों की संख्या लगभग 200 से 400 के बीच होती है, लेकिन सच तो आप अनुमान लगा ही सकते हैं।

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इस पथराव में कुछ लोगों की मृत्यु भी हुई है। ऐसा नही है कि प्रशासन हाथ पर हाथ धरे बैठा रहता है, प्रतिवर्ष कई कोशिशें होती हैं, इसे बंद करने की या इसे अन्य स्वरूप में मनाने की लेकिन सब विफल रही हैं। एक बार तो कलेक्टर साहब ने शांति समिति की बैठक कर पत्थरों के स्थान और रबर की गेंद बड़ी तादात में नदी के किनारे रखवा दी, ताकि लोग पत्थरों के स्थान पर इन गेंदों से परंपरा पूर्ण कर लें, लेकिन दूसरे दिन हुआ इसका उल्टा। इस बार पहले से अधिक पत्थर चले और गेंद न जाने कहाँ गुम हो गईं।

क्यों मनाया जाता है यह खूनी त्यौहार?

इस दिन नदी के बीचोबीच एक झंडा गाड़ा जाता है, झंडा वास्तव में अच्छा खासा पलाश वृक्ष या उसकी काफी मोटी से शाखा के रूप में होता है। सांकेतिक झंडा इसी के ऊपर बांधा जाता है। यही झण्डा प्रेमिका/ वधु का प्रतीक है। यहाँ के स्थानीय मित्रो से प्राप्त जानकारी के अनुसार बातें रख रहा हूँ। ऐसी मान्यता है कि यह प्रेमिका का प्रतीक होता है, और इस प्रेमिका को पांढुर्णा गाँव के लोग (यानी वर पक्ष), लेकर आना चाहते है, जिन्हे रोकने के लिए लड़के वाले (सांवरगाव), पत्थर मार मार कर घायल करते है, और जवाब में दोनों पक्षों के लोग पत्थर बाजी करते है। जिसके पास झंडा रहता है, वो विजयी माना जाता है।

Goatmar Fair Pandhurna
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यह खूनी खेल, शाम तक जारी रहता है, और दोनों पक्षों के योद्धा लहूलुहान होकर भी जान की बाजी लगाकर झंडे को पाना या बचाना चाहते है। झंडा नही टूटने पर यह खेल दूसरे दिन भी जारी रह सकता है, इसीलिये प्रशासन की पूरी कोशिश होती है कि यह खेल एक दिन ही चले।

इसके इतिहास की बात करें तो, दो कथायें प्रचलित हैं। एक के अनुसार इसकी शुरुआत 17वीं ई. के लगभग मानी जाती है। नगर के बीच में नदी के उस पार सावरगांव व इस पार को पांढुरना कहा जाता है। पोले के दिन साबरगांव के लोग पलाश वृक्ष को काटकर जाम नदी के बीच गाड़ते है उस वृक्ष पर लाल कपड़ा, तोरण, नारियल, हार और झाड़ियां चढ़ाकर उसका पूजन किया जाता है। दूसरे दिन सुबह होते ही लोग उस वृक्ष की एवं झंडे की पूजा करते है और फिर प्रात: 8 बजे से शुरु हो जाता है एक दूसरे को पत्थर मारने का खेल, जिसे गोटमार कहते हैं। इसे देखने लाखो की संख्या में लोग पूरे देश भर से आते हैं।

ढोल नगाड़ो के बीच भागो-

4भगाओ, मारो मारो के नारों के साथ कभी पांढुर्णा के खिलाड़ी आगे बढ़ते हैं तो कभी सावरगांव के खिलाड़ी। दोनों एक-दूसरे पर पत्थर मारकर पीछे ढ़केलने का प्रयास करते है और यह क्रम लगातार चलता रहता है। दर्शकों का मजा दोपहर बाद 3 से 4 के बीच बढ़ जाता है। खिलाड़ी चमचमाती तेज धार वाली कुल्हाड़ी लेकर झंडे को तोड़ने के लिए उसके पास पहुंचने की कोशिश करते हैं। ये लोग जैसे ही झडे के पास पहुंचते हैं साबरगांव के खिलाड़ी उन पर पत्थरों की भारी मात्रा में वर्षा करते है और पाढुर्णा वालों को पीछे हटा देते हैं। “चंडी माई की जय” का नारा भीड़ में उत्साह भरने का काम कर देता है।

शाम को पांढुर्णा पक्ष के खिलाड़ी पूरी ताकत के साथ चंडी माता का जयघोष एवं भगाओ-भगाओ के साथ सावरगांव के पक्ष के व्यक्तियों को पीछे ढकेल देते है और झंडा तोड़ने वाले खिलाड़ी झंडे को कुल्हाडी से काट लेते हैं। जैसे ही झंडा टूट जाता है, दोनों पक्ष पत्थर मारना बंद करके मेल-मिलाप करते हैं और गाजे बाजे के साथ चंडी माता के मंदिर में झंडे को ले जाते है। झंडा न तोड़ पाने की स्थिति में शाम साढ़े छह बजे प्रशासन द्वारा आपस में समझौता कराकर गोटमार बंद कराया जाता है। पत्थरबाजी की इस परंपरा के दौरान जो लोग घायल होते है, उनका शिविरों में उपचार किया जाता है और गंभीर मरीजों को नागपुर भेजा जाता है।

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इस मेले के आयोजन के संबंध में कई प्रकार की किवंदतियां हैं। इन किवंदतियों में सबसे प्रचलित और आम किवंदती यह है कि सावरगांव की एक आदिवासी कन्या का पांढुर्णा के किसी लड़के से प्रेम हो गया था। दोनों ने चोरी छिपे प्रेम विवाह कर लिया। पांढुर्णा का लड़का साथियों के साथ सावरगांव जाकर लड़की को भगाकर अपने साथ ले जा रहा था। उस समय जाम नदी पर पुल नहीं था। नदी में गर्दन भर पानी रहता था, जिसे तैरकर या किसी की पीठ पर बैठकर पार किया जा सकता था और जब लड़का लड़की को लेकर नदी से जा रहा था तब सावरगांव के लोगों को पता चला और उन्होंने लड़के व उसके साथियों पर पत्थरों से हमला शुरू किया। जानकारी मिलने पर पहुंचे पांढुर्णा पक्ष के लोगों ने भी जवाब में पथराव शुरू कर दी। पांढुर्णा एवं सावरगाँव पक्ष के बीच इस पत्थरों की बौछारों से इन दोनों प्रेमियों की मृत्यु जाम नदी के बीच ही हो गई। इस किवंदती को 300 साल पुराने गोटमार मेला आयोजन से जोड़ा जाता है.

दोनों प्रेमियों की मृत्यु के पश्चात दोनों पक्षों के लोगों को अपनी शर्मिंदगी का एहसास हुआ और दोनों प्रेमियों के शवों को उठाकर किले पर माँ चंडिका के दरबार में ले जाकर रखा और पूजा-अर्चना करने के बाद दोनों का अंतिम संस्कार कर दिया गया। संभवतः इसी घटना की याद में माँ चंडिका की पूजा-अर्चना कर गोटमार मेले का आयोजन किया जाता है। कई बार तो दर्शकों पर और पुलिश प्रसाशन पर भी पत्थरो की बौछार हो जाती है, जिसे बाद में जिम्मेदार नागरिकों द्वारा रुकवा दिया जाता है। लेकिन धन्य है पुलिस प्रशासन जो पूरी निष्ठा से अपनी ड्यूटी में जुटा रहता है।
एक दूसरी कथा और भी प्रचलित है, जो अधिक प्राचीन है। इसके अनुसार पूर्व में यह क्षेत्र गोंड राजा- जाटवा सम्राट का आधिपत्य वाला क्षेत्र था। चंडी माता के बगल में ही इनका किला भी था। इसी स्थान पर एक बार पूजन करने आये जाटवा राजा की सेना दुश्मनों से घिर गई, इनके पास पर्याप्त हथियार नही थे। लेकिन इन्होंने अपनी कुल देवी और पराक्रम की देवी चंडी माता की आराधना की और प्रकृति प्रदत्त साधनों याने पत्थरो को ही हथियार बनाकर गोफन और हाथों से चलाना आरंभ कर दिया। देखते ही देखते चंडी माता की कृपा से दुश्मन ढेर हो गये और निहत्थी सेना युध्द जीत गई। तब से इस परम्परा की शुरुवात हुई।

आस्था से जुड़ा होने के कारण इसे रोक पाने में असमर्थ प्रशासन व पुलिस एक दूसरे का खून बहाते लोगों को असहाय देखते रहने के अलावा और कुछ नहीं कर पाते। निर्धारित समय अवधि में पत्थरबाजी समाप्त कराने के लिए प्रशासन और पुलिस के अधिकारियों को बल प्रयोग भी करना पड़ता है। कई बार प्रशासन ने पत्थरों की जगह रबर की हजारों छोटी छोटी गेंद उपलब्ध कराई, परंतु दोनों पक्ष के लोगों ने गेंद का उपयोग नहीं करते हुए पत्थरों का उपयोग ही किया। थकहार कर प्रशासन ने मूक दर्शक बन जाना उचित समझा। क्षेत्रीय नागरिकों का कहना है, कि अगर हम यह खेल नही खेलेंगे तो अपने आप आसमान से पत्थरो की बारिस होने लगेगी। आस्था के आगे सभी बेबश हैं ।।

आस्था की बात एक तरफ लेकिन आस्था की आड़ में नशाखोरी, जुआँ, पुरानी रंजिश का हिसाब बसूलने आदि के भी कई उदाहरण देखने को मिल जाते हैं। क्योंकि आज के दिन पांढुर्णा में मार- पीट, लड़ाई- झगड़े आदि की कोई रपट लिखी नही जाती है, समझना मुश्किल होता है कि चोट खेल की है या वास्तविक अपराध की…। 😥 परंपरा आधारित यह खूनी खेल सदियों से चला आ रहा है, और आज भी कायम है…..

डॉ. विकास शर्मा
#खूनी_गोटमार_मेला

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