राज-काज: जिलों को अब तक नहीं मिले उनके ‘मुख्यमंत्री’….
– मुख्यमंत्री डॉ मोहन यादव के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बने ढाई माह से ज्यादा का समय गुजर चुका, लेकिन अब तक जिलों को उनके ‘मुख्यमंत्री’ नहीं मिले। हम बात कर रहे हैं जिले के प्रभारी मंत्रियों की, जिन्हें जिले का ‘मुख्यमंत्री’ कहा जाता है। उनके पास अधिकार भले सीमित हों लेकिन जिले की सरकार वे ही चलाते हैं। मंत्रियों को जिलों का प्रभार न दिए जाने का नतीजा यह कि जिला स्तर पर होने वाले विकास कार्यों के निर्णय अटके पड़े हैं। विधायकों के जरिए जारी की जाने वाली रािश भी रुकी है।
जिला योजना समितियों की बैठक मंत्रिमंडल की तर्ज पर होती है, जहां जिले के विकास को लेकर निर्णय लिए जाते थे। इनमें जिले के सभी विधायक, जिला पंचायत अध्यक्ष सहित अन्य जनप्रतिनिधि और सभी विभागों के प्रमुख अफसर हिस्सा लेते हैं। निर्णय सभी की राय से हाेते हैं, लेकिन प्रभारी मंत्री न होने के कारण बैठकें ही नहीं हो रहीं। सरकार ने हाल में एक आदेश जारी कर प्रभारी मंत्रियों की अनुपस्थित में जनसंपर्क राशि वितरण के अधिकार कलेक्टरों को दिए हैं, लेकिन जनप्रतिनिधि और ब्यूरोक्रेसी के काम के तरीके में बड़ा फर्क होता है। जनप्रतिनिधि जनता के प्रति उत्तरदायी हैं, ब्यूरोक्रेट नहीं। अब लोकसभा चुनाव आ गए हैं। लगता है कि जिलों को प्रभारी मंत्री चुनावों के बाद ही मिल पाएंगे।
एक झटके में 40 साल पुरानी निष्ठा गंवा बैठे कमलनाथ….!
– कांग्रेस के वरिष्ठ नेता कमलनाथ अब बैकफुट पर हैं। भाजपा में जाने को लेकर उन्होंने जो सियासी दांव खेला, इसके बाद नुकसान-फायदा अपनी जगह, लेकिन 40 साल से ज्यादा समय कांग्रेस में रहकर उन्होंने जो जगह बनाई थी, वह मिट्टी में मिल गई। एक झटके में वे गांधी परिवार के प्रति अपनी निष्ठा भी गंवा बैठे। कांग्रेस में उनके स्थान का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि पार्टी नेतृत्व न उन्हें राष्ट्रीय अध्यक्ष तक बनाने का ऑफर दे दिया था। उन्हें इंदिरा गांधी का तीसरा बेटा जाे कहा जाता था। कमलनाथ ने यह सियासी ड्रामा किस योजना के तहत रचा, यह वे ही जानें, लेकिन अब पार्टी में उनकी निष्ठा संदिग्ध है।
मजेदार बात यह है कि सांसद बेटे नकुलनाथ ने एक्स हैंडल से कांग्रेस का चुनाव चिन्ह हटा दिया। इसका अनुसरण सज्जन वर्मा सहित उनके कट्टर समर्थकों ने किया। दिल्ली में अपने समर्थकों का जमावड़ा लगाया और उनके साथ कौन भाजपा में जा सकता है, बाकायदा इसकी सूची तैयार कर ली। जब भाजपा से डील पक्की नहीं हुई और भाजपा में जाना टल गया तो पूरा ठीकरा मीडिया पर फोड़ दिया गया। कमलनाथ जैसे वरिष्ठ नेता को लोगों को इतना भी मूर्ख नहीं समझना चाहिए। कहा यह भी जा रहा है कि अभी अध्याय पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ, नकुलनाथ अब भी भाजपा में जा सकते हैं क्योंकि इस बार वे हार के भय से डरे हुए हैं।
गुना से ग्वालियर पहुंचते ही बदला दिग्विजय का बयान….
– कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह आमतौर पर अपने बयानों पर अडिग रहते हैं, कभी पलटते नहीं। पहली बार ऐसा हुआ कि गुना से ग्वालियर पहुंचते ही उनका बयान बदल गया। गुना में मीडिया से बात करते हुए उन्होंने कहा था कि यदि पार्टी ने निर्देश दिया तो वे गुना-शिवपुरी संसदीय क्षेत्र से केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया के खिलाफ चुनाव लड़ने के लिए तैयार हैं। इससे पहले राजगढ़ में वे कह चुके थे कि लोकसभा चुनाव वे नहीं लड़ेंगे, क्योंकि राज्यसभा का उनका कार्यकाल अभी लगभग सवा दो साल शेष है, इसलिए सिंधिया के खिलाफ चुनाव लड़ने की घोषणा वाली खबर सुर्खियों में आ गई। इसे कमलनाथ के भाजपा में जाने के सियासी ड्रामे से जोड़कर देखा गया।
आरोप लग रहे थे कि कांग्रेस का कोई वरिष्ठ नेता लोकसभा चुनाव नहीं लड़ना चाहता, जबकि पार्टी नेतृत्व हर वरिष्ठ नेता को चुनाव लड़ाने के मूड में है। पर दिग्विजय गुना से ग्वालियर पहुंचे तो उनका बयान बदल गया। उन्होंने वही बात दोहरा दी जो उन्होंने राजगढ़ में कही थी। उन्होंने कहा कि चुनाव लड़ने वाले युवाओं की कमी नहीं है। गुना में सिंधिया के खिलाफ भी कोई युवा चुनाव लड़ेगा। यहां उन्होंने दोहरा दिया कि चूंकि उनका राज्यसभा का कार्यकाल बकाया है, इसलिए वे चुनाव नहीं लड़ेंगे। इससे यही संदेश गया कि वरिष्ठ नेता चुनाव लड़ने से बच रहे हैं।
राहुल की न्याय यात्रा से ऐसे निकलेगी पटवारी की टीम….
– लोकसभा चुनाव सिर पर हैं। तैयारी के लिए मजबूत संगठन की जरूरत है, लेकिन प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष जीतू पटवारी अब तक अपनी टीम का गठन ही नहीं कर सके। जबकि कांग्रेस का प्रदेश प्रभारी बनने के बाद भंवर जितेंद्र सिंह अपने पहले दौरे में ही प्रदेश कार्यकारिणी को भंग कर चुके थे। उम्मीद की जा रही थी कि कार्यकारिणी का गठन जल्द होगा, लेकिन ऐसा नहीं हो सका। प्रदेश कांग्रेस कार्यालय में कुछ पूर्व पदाधिकारी ही काम करते नजर आ रहे हैं। खबर है कि कार्यकारिणी के गठन में इस बार नेताओं का कोटा नहीं चलेगा और राहुल गांधी की भारत जोड़ो न्याय यात्रा के बाद पटवारी की टीम घोषित हो जाएगी।
टीम का पदाधिकारी बनने के लिए न्याय यात्रा में नेताओं की सक्रियता प्रमुख योग्यता मानी जाएगी। इस यात्रा को सफल बनाने के लिए कौन नेता कैसी मेहनत करता है, इसकी मॉनीटरिंग की जाएगी। राहुल की यात्रा की तैयारी को लेकर चंदि्रका प्रसाद द्विवेदी के नेतृत्व में एक टीम का गठन हो चुका है। महेंद्र सिंह चौहान की अध्यक्षता में एक टीम ने लोकसभा चुनाव के लिए वार रूम ने काम शुरू कर दिया है। इनके अलावा राजीव सिंह पूर्ववत संगठन का काम देख रहे हैं और केके मिश्रा मीडिया का। चुनाव की दृष्ट से प्रभारी भी काम कर रहे हैं, लेकिन लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखकर पूरी टीम चाहिए। इसका इंतजार किया जा रहा है।
खजुराहो पर ‘समझौते’ से किसे नफा, किसे नुकसान….?
– गठबंधन और चुनावी राजनीति के इतिहास में संभवत: पहली बार कांग्रेस ने मप्र में एक लोकसभा सीट खजुराहो समाजवादी पार्टी को समझौते में दी है। इस समझौते के बाद कांग्रेस और सपा में किसे फायदा होगा और किसे नुकसान, इसे लेकर कयास लगाए जाने लगे हैं। समझौते से सपा, कांग्रेस में से किसी को नुकसान नहीं होगा, फायदा ही होगा। बुंदेलखंड पर सपा की नजर पहले से है। यदा कदा विधानसभा चुनाव में यहां से उनके विधायक जीतते रहे हैं। विधानसभा के चुनाव में भी सपा कांग्रेस से बुंदेलखंड की कुछ सीटें चाहती थी लेकिन समझौता नहीं हाे सका था। सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव ने इसके लिए तत्कालीन प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ की आलोचना की थी। लोकसभा चुनाव में सपा की नजर हमेशा खजुराहो सीट पर रही है। क्षेत्र में यादव मतदाताओं की तादाद अच्छी खासी है जो सपा के पक्ष में वोट करता रहा है। खजुराहो से भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा सांसद हैं। नए होने के बावजूद वे यहां से लगभग 5 लाख वोटों के अंतर से चुनाव जीते थे। इस बार भी उनके बड़े अंतर से जीतने की संभावना है। इसलिए खजुराहो देने से कांग्रेस को कोई नुकसान नहीं है, बल्कि इसके बदले पार्टी को अन्य सीटों में यादव और मुस्लिम समाज के वोट मिल सकते हैं। सपा खजुराहो से भले हार जाए लेकिन इसके जरिए वह बुंदेलखंड में अपनी जगह बना सकती है।