
नर्मदा किनारे बढ़ता आक्रोश: अतिक्रमण हटाने के आदेश से आदिवासी भड़के, 15 नवंबर को सोंडवा में बड़ा आंदोलन
– राजेश जयंत

ALIRAJPUR: मध्य प्रदेश के पश्चिम सीमांत जनजातीय बहुल आलीराजपुर जिले के सोंडवा क्षेत्र में नर्मदा किनारे बसे गांवों में इन दिनों माहौल असामान्य रूप से तनावपूर्ण है। वन विभाग के एक आदेश ने स्थानीय आदिवासी समुदाय में गहरा असंतोष और अविश्वास पैदा कर दिया है। लोगों का कहना है कि “अतिक्रमण हटाने” की कार्यवाही दरअसल उनकी पुश्तैनी जमीनों पर नियंत्रण स्थापित करने की कोशिश है। यह विवाद अब प्रशासनिक दायरे से निकलकर जनभावनाओं से जुड़ गया है।


15 नवंबर को सोंडवा में आदिवासी समाज द्वारा बड़े आंदोलन की घोषणा की गई है- यही दिन भगवान बिरसा मुंडा की जयंती और “जनजातीय गौरव दिवस” के रूप में मनाया जाता है। इसी दिन प्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव के भी आलीराजपुर आने की संभावना जताई जा रही है, जिससे प्रशासन और सरकार दोनों के लिए स्थिति और संवेदनशील हो गई है।
आदिवासी विकास परिषद के प्रदेश उपाध्यक्ष महेश पटेल ने इसे “अस्तित्व और अधिकार का संघर्ष” बताते हुए आंदोलन का ऐलान किया है। दूसरी ओर, प्रशासन सफाई दे रहा है कि किसी की जमीन नहीं छीनी जाएगी, लेकिन डीएफओ के पत्र और उसके बाद जारी खंडन ने स्थिति को और उलझा दिया है। लोगों का भरोसा डगमगाया है और अब पूरा क्षेत्र 15 नवंबर को प्रस्तावित विरोध सभा की प्रतीक्षा में है।
*आदेश बना विवाद की जड़*
मामला तब भड़का जब अक्टूबर के अंतिम सप्ताह में वन विभाग की ओर से एक पत्र जारी हुआ, जिसमें नर्मदा तट क्षेत्र में अतिक्रमण की जांच और हटाने की बात कही गई। बाद में यह भी सामने आया कि डीएफओ ने भोपाल के पत्र क्रमांक FOR/0667/2025/10-3 दिनांक 21 अगस्त 2025 तथा इंदौर के पत्र क्रमांक तकनीकी/25/5505 दिनांक 26 अगस्त 2025 का हवाला देते हुए यह कार्रवाई प्रस्तावित की है। इन पत्रों की प्रतिलिपि कलेक्टर और पुलिस अधीक्षक को भी भेजी गई थी।
प्रशासन का दावा है कि यह “नियमित प्रक्रिया” का हिस्सा है, पर स्थानीय लोगों ने इसे अपनी जमीनों पर कब्जे की शुरुआत माना। पत्र के सार्वजनिक होने के बाद ग्रामीणों में अफवाहें फैलने लगीं कि सरकार नर्मदा किनारे की भूमि “खनिज उत्खनन” के लिए लीज पर देने की तैयारी में है।
*महेश पटेल बने आंदोलन का चेहरा*
आदिवासी समाज से आने वाले महेश पटेल ने इसे “जीविका और अस्तित्व का मुद्दा” बताते हुए खुला विरोध शुरू कर दिया है। उन्होंने कहा “सरकार हमारी जमीन को अतिक्रमण बताकर छीनना चाहती है। यह आदेश हमारी संस्कृति, परंपरा और हक पर हमला है। जल-जंगल-जमीन हमारी पहचान हैं, इन्हें कोई कागजी आदेश से खत्म नहीं कर सकता।”
पटेल ने चेतावनी दी है कि अगर आदेश रद्द नहीं किया गया तो 15 नवंबर (बिरसा मुंडा जयंती) को सोंडवा में आदिवासी समाज विशाल जनसभा करेगा। उनका कहना है कि आंदोलन पूरी तरह शांतिपूर्ण रहेगा, लेकिन आवाज अब हर पंचायत से उठेगी।
*प्रशासन की सफाई, पर जनता का भरोसा नहीं लौटा*
जिला प्रशासन ने मामले में सफाई दी कि फिलहाल किसी भी तरह की बेदखली या बलपूर्वक कार्रवाई की योजना नहीं है। एक खंडन पत्र जारी करते हुए कहा गया कि समाचारों में दिखाई जा रही बातें “भ्रामक” हैं। हालांकि, लोगों का भरोसा इस सफाई से बहाल नहीं हुआ। कारण यह है कि आदेश की प्रति स्थानीय पंचायतों तक पहुंच चुकी है और ग्रामीणों का मानना है कि “खंडन केवल दबाव कम करने का तरीका” है।
*अंदरूनी चर्चा – खनिज लीज और निजी* परियोजनाओं से जुड़ा डर
स्थानीय लोगों के बीच यह धारणा गहराई से फैल चुकी है कि नर्मदा किनारे की उपजाऊ भूमि को खनिज कंपनियों या निजी परियोजनाओं को सौंपने की योजना है। कहा जा रहा है कि खनिज के लिए दी जाने वाली लीज के अलावा पर्यटन और नर्मदा में प्रस्तावित क्रूज संचालन के लिए स्टेशन निर्माण जैसी योजनाओं पर भी चर्चा चल रही है। भले ही प्रशासन ने ऐसी किसी संभावना से इंकार किया हो, लेकिन लोगों के मन से यह आशंका नहीं निकली। कई ग्रामीणों का कहना है कि पहले भी विकास के नाम पर जमीन ली गई और बाद में उसका उपयोग उद्योगों को देने में हुआ। इसलिए अब वे “कागजी भरोसे” पर विश्वास नहीं कर रहे।
*आदिवासी समाज में आक्रोश, पंचायतों में तैयारी*
ग्राम पंचायत स्तर पर अब बैठकें शुरू हो चुकी हैं। कई गांवों में रातभर चौपाल लगाकर रणनीति तैयार की जा रही है। आदिवासी महिलाएं भी आंदोलन में शामिल होने की तैयारी में हैं। 15 नवंबर को प्रस्तावित रैली के लिए आसपास के झाबुआ, धार और खरगोन जिलों से भी आदिवासी संगठनों के आने की संभावना है। आयोजकों का दावा है कि यह “नर्मदा बचाओ” नहीं बल्कि “हक बचाओ” आंदोलन होगा। आक्रोशित पक्ष का कहना है कि “वन विभाग द्वारा जिस तरह से पत्र जारी किया गया, उसमें स्थानीय ग्राम सभाओं से कोई परामर्श नहीं लिया गया। यह संविधान की धारा 243 और पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम, 1996 यानी पेसा कानून की भावना के खिलाफ है। सरकार ने जो खंडन जारी किया है, वह केवल दिखावे के लिए है, जबकि असली मंशा नर्मदा किनारे की जमीनों को निजी परियोजनाओं के हवाले करने की है।”
*डॉ. हीरालाल अलावा भी हुए मुखर*
इस पूरे प्रकरण पर मनावर विधायक और जयस (JAYS) के संरक्षक डॉ. हीरालाल अलावा ने भी सरकार को कटघरे में खड़ा किया है। उन्होंने प्रेस वार्ता में कहा कि यह फैसला “जनजातीय विरोधी” है और सरकार आदिवासी क्षेत्रों की जमीनों पर कब्जे की राह बना रही है। डॉ. अलावा ने भी आगामी 15 नवंबर को सोंडवा में प्रस्तावित आंदोलन में सहभागिता का संकेत देते हुए कहा कि “यह सिर्फ सोंडवा नहीं, पूरे नर्मदा अंचल का प्रश्न है, जहां विकास के नाम पर अधिकार छीने जा रहे हैं।”
*प्रशासनिक उलझन और डीएफओ पर निगाहें*
पूरा विवाद वन विभाग के डीएफओ के पत्र और बाद के बयान से ही भड़का था। अब प्रशासनिक हलकों में भी यह चर्चा है कि यदि स्थिति नियंत्रण से बाहर हुई तो इसका ठीकरा स्थानीय अधिकारियों, विशेषकर डीएफओ पर फूट सकता है। सूत्रों के अनुसार, सरकार इस विवाद से राजनीतिक नुकसान नहीं चाहती, इसलिए संबंधित अधिकारियों से लगातार रिपोर्ट तलब की जा रही है। जिला प्रशासन फिलहाल स्थिति को शांत करने में लगा है, पर दबाव स्पष्ट महसूस किया जा रहा है।
*राजनीतिक सरगर्मी तेज, पटेल पर नजरें*
महेश पटेल न केवल आदिवासी समाज में प्रभावशाली माने जाते हैं, बल्कि जिले की राजनीति में भी उनका दखल है। ऐसे में उनका नेतृत्व प्रशासन के लिए चुनौती बन सकता है। स्थानीय सूत्रों का कहना है कि कई सामाजिक संगठनों के अलावा कुछ विपक्षी दल भी इस मुद्दे पर समर्थन देने की तैयारी में हैं, जिससे मामला और गरम हो सकता है।
*मुख्यमंत्री के संभावित आगमन से बढ़ी संवेदनशीलता*
15 नवंबर को जनजातीय गौरव दिवस के अवसर पर मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव के आलीराजपुर जिले में आने की संभावना को देखते हुए प्रशासन की सतर्कता और बढ़ गई है। स्थानीय अधिकारियों को स्थिति नियंत्रण में रखने के निर्देश दिए गए हैं ताकि कार्यक्रम का माहौल बिगड़ने न पाए। सूत्रों के मुताबिक, सरकार चाहती है कि मुख्यमंत्री के दौरे से पहले ही विवाद को शांत कर लिया जाए, लेकिन जमीनी स्तर पर माहौल अब भी तनावपूर्ण है।
*सरकार और प्रशासन दोनों के लिए कठिन परीक्षा की घड़ी*
अब सारी निगाहें 15 नवंबर पर टिकी हैं। अगर तब तक कोई समाधान या संवाद नहीं हुआ, तो यह विवाद सोंडवा से निकलकर पूरे नर्मदा अंचल में फैल सकता है। वन विभाग के शुरुआती आदेश ने जहां प्रशासन को उलझन में डाल दिया है, वहीं सरकार पर भी राजनीतिक दबाव बढ़ा है। अंदरखाने यह चर्चा है कि यदि जनआक्रोश बढ़ा तो पूरा ठीकरा स्थानीय अधिकारियों, खासकर DFO पर फोड़ा जा सकता है। विशेषज्ञों का मानना है कि यह मामला अब सिर्फ “अतिक्रमण हटाने” की कार्यवाही नहीं रहा, बल्कि आदिवासी अधिकार, संवेदना और शासन की नीयत तीनों की कसौटी बन गया है।
निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि नर्मदा के किनारे उठे इस विवाद ने विकास और अस्तित्व की बहस को फिर से जिंदा कर दिया है। एक ओर प्रशासन कानून और नियमों का हवाला दे रहा है, तो दूसरी ओर आदिवासी समाज अपने वजूद की लड़ाई लड़ने को तैयार है। अब देखना यह है कि सरकार संवाद का रास्ता अपनाती है या 15 नवंबर को सोंडवा आदिवासी आंदोलन का केंद्र बन जाता है।





