हमचू सब्ज़ा बारहा रोईदा-ईम…

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हमचू सब्ज़ा बारहा रोईदा-ईम…

कौशल किशोर चतुर्वेदी
भारत में एक दौर वह था, जब पूरा देश अंग्रेजों के खिलाफ एकजुट था। हिंदू हो या मुसलमान हो, सिख हो या ईसाई…सबकी लड़ाई देश के एक ही दुश्मन से थी, जिसने हमें गुलाम बना रखा था। ऐसे समय के ही साहित्यकार और शायर थे अली सरदार जाफरी। वह उर्दू और फारसी के शायर थे। यह वह दौर था जब अँग्रेज़ों के ख़िलाफ़ स्वतंत्रता आंदोलन की शुरुआत हो चुकी थी और कई नौजवान इस आंदोलन में कूद पडे़ थे। इसी समय वॉयसराय के इक्ज़िकिटिव कौंसिल के सदस्यों के विरुद्ध हड़ताल करने के लिए सरदार को यूनिवर्सिटी से निकाल दिया गया। अपनी पढा़ई आगे जारी रखते हुए उन्होंने एँग्लो-अरेबिक कालेज, दिल्ली से बी.ए. पास किया और बाद में लखनऊ विश्वविद्यालय से एम.ए. की डिग्री हासिल की। फिर भी, छात्र-आंदोलनों में भाग लेने का उनका जज़्बा कम नहीं हुआ। परिणामस्वरूप उन्हें जेल जाना पडा़। इसी जेल में उनकी मुलाकात प्रगतिशील लेखक संघ के सज्जाद ज़हीर से हुई और लेनिन व मार्क्स के साहित्य के अध्ययन का अवसर मिला। यहीं से उनके चिंतन और मार्ग-दर्शन को ठोस ज़मीन भी मिली। इसी प्रकार अपनी साम्यवादी विचारधारा के कारण वे प्रगतिशील लेखक संघ से जुडे़ जहाँ उन्हें प्रेमचन्द, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, फ़ैज़ अहमद ‘फ़ैज़’ , मुल्कराज आनंद जैसे भारतीय सहित्यकारों तथा नेरूदा व लुई अरांगा जैसे विदेशी चिंतकों के विचारों को जानने-समझने का अवसर मिला। कई आलिमों की संगत का यह असर हुआ कि सरदार एक ऐसे शायर बने जिनके दिल में मेहनतकशों के दुख-दर्द बसे हुए थे।

उनकी एक रचना है मेरा सफ़र। जिसकी शुरुआत है ‘हमचू सब्ज़ा बारहा रोईदा-ईम’ यानि हम हरियाली की तरह बार-बार उगे हैं। रचना पर गौर करते हैं, जिसमें जीवन की सच्चाई तैर रही है।
फिर इक दिन ऐसा आएगा
आँखों के दिये बुझ जाएँगे
हाथों के कँवल कुम्हलाएँगे
और बर्गे-ज़बाँ से नुत्क़ो-सदा
की हर तितली उड़ जाएगी
इक काले समन्दर की तह में
कलियों की तरह से खिलती हुई
फूलों की तरह से हँसती हुई
सारी शक्लें खो जाएँगी
ख़ूँ की गर्दिश, दिल की धड़कन
सब रागनियाँ सो जाएँगी
और नीली फ़ज़ा की मख़मल पर
हँसती हुई हीरे की ये कनी
ये मेरी जन्नत, मेरी ज़मीं
इसकी सुब्हें, इसकी शामें
बे-जान हुए, बे-समझ हुए
इक मुश्ते-ग़ुबारे-इन्साँ पर
शबनम की तरह रो जाएँगी
हर चीज़ भुला दी जाएगी
यादों के हसीं बुतख़ाने से
हर ची़ज़ उठा दी जाएगी
फिर कोई नहीं ये पूछेगा
सरदार कहाँ है महफ़िल हमें
यह जीवन का एक हिस्सा है। तो रचना का दूसरा भाग शायर की उस सोच का प्रतिबिंब है, जिसमें लेखक, साहित्यकार कभी मरता नहीं है। तो जाफरी इसे आगे बढ़ाते हैं –
लेकिन मैं यहाँ फिर आऊँगा
बच्चों के दहन (मुँह) से बोलूँगा
चिड़ियों की ज़बाँ से गाऊँगा
जब बीज हँसेंगे धरती में
और कोंपलें अपनी उँगली से
मिट्टी की तहों को छेड़ेंगी
मैं पत्ती-पत्ती, कली-कली
अपनी आँखें फिर खोलूँगा
सरसब्ज़ हथेली पर लेकर
शबनम के क़तरे तोलूँगा
मैं रंगे-हिना (मेँहदी का रंग) आहंगे-ग़ज़ल (ग़ज़ल का संतुलन)
अन्दाज़े-सुख़न (काव्य की शैली) बन जाऊँगा
रुख़्सारे-उरूज़े-नौ (नए खिले हुए चेहरे और यौवन के उभार की तरह)
हर आँचल से छन जाऊँगा
जोड़ों की हवाएँ दामन में
जब फ़स्ले-ख़िज़ाँ (पतझड़ की फ़स्ल) को लाएँगी
रहरी के जवाँ क़दमों के तले
सूखे हुए पत्तों से मेरे
हँसने की सदाएँ आएँगी
धरती कि सुनहरी सब नदियाँ
आकाश की नीली सब झीलें
हस्ती से मिरी भर जाएँगी
और सारा ज़माना देखेगा
हर आशिक़ है ‘सरदार’ यहाँ
हर माशूक़ा‘सुलताना’ है

मैं एक गुरेज़ाँ लम्हा (बीत जाने वाला क्षण) हूँ
अय्याम के अफ़्सूँ-खा़ने (जीवन के जादुई घर) में
मैं एक तड़पता क़तरा हूँ
मसरूफ़े-सफ़र (यात्रा में व्यस्त) जो रहता है
माज़ी (अतीत) की सुराही के दिल से
मुस्तक़बिल (भविष्य) के पैमाने में
मैं सोता हूँ और जागता हूँ
और जाग के फिर सो जाता हूँ
सदियों का पुराना खेल हूँ मैं
मैं मर के अमर हो जाता हूँ”
यह रचना पढ़कर किसी के भी मुंह से वाह-वाह निकल जाएगा। पर यह ‘सोच-शब्द’ का संगम बहुत आसान नहीं है। अली सरदार जाफरी हों या फिर तमाम दूसरे शायर और साहित्यकार सभी खुद तप-तपकर समाज को अनमोल सौगात देकर जाते हैं। अली सरदार जाफरी को हम आज इसलिए याद कर रहे हैं, क्योंकि आज उनका जन्मदिन है।सन् 29 नवम्बर 1913 ई. को जन्म लेने वाले प्रसिद्ध शायर अली सरदार जाफ़री के लिए निश्चित ही नवम्बर एक यादगार महीना रहा होगा। सरदार का जन्म गोंडा ज़िले के बलरामपुर गाँव में हुआ था और वहीं पर हाईस्कूल तक उनकी शिक्षा-दीक्षा भी हुई थी। आगे की पढा़ई के लिए उन्होंने अलीगढ़ की मुस्लिम विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। यहाँ पर उनको उस समय के मशहूर और उभरते हुए शायरों की संगत मिली जिनमें अख़्तर हुसैन रायपुरी, सिब्ते-हसन, जज़्बी, मजाज़, जाँनिसार अख़्तर और ख़्वाजा अहमद अब्बास जैसे अदीब भी थे।
नवम्बर, मेरा गहंवारा है, ये मेरा महीना है
इसी माहे-मन्नवर में
मिरी आँखों ने पहली बार सूरज की सुनहरी रौशनी देखी
मिरे कानों में पहली बार इन्सानी सदा आयी
सरदार चाहे जहाँ भी रहे, उनकी लेखनी निरंतर चलती रही। नतीजतन उन्होंने ग्यारह काव्य-संग्रह, चार गद्य संग्रह, दो कहानी संग्रह और एक नाटक के अलावा कई पद्य एवं गद्य का योगदान साहित्यिक पत्रिकाओं को दिया। परंतु उनकी ख्याति एक ऐसे शायर के रूप में उभरी जिसने उर्दू शायरी में छंद-मुक्त कविता की परंपरा शुरू की। तभी तो उनकी कई रचनाएँ; जैसे परवाज़, नई दुनिया को सलाम, खून की लकीर, अमन का सितारा, एशिया जाग उठा, पत्थर की दीवार और मेरा सफ़र ख्याति प्राप्त कर चुके हैं। अपनी रचनाओं में उन्होंने प्रतीकों, बिम्बों और मिथकों का भी सुंदर प्रयोग किया है। यद्यपि सरदार ने अपनी शायरी में फ़ारसी का अधिक प्रयोग किया है, फिर भी उनकी रचनाएँ आम आदमी तक पहुँची और बेहद मकबूल हुई। उनके क़लम का लोहा देश में ही नहीं, अपितु अंतरराष्ट्रीय साहित्य जगत् में भी माना जाता है।
इस अज़ीम शायर ने अपने पूरे जीवन में मज़लूम और मेहनतकश ग़रीबों की समस्याओं को उजागर करने के लिए अपनी क़लम चलाई जिसके लिए उन्हें निजी यातनाएँ भी झेलनी पडी़। 86 वर्ष की आयु तक पहुँचते-पहुँचते अपने जीवन के अंतिम दिनों में ब्रेन-ट्यूमर से ग्रस्त होकर कई माह तक मुम्बई  अस्पताल में मौत से जूझते रहे। अंततः 1अगस्त, 2000 को इस फ़ानी दुनिया को अली सरदार जाफ़री ने अलविदा कह दिया। इन्हें 1997 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। पद्मश्री, राष्ट्रीय इक़बाल सम्मान, उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी पुरस्कार, रूसी सोवियत लैण्ड नेहरू पुरस्कार से भी सरदार को सम्मानित किया गया था। उनकी यह पंक्तियां उन्हीं को समर्पित हैं-

“कोई सरदार कब था इससे पहले तेरी महफ़िल में
बहुत अहले-सुखन उट्ठे बहुत अहले-कलाम आये।”
और अंत में सरदार की सोच को उजागर करते उनके दो शे’र –
हर मंज़िल इक मंज़िल है नयी और आख़िरी मंज़िल कोई नहीं
इक सैले-रवाने-दर्दे-हयात (जीवन की व्यथाओं का सैलाब) और दर्द का साहिल कोई नहीं
हर गाम (पग) पे ख़ूँ के तूफ़ाँ हैं, हर मोड़ पे बिस्मिल (घायल)  रक़्साँ हैं (तड़प रहे हैं)
हर लहज़ा (क्षण) है क़त्ले-आम (सर्वसाधारण का वध) मगर कहते हैं कि क़ातिल कोई नहीं…