सभी तरफ खुशी और सभी तरफ गम (Happiness Everywhere and Sorrow Everywhere)…

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सभी तरफ खुशी और सभी तरफ गम (Happiness Everywhere and Sorrow Everywhere)…
नगरीय निकाय चुनावों ने किसी को कहीं का नहीं छोड़ा है। भोपाल में मतदान प्रतिशत कम रहा, तब भी सभी के चेहरों पर आशा-निराशा का कुहासा है। इंदौर में मतदान प्रतिशत ठीक रहा है, तब भी संशय बरकरार है। नगरीय निकाय चुनाव के पहले चरण में प्रदेश के 44 जिलों में 11 नगर निगम, 36 नगर पालिका और 86 नगर परिषद के लिए चुनाव हुआ है। वैसे तो परिणाम आने तक हमेशा ही स्थितियां जोड़-घटाओ की बनी रहती हैं, लेकिन फिर लालने के पांव पालने में दिखने की तरह जीतने वाले की झलक मिल ही जाती है। पर इस बार दावे करने में भाजपा-कांग्रेस आमने-सामने खड़ी हैं, यह तस्वीर हर बार से कुछ अलग है। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ भी जिस तरह से कह रहे हैं कि वह गड़बड़ करने वाले उन अफसरों की सूची बनवा रहे हैं जो भाजपा का बिल्ला अपनी जेब में डालकर घूम रहे हैं।
चेतावनी भी दे रहे हैं कि गड़बड़ करने वालों को छोड़ेगे नहीं। 15 महीने बाकी है। उससे लग रहा है कि नगरीय निकाय की जगह यह जीत-हार विधानसभा चुनाव का परिणाम की इबारत लिख रही है। तो मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भी जिस तरह प्रतिक्रिया देकर कमलनाथ को चेतावनी दे रहे हैं कि अधिकारियों-कर्मचारियों को धमकाने की कोशिश करना ठीक नहीं है। रस्सी जल गई पर बल नहीं गया। कमलनाथ जब मुख्यमंत्री थे तब भी अधिकारी-कर्मचारी को धमकाते और अपमान करते थे। आज जब मुख्यमंत्री नहीं है तब भी पुलिस, प्रशासन, अधिकारी- कर्मचारी को धमका रहे हैं। हमारा प्रशासन निष्पक्ष है और निष्पक्षता के साथ काम कर रहा है। कर्मचारी-अधिकारी, पुलिस प्रशासन का भी अपमान, आपको महंगा पड़ेगा कमलनाथ जी। शिवराज के तेवर से भी लग रहा है कि लड़ाई आर-पार की होगी, तब भी पीछे नहीं हटेंगे और कमलनाथ को भी किसी भी कीमत पर हद पार नहीं करने देंगे।
shivraj kamlnath
मुख्यमंत्री और पूर्व मुख्यमंत्री की यह बोली निश्चित तौर से आम बोलचाल की भाषा कतई नहीं है। और यह भाषा यह भी संकेत दे रही है कि नगरीय निकाय चुनाव के परिणाम तो एक तरफ, लेकिन स्थितियां बिगड़ीं, तो नौबत दो-दो हाथ करने तक पहुंच सकती है। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष विष्णुदत्त शर्मा भी हमलावर है। नाथ पर निशाना साधते हुए कहते हैं कि कांग्रेस ने अपना अस्तित्व खो दिया है, नेता अप्रासंगिक हो गए हैं और कांग्रेस अपनी जमीन खो चुकी है। ऐसे में कांग्रेस के नेता कमलनाथ अनर्गल बयानबाजी कर कर्मचारियों को धमकी दे रहे हैं कि हम देख लेंगे। कमलनाथ जी, आपकी गुंडागर्दी और चरित्र से जनता भलिभांति परिचित है। 1984 के दंगों में किस प्रकार से सिख भाईयों का कत्लेआम हुआ था, यह देश की जनता भूली नहीं है। मध्यप्रदेश में कांग्रेस की कमलनाथ सरकार ने 15 महीनों में गरीबों के हक और अधिकार छीनने का काम किया है, जिसे प्रदेश की जनता ने देखा है।
हर चुनाव ऐसे बोलों का साक्षी तो बनता ही है कि जिसमें सत्तापक्ष हमेशा विपक्षी दल की असफलताओं को गिनाता है, तो विपक्ष हमेशा सत्तापक्ष की खामियां गिनाकर मतदाताओं के सामने आइना दिखाने का काम करता है। व्यक्तिगत तौर पर छींटाकसी होती है, पर स्थायी शत्रुता का भाव कहीं नहीं होता। खास तौर से पुलिस-प्रशासन के चेहरों को ब्लैकलिस्टेड करने जैसा भाव नहीं होता है। सत्तापक्ष में कोई भी हो, यह सामान्यतः देखा जाता है कि पुलिस-प्रशासन पर रौब उसका चलता ही है। पर इस सबके बीच ही सरकार में दलों की अदला-बदली भी हो जाती है। वरना मतपत्रों से मतदान के जमाने में तो सरकार में सत्तारूढ़ दल यानि कांग्रेस की कुर्सी पर कभी कोई दूसरा दल आ ही न पाता। और ईवीएम के जमाने में कांग्रेस दस साल केंद्र में राज नहीं कर पाती।

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तब भाजपा आरोप लगाने में चूक नहीं करती थी। अब जब केंद्र में भाजपा की सरकार है तो कांग्रेस आरोप लगाने में कोताही नहीं बरतती। इन चुनावों में भी अफसरों और कर्मचारियों की महती भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता। वैसे अगर अब देखा जाए तो दलों की अधिकारियों-कर्मचारियों के प्रति सोच का नजरिया बड़ा सीमित होता नजर आ रहा है। तो अधिकारी-कर्मचारियों का व्यवहार भी शायद दबाव-प्रभाव से मुक्त रहने का संदेश देने में पूरी तरह से कामयाब नहीं हो पा रहा है। खैर सभी को अपनी-अपनी सीमाओं में रहना चाहिए ताकि बोलचाल की भाषा अपनी सीमा से बाहर जाने की हिमाकत न कर पाए। और अधिकारियों-कर्मचारियों के प्रति भी राजनैतिक दलों का आचरण अमर्यादा की हद तक न पहुंच पाए।

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बात फिर वहीं आ जाती है कि मध्यप्रदेश के नगरीय निकाय चुनाव के पहले चरण के मतदान ने दोनों प्रमुख दलों भाजपा-कांग्रेस को उस दोराहे पर खड़ा कर दिया है, जहां यह नहीं कहा जा सकता कि “कहीं खुशी-कहीं गम”। यहां तो हर जगह खुशी और गम ने बराबरी से कब्जा जमा रखा है। इस मतदान ने परिणाम आने तक सभी तरफ खुशी को नाचने-झूमने का पूरा मौका दे रखा है तो सभी तरफ गम को खूब दर्द भरे गाने गुनगुनाने की छूट दे रखी है। “झूम-झूम के नाचो आज, गाओ खुशी के गीत रे” को भी खूब दिल लगाके सुनने,गाने और नाचने की छूट है, तो “कोई हमदम न रहा, कोई सहारा न रहा, हम किसी के न रहे, कोई हमारा न रहा” जैसे गम भरे गानों के साथ भी जीने का पूरा हक है।
वजह वही है कि मैदान में आमने-सामने टकरा रहे चेहरों में दम है और मतदान प्रतिशत कम हो या ज्यादा लेकिन परिणाम आने तक जीत का अपना-अपना पूरा विश्वास भरा वहम कतई हार मानने को तैयार नहीं है। इसीलिए सभी तरफ खुशी ने पैर पसारे हुए हैं लेकिन इसके साथ ही सभी तरफ गम का साया भी बराबरी से अपनी जगह बनाए हुए है। परिणाम आएगा तो एक जगह जीत के रूप में खुशी की रोशनी अपनी छटा बिखेरती रहेगी, तो दूसरी जगह खुशी का स्विच ऑफ होकर गम का स्विच कुछ पल के लिए ऑन हो जाएगा। और राजनीति तो रंगमंच का ऐसा प्लेटफार्म हैं, जहां एक-दूसरे पर गुर्राते-गुर्राते नेता कब अभिनेता बन एक-दूसरे के गले लग जाते हैं…पता ही नहीं चलता। ऐसे में सभी तरफ हमेशा ही खुशियां ही खुशियां आबाद रहती हैं और सुविधाओं और पहुंच से वंचित मतदाता एक बार फिर अगले चुनाव तक गमों की पोटली सिर पर रखकर ढोता रहता है।