यहाँ दरख्तों के साये में धूप लगती है…

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यहाँ दरख्तों के साये में धूप लगती है…

कौशल किशोर चतुर्वेदी

यहाँ दरख्तों के साये में धूप लगती है, चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए…। यह शेर कवि दुष्यंत कुमार त्यागी का है। वह मध्यप्रदेश के संस्कृति विभाग के अंतर्गत भाषा विभाग में रहे। आपातकाल के समय उनका कविमन क्षुब्ध और आक्रोशित हो उठा जिसकी अभिव्यक्ति कुछ कालजयी ग़ज़लों के रूप में हुई, जो उनके ग़ज़ल संग्रह ‘साये में धूप’ का हिस्सा बनीं।सरकारी सेवा में रहते हुए सरकार विरोधी काव्य रचना के कारण उन्हें सरकार का कोपभाजन भी बनना पड़ा। 1975 में उनका प्रसिद्ध ग़ज़ल संग्रह ‘साये में धूप’ प्रकाशित हुआ। इसकी ग़ज़लों को इतनी लोकप्रियता हासिल हुई कि उसके कई शेर कहावतों और मुहावरों के तौर पर लोगों द्वारा व्यवहृत होते हैं। 52 ग़ज़लों की इस लघुपुस्तिका को युवामन की गीता कहा जाय, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।

दुष्यंत कुमार त्यागी का हर शेर जब भी मौजूं था और अब भी मौजूं है। उस समय के राजनीतिक और सामाजिक हालातों से क्षुब्ध त्यागी की पीड़ा को उनके शेरों में बखूबी देखा जा सकता है और महसूस किया जा सकता है। इसी संग्रह में त्यागी के कुछ और शेरों का साल के अंतिम दिनों में आनंद लेते हैं।

‘मत कहो आकाश में कुहरा घना है, यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है।’

‘हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए, इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।’

‘मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही, हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।’

‘कैसे आकाश में सूराख नहीं हो सकता, एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो।’

‘खास सड़कें बंद हैं कबसे मरम्मत के लिए, ये हमारे वक्त की सबसे सही पहचान है।’

‘मस्लहत आमेज़ होते हैं सियासत के कदम, तू न समझेगा सियासत तू अभी इंसान है।’

‘कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए, मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिंदुस्तान है।’

‘होने लगी है जिस्म में जुम्बिश तो देखिए, इस परकटे परिंदे की कोशिश तो देखिए।’

‘गूँगे निकल पड़े हैं जुबाँ की तलाश में, सरकार के ख़िलाफ़ ये साज़िश तो देखिए।’

तब के सियासी हालातों से पीड़ित कवि त्यागी की पीड़ा इन शेरों में बखूबी झलकती है। दुष्यंत कुमार का जन्‍म उत्तर प्रदेश में बिजनौर जनपद की तहसील नजीबाबाद के ग्राम राजपुर नवादा में हुआ था। जिस समय दुष्यंत कुमार ने साहित्य की दुनिया में अपने कदम रखे उस समय भोपाल के दो प्रगतिशील शायरों ताज भोपाली तथा क़ैफ़ भोपाली का ग़ज़लों की दुनिया पर राज था। हिन्दी में भी उस समय अज्ञेय तथा गजानन माधव मुक्तिबोध की कठिन कविताओं का बोलबाला था। उस समय आम आदमी के लिए नागार्जुन तथा धूमिल जैसे कुछ कवि ही बच गए थे। इस समय सिर्फ़ 44 वर्ष के जीवन में दुष्यंत कुमार ने अपार ख्याति अर्जित की थी। उनके पिता का नाम भगवत सहाय और माता का नाम रामकिशोरी देवी था। प्रारम्भिक शिक्षा गाँव की पाठशाला तथा माध्यमिक शिक्षा नहटौर (हाईस्कूल) और चंदौली (इंटरमीडिएट) से हुई। उन्होंने दसवीं कक्षा से कविता लिखना प्रारम्भ कर दिया था। इंटरमीडिएट करने के दौरान ही राजेश्वरी कौशिक से विवाह हुआ। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिंदी में बी०ए० और एम०ए० किया। डॉ० धीरेन्द्र वर्मा और डॉ० रामकुमार वर्मा का सान्निध्य प्राप्त हुआ। 30 दिसंबर 1975 की रात्रि में हृदयाघात से उनकी असमय मृत्यु हो गई थी।

निदा फ़ाज़ली उनके बारे में सही ही लिखते हैं…

“दुष्यंत की नज़र उनके युग की नई पीढ़ी के ग़ुस्से और नाराज़गी से सजी बनी है। यह ग़ुस्सा और नाराज़गी उस अन्याय और राजनीति के कुकर्मो के ख़िलाफ़ नए तेवरों की आवाज़ थी, जो समाज में मध्यवर्गीय झूठेपन की जगह पिछड़े वर्ग की मेहनत और दया की नुमाइंदगी करती है।”

सत्ता के अन्याय के खिलाफ बागी तेवरों की दबंग आवाज़ दुष्यंत कुमार थे, हैं और रहेंगे। उनकी गजलें और लेखनी इसका

प्रमाण हैं…।