कर्नाटक में ऐतिहासिक हो रही राजनीतिक सत्ता की लड़ाई

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कर्नाटक में ऐतिहासिक हो रही राजनीतिक सत्ता की लड़ाई

कर्नाटक अपने ऐतिहासिक स्मारकों और संस्कृतियों के लिए बहुत प्रसिद्ध है।  कर्नाटक के अधिकांश स्मारकों के महान ऐतिहासिक संबंध हैं। टीपू सुल्तान पैलेस, मैसूर पैलेस मैसूर के राजा के बारे में एक महान इतिहास को दर्शाता है, जिन्होंने कभी इस क्षेत्र को हासिल करने से अंग्रेजों को हराया था।कर्नाटक राज्य पर नंद साम्राज्य, मौर्य साम्राज्य, सातवाहन, कदंब, पश्चिमी गंगा, बादामी चालुक्य, राष्ट्रकूट साम्राज्य, पश्चिमी चालुक्य साम्राज्य और चोल का शासन रहा है, हम्पी यहां यूनेस्को की विश्व धरोहर स्थल में से एक है। राज्य की अखंडता में कई पुराने मंदिरों, पुराने स्मारकों का बहुत बड़ा योगदान है।मैसूर पैलेस, चामुंडेश्वरी मंदिर, गुफा मंदिर और कई अन्य प्राचीन स्मारक जैसे अधिकांश स्थान कर्नाटक की कला और संस्कृति परंपरा को परिभाषित करते हैं। बैंगलोर को  सिलिकॉन सिटी के रूप में भी जाना जाता है, जो दुनिया की कई शीर्ष कंपनियों को आकर्षित करती  है। लेकिन इस बार लोकतान्त्रिक ढंग से सत्ता के लिए हो रही चुनावी लड़ाई से  एक नया अध्याय लिखता दिखाई दे रहा है | संभवतः अब तक देश में हुए विधान सभाओं के चुनावों की तुलना में धन बल का सर्वाधिक असर दिख रहा है | कांग्रेस अपने अस्तित्व और भविष्य के लिए अधिकाधिक संसाधन और नेताओं को दांव पर लगा रही है | वहीं भारतीय जनता पार्टी भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों वाले कद्दावर नेताओं को बाहर भेजकर अपने विकास और जन कल्याण कार्यों तथा प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के धुंआधार प्रचार अभियान पर विजय पताका फहराना छह रही है | आज तक किसी प्रधान मंत्री ने कर्नाटक में न तो इतनी यात्राएं की और न ही इस तरह का चुनावी अभियान चलाया | पुराने महारथियों में येदुरप्पा , देवेगौड़ा , सीतारमैया के लिए यह अंतिम शक्ति परीक्षा है |

 यदि धन बल की बात करें तो चुनाव की आदर्श आचार संहिता लागू होने के बाद से अब तक  राज्य में  305 करोड़ रुपए की नकदी और सामान जब्त किया गया है।  2018 के चुनावों के दौरान, चुनावों में कुल जब्ती 83 करोड़ रुपए थी। इस साल के चुनावों से पहले बरामदगी में नकद (110 करोड़), शराब (74 करोड़), सोना और चांदी (81 करोड़), मुफ्त उपहार (22 करोड़) और ड्रग्स/नशीले पदार्थ (18 करोड़) शामिल हैं।  चुनाव की घोषणा से पहले करीब 58 करोड़ रुपये  की जब्ती की गई थी।

 पिछले अनुभव को याद करें तो भारतीय जनता पार्टी  के लिए कर्नाटक में सत्ता तक पहुंचने का सफर काफी संघर्षपूर्ण रहा है।  2008 में बीजेपी पहली बार सरकार में आई थी। 2008 के विधानसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी के इतिहास रचा। बीजेपी ने 110 सीटों पर कब्जा कर बीएस येदियुरप्पा के नेतृत्व में सरकार बनाई। कर्नाटक के साथ दक्षिण भारत में पहली बार बीजेपी पहली बार सरकार बनाने में सफल हुई।वैसे इसके पहले बीजेपी राज्य में सत्ता का स्वाद गठबंधन में रहकर चख चुकी थी। जब 2006 के विधानसभा चुनाव हुए तो बीजेपी राज्य की सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी, बहुमत की कमी के चलते वो सरकार नहीं बना पाई थी। बाद में गठबंधन करके कांग्रेस और जेडीएस ने मिलकर सत्ता संभाली। हालांकि कुछ समय बाद कांग्रेस का साथ छोड़कर जेडीएस ने बीजेपी से गठबंधन किया और कुमारस्वामी के नेतृत्व में बीजेपी-जेडीएस की सरकार बनी।

2008 के बाद  बीजेपी को सत्ता के लिए तरसना पड़ गया था। 2013 में महज 40 सीटें बीजेपी को मिलीं। हालांकि 2018 के चुनावों में बीजेपी 104 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी। बावजूद इसके बीजेपी सरकार नहीं बना पाई थी। एचडी कुमारस्वामी 2018 के बाद कांग्रेस के सहयोग से मुख्यमंत्री बने। हालांकि 2019 में हुए राजनीतिक उलटफेर ने बीजेपी को सरकार में आने का मौका दे दिया। फिलहाल राज्य की सत्ता चला रही बीजेपी इस बार अकेले चुनावी मैदान में है। बीजेपी के सामने इस चुनाव में राज्य के सत्ता परिवर्तन के ट्रेंड तोड़ने के साथ सरकार में वापसी की चुनौती  है।

बीजेपी की तरह कांग्रेस भी कर्नाटक में अपने दम पर चुनावी मैदान में उतरी है। कांग्रेस को राज्य में इस बार सत्ता हासिल करने की उम्मीद है। हालांकि देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस के लिए कर्नाटक एक मजबूत गढ़ रहा है। 1952 से 1983 तक मैसूर (मौजूदा कर्नाटक) में कांग्रेस की सरकार रही। 1983 के चुनाव में कांग्रेस पहली बार सत्ता से बाहर हुई है। उस समय जनता दल ने कांग्रेस को हराया था। हालांकि कांग्रेस के लिए सत्ता का ये सूखा ज्यादा दिन नहीं रहा। साल 1989 में जब चुनाव हुए तो कांग्रेस ने फिर जबरदस्त जीत के साथ सत्ता में वापसी की।

1989 में कांग्रेस ने ना सिर्फ सत्ता में वापसी की, बल्कि ऐसा रिकॉर्ड बना दिया, जिसे कोई दल अभी तक तोड़ नहीं सका है। राज्य के इतिहास में वो सबसे ज्यादा जीत थी। कांग्रेस ने 178 सीटें जीतने का रिकॉर्ड बनाया। इसके बाद 1999 के चुनाव में कांग्रेस ने 132 सीटें जीतकर सत्ता में वापसी की। 2004 में मिली हार के बाद अगले चुनाव (2006) में कांग्रेस फिर से जेडीएस के साथ सरकार का हिस्सा बनीं। हालांकि इस सरकार का नेतृत्व पहली बार गैर-कांग्रेसी नेता ने किया था। 2013 में हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने पूर्ण बहुमत के साथ फिर सत्ता में वापसी की। इसके बाद 2018 में कांग्रेस ने जेडीएस के साथ सरकार बनाई थी।

कर्नाटक का क्षेत्रीय दल जेडीएस   बीजेपी और कांग्रेस को इस चुनाव में टक्कर देता दिखाई पड़ रहा है। इस दल की मौजूदगी से राज्य में मुकाबला त्रिकोणीय हो गया है। कर्नाटक में जेडीएस की मजबूत पकड़ है। पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा ने 1999 में इस पार्टी का गठन किया था। 2006 में कर्नाटक में पहली बार जेडीएस की सरकार बनी। एचडी कुमारस्वामी के नेतृत्व में कांग्रेस के साथ मिलकर जेडीएस सत्ता पर काबिज हुई। राज्य में ये पहली गठबंधन की सरकार थी। जेडीएस को 2018 में दोबारा सत्ता में वापसी का मौका मिला।

राज्य की 224 विधानसभा सीटों में से आधी पर 2004 से भाजपा और कांग्रेस के बीच सीधा मुकाबला होता रहा है और भाजपा ने इन सीटों पर 60 फीसदी का स्ट्राइक रेट बरकरार रखा है | इसी तरह, 2004 से अब तक जिन सीटों पर कांग्रेस और जेडीएस के बीच सीधा मुकाबला देखा गया, उनमें एच.डी. देवेगौड़ा के नेतृत्व वाली पार्टी ने 52 प्रतिशत का स्ट्राइक रेट बनाए रखा है |2004 में ‘बदलाव प्रक्रिया के दौरान वाला चुनाव’ था जब प्राथमिक मुकाबला कांग्रेस बनाम जेडीएस की जगह कांग्रेस बनाम भाजपा बन गया. उस साल चुनाव खंडित जनादेश के साथ संपन्न हुआ था; भाजपा ने 79, कांग्रेस ने 65 और जेडीएस) ने 58 सीटें जीती थीं |सबसे अहम बात यह है कि 2004 के बाद से कोई भी पार्टी कर्नाटक में अपने दम पर 123 सीटों के बहुमत के आंकड़े को पार नहीं कर पाई है| 2013 में कांग्रेस उसके सबसे करीब आई थी, जब उसने 122 सीटें जीती थीं |

जेडीएस का केवल दक्षिणी कर्नाटक क्षेत्र में ‘खास असर’ है, जबकि कांग्रेस के वोट राज्यभर में ‘व्यापक स्तर’ पर छितराए हुए हैं |हालांकि. इससे कांग्रेस को नुकसान हुआ है लेकिन इसका सकारात्मक असर भी हो सकता है. भाजपा और जेडीएस से कांग्रेस के पक्ष में वोटों का एक मामूली स्विंग (चार प्रतिशत) 2023 में कांग्रेस पार्टी को बहुमत दे सकता है | इस अंतर का ही नतीजा है कि कर्नाटक में भाजपा-कांग्रेस और जेडीएस-कांग्रेस के बीच सीधी टक्कर देखने को मिलती है |पिछले चार विधानसभा चुनावों 2004, 2008, 2013 और 2018, में कुल 896 सीटों में से कम से कम 754 पर तीनों पार्टियों के बीच सीधा मुकाबला दिखा | इन सभी 754 में लगभग एक चौथाई या 175 सीटों पर जीत का अंतर 5,000 मतों से कम रहा |इन 754 सीटों में से जेडीएस के साथ सीधे मुकाबले में भाजपा का स्ट्राइक रेट 55 फीसदी है. यहां पर यह भी ध्यान रखना महत्वपूर्ण होगा कि दोनों पार्टियां के बीच 754 सीटों में से केवल 10 फीसदी पर सीधी टक्कर हुई | 2018 के कर्नाटक विधानसभा चुनाव में 142 सीटों पर कांग्रेस और भाजपा के बीच सीधा मुकाबला हुआ |  जब भाजपा की जीती 104 सीटों में से 85 पर कांग्रेस के उम्मीदवार दूसरे नंबर पर रहे | वहीं 78 सीटों में से 57 सीटों पर भाजपा उम्मीदवार दूसरे नंबर रहे और कांग्रेस प्रत्याशियों ने चुनाव में जीत हासिल की| इन 142 सीटों में से 20 सीटों पर जीत का अंतर 5,000 वोटों से कम था, जिसमें 15 कांग्रेस के खाते में गई थीं |

 पिछले चार विधानसभा चुनावों में से तीन में भाजपा के खाते में 80 प्रतिशत से अधिक ऐसी सीटें थीं, जिनमें कांग्रेस के साथ सीधी लड़ाई हुई थी | एकमात्र अपवाद 2013 था जब ऐसी सीटों की संख्या 67 प्रतिशत रह गई थी और कांग्रेस 122 सीटों (बहुमत से एक कम) के साथ सत्ता में आई थी |इस बीच, 2018 में कांग्रेस की झोली में 75 फीसदी सीटें ऐसी थीं, जिनमें उसका सीधा मुकाबला भाजपा के साथ था. 2013, 2008 और 2004 के विधानसभा चुनावों में यह संख्या 65 फीसदी थी |2004, 2008 और 2018 के चुनावों में जब भाजपा सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी, तो कांग्रेस के साथ सीधे मुकाबले में पार्टी का स्ट्राइक रेट 60 प्रतिशत रहा |2013 के विधानसभा चुनाव एकमात्र अपवाद थे जब सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी कांग्रेस का भाजपा के साथ सीधे मुकाबले वाली सीटों पर स्ट्राइक रेट 65 प्रतिशत रहा था | जिन सीटों पर जेडीएस नंबर दो पर है, उनकी संख्या बहुत कम है. चूंकि जेडीएस बहुत कम सीटों पर सीधे मुकाबले में है, इसलिए जाहिर तौर पर मुकाबला मुख्य रूप से कांग्रेस और भाजपा के बीच ही है |2018 में भाजपा और जेडीएस के बीच 26 सीटों पर सीधा मुकाबला हुआ, जबकि 2013, 2008 और 2004 में ऐसी सीटों की संख्या कम थी. 26 सीटों में से 17 सीटों (65 प्रतिशत) पर भाजपा जीती और जेडीएस प्रत्याशी उपविजेता रहे, जबकि नौ सीटों (यानी 35 प्रतिशत) पर जेडीएस के प्रत्याशी जीते और भाजपा उपविजेता रही.

उत्तरी और मध्य कर्नाटक में मजबूती से पैर जमा चुकी भाजपा अब राज्य के दक्षिणी जिलों में पैठ बनाने की कोशिश कर रही है—जिसे जेडीएस का गढ़ माना जाता है | 2018 के चुनावों में वोक्कालिगा-बहुल दक्षिणी कर्नाटक की 46 सीटों में से जेडीएस ने 25 और भाजपा ने 11 पर जीत हासिल की थी, जबकि 2013 में भाजपा ने यहां तीन सीटें ही जीती थीं. पिछले चार विधानसभा चुनावों में भाजपा ने अपने पूर्व सहयोगी जेडीएस के खिलाफ अपना स्ट्राइक रेट बेहतर किया है जो 2004 में 31.25 प्रतिशत से बढ़कर 2018 में 65 प्रतिशत पर पहुंच गया.  |

दूसरी ओर, जेडीएस ने 2018 में भाजपा के साथ सीधे मुकाबले वाली सभी सीटों में से 25 प्रतिशत पर जीत हासिल की. जेडीएस के लिए, जिन सीटों पर उसका भाजपा के साथ सीधा मुकाबला था भाजपा के 16 प्रतिशत की तुलना में इसकी टैली 25 प्रतिशत रही | एच.डी. देवेगौड़ा के नेतृत्व वाली पार्टी की मुख्य ताकत दक्षिणी कर्नाटक का पुराना मैसूर क्षेत्र है. पिछले 20 वर्षों में, जेडीएस का वोट शेयर 19 से 21 प्रतिशत पर स्थिर रहा है | उत्तरी और तटीय कर्नाटक में भाजपा की उपस्थिति के साथ इसे भी ध्यान में रखा गया, यही वजह है कि कांग्रेस-भाजपा के सीधे मुकाबलों की तुलना में सत्तारूढ़ दल और जेडीएस के बीच सीधे मुकाबले वाली सीटें कम हैं | भाजपा और कांग्रेस के बीच सीधे मुकाबले वाली सीटों का जो नतीजा रहता है, उसी तरह कांग्रेस के साथ सीधे मुकाबले वाली सीटों में जेडीएस भी दो-तिहाई (65-72 प्रतिशत) सीटें जीतती है | कांग्रेस के लिए यह संख्या एक तिहाई (27-35 फीसदी) से कम है.हालांकि, सीधे मुकाबले के दौरान दोनों पार्टियों का स्ट्राइक रेट एक जैसा नहीं रहा है |2008 और 2013 में जेडीएस के खिलाफ कांग्रेस का स्ट्राइक रेट 60 प्रतिशत था जो कि 2004 और 2018 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के खिलाफ जेडीएस के स्ट्राइक रेट के बराबर था | 2019 के लोकसभा चुनावों में भाजपा ने पुराने मैसूर क्षेत्र में पैठ बनाने का नतीजा क्या हुआ. दरअसल भाजपा ने यहां मूलत: जेडीएस के क्षेत्रों में अपने पैर जमाए | इससे कांग्रेस उतनी प्रभावित नहीं हुई जितना असर जेडीएस पर पड़ा | अब यदि जे डी एस कांग्रेस को नुकसान पहुंचा पाई , तो भाजपा का रास्ता अधिक सुगम हो सकेगा | मतदाता सारे समीकरणों को बदलने की अद्भुत क्षमता दिखा सकते हैं |

Author profile
ALOK MEHTA
आलोक मेहता

आलोक मेहता एक भारतीय पत्रकार, टीवी प्रसारक और लेखक हैं। 2009 में, उन्हें भारत सरकार से पद्म श्री का नागरिक सम्मान मिला। मेहताजी के काम ने हमेशा सामाजिक कल्याण के मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया है।

7  सितम्बर 1952  को मध्यप्रदेश के उज्जैन में जन्में आलोक मेहता का पत्रकारिता में सक्रिय रहने का यह पांचवां दशक है। नई दूनिया, हिंदुस्तान समाचार, साप्ताहिक हिंदुस्तान, दिनमान में राजनितिक संवाददाता के रूप में कार्य करने के बाद  वौइस् ऑफ़ जर्मनी, कोलोन में रहे। भारत लौटकर  नवभारत टाइम्स, , दैनिक भास्कर, दैनिक हिंदुस्तान, आउटलुक साप्ताहिक व नै दुनिया में संपादक रहे ।

भारत सरकार के राष्ट्रीय एकता परिषद् के सदस्य, एडिटर गिल्ड ऑफ़ इंडिया के पूर्व अध्यक्ष व महासचिव, रेडियो तथा टीवी चैनलों पर नियमित कार्यक्रमों का प्रसारण किया। लगभग 40 देशों की यात्रायें, अनेक प्रधानमंत्रियों, राष्ट्राध्यक्षों व नेताओं से भेंटवार्ताएं की ।

प्रमुख पुस्तकों में"Naman Narmada- Obeisance to Narmada [2], Social Reforms In India , कलम के सेनापति [3], "पत्रकारिता की लक्ष्मण रेखा" (2000), [4] Indian Journalism Keeping it clean [5], सफर सुहाना दुनिया का [6], चिड़िया फिर नहीं चहकी (कहानी संग्रह), Bird did not Sing Yet Again (छोटी कहानियों का संग्रह), भारत के राष्ट्रपति (राजेंद्र प्रसाद से प्रतिभा पाटिल तक), नामी चेहरे यादगार मुलाकातें ( Interviews of Prominent personalities), तब और अब, [7] स्मृतियाँ ही स्मृतियाँ (TRAVELOGUES OF INDIA AND EUROPE), [8]चरित्र और चेहरे, आस्था का आँगन, सिंहासन का न्याय, आधुनिक भारत : परम्परा और भविष्य इनकी बहुचर्चित पुस्तकें हैं | उनके पुरस्कारों में पदम श्री, विक्रम विश्वविद्यालय द्वारा डी.लिट, भारतेन्दु हरिश्चंद्र पुरस्कार, गणेश शंकर विद्यार्थी पुरस्कार, पत्रकारिता भूषण पुरस्कार, हल्दीघाटी सम्मान,  राष्ट्रीय सद्भावना पुरस्कार, राष्ट्रीय तुलसी पुरस्कार, इंदिरा प्रियदर्शनी पुरस्कार आदि शामिल हैं ।