Silver Screen: सच्चाई से अलग है फिल्मों में गढ़ा इतिहास!

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इतिहास की तथ्यात्मकता पर किसी को कभी संदेह नहीं होता। क्योंकि, कहीं न कहीं उस इतिहास के प्रमाण किताबों में मौजूद होते हैं। हर देश का अपना इतिहास होता है, उसी तरह हमारे देश का भी सदियों पुराना इतिहास है। हमारे इतिहास में रोचकता का पुट ज्यादा है, क्योंकि यहाँ कई पड़ौसी देशों के शासकों ने घुसपैठ की!
हमारे राजाओं से उनकी लम्बी लड़ाइयां हुई और फिर अंग्रेजों के शासनकाल में भी ये इतिहास कुछ अलग तरह से नजर आया। लेकिन, वो इतिहास हमारे उस फ़िल्मी इतिहास से बहुत अलग है, जो परदे पर दिखाया जाता रहा है। इतिहास की एक छोटी सी घटना को फ़िल्मी कथानक बनाकर दर्शकों के सामने परोसा जाता रहा है। फ़िल्मी इतिहास में हमेशा की तरह नायक अजेय रहता है और प्रेम उसके चरित्र का हिस्सा होता है।
अभी तक इतिहास को दर्शाने वाली जितनी भी फ़िल्में बनी, सभी वास्तविक इतिहास से बहुत परे रहीं! ऐसी फिल्मों में ‘मुग़ले आजम’ भी बनी, जिनका इतिहास से कोई वास्ता नहीं रहा! ये पूरी तरह काल्पनिक कथानक था, जिसे दर्शकों ने सच्ची कहानी समझा! दरअसल, इन फिल्मों के कथानकों को दर्शकों की पसंद के अनुसार ढाला जाता रहा है।
यही कारण रहा कि कई ऐसी फिल्मों की कहानियों पर उंगली भी उठाई गई, जिनकी ऐतिहासिकता में सत्यता का दावा किया गया था।
    आजादी से पहले और बाद में बनी ऐतिहासिक फ़िल्में वास्तविकता के कितने करीब होती हैं, इसका कोई दावा नहीं कर सकता। क्योंकि, इन फिल्मों को इतिहास के तथ्यात्मक साक्ष्य के रूप में कभी नहीं देखा गया। इतिहास के जानकारों का कहना है कि ऐतिहासिक फिल्में ज्यादातर किस्सों और किंवदंतियों के आधार पर गढ़ी जाती हैं।
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इनमें कभी इतिहास की प्रामाणिकता नहीं खोजा जा सकता। दर्शकों को बांधने के लिए लेखक कई स्रोतों से सामग्री जुटाते हैं। इसीलिए कहा जाता है कि फिल्मों में दिखाया जाने वाला इतिहास कभी अधिकृत नहीं होता। फ़िल्मकार फ़िल्मी इतिहास को रोमांटिक बनाकर उसे नॉस्टेल्जिया की तरह पेश करते हैं।
सामान्यतः ऐसी फिल्मों में प्रासंगिकता से ज्यादा दर्शकों का ध्यान रखा जाता है। रिश्तों और संबंधों के लिहाज से सबकुछ फिल्मी होता है। इन फिल्मों का सबसे बड़ा आकर्षण होता है भव्य फिल्मांकन, बड़े-बड़े आलिशान सेट और युद्ध के लम्बे दृश्य।
   इतिहास के फिल्मीकरण के भी दो तरह के पहलू रहे हैं। एक आजादी से पहले वाला, दूसरा आजादी के बाद वाला! आजादी से पहले देश के इतिहास को देखने और दिखाने का नजरिया अलग था। दर्शकों में यह अहसास भरा जाता था, कि हमारा इतिहास गौरवपूर्ण था। फिल्मकारों की यह भावना भी रहती थी, कि ऐसी फ़िल्में अंग्रेजों शासकों के खिलाफ दर्शकों को प्रेरित करें।
यही कारण रहा कि कई बार फिल्मकारों को सेंसर से जूझना पड़ता था। सेंसर के दबाव में कई फिल्मों के नाम और गीत बदले गए थे। उस समय राष्ट्रीय भावनाएं भी चरम पर थी। ऐसे में स्वाभाविक है, कि फ़िल्मकारों में भी वही भावनाएं होंगी। आज़ादी से पहले कई ऐसी फ़िल्में बनी जिनका वास्ता इतिहास से रहा। इनमें ‘बाबर’ के निर्देशक वजाहत मिर्ज़ा थे। कमल रॉय ने ‘शहंशाह अकबर’ बनाई थी।
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महबूब खान ने ‘हुमायूं’, एआर कारदार ने ‘शहंशाह’, जयंत देसाई ने ‘तानसेन और ‘चन्द्रगुप्त’ बनाई थी। इस समय काल में ‘रामशास्त्री’ (1944) भी एक यादगार फिल्म थी। इसमें गजानन जागीरदार ने जज रामशास्त्री की भूमिका निभाई थी। रामशास्त्री ने एक पेशवा को उसके भतीजे की हत्या के जुर्म में  सजा दी थी। इस दौर में हिमांशु राय और देविका रानी की ‘कर्मा’, जेबीएच वाडिया की ‘लाल-ए-यमन’, देवकी बोस की ‘पूरण भगत’ और ‘मीरा बाई’ फ़िल्में भी 1933 में आईं।
ये वे फ़िल्में थीं, जिनका कथानक देशी और विदेशी राज परिवारों से संबंधित था। पीसी बरुआ की ‘रूप लेखा’ में केएल सहगल ने सम्राट अशोक की भूमिका निभाई थी। पसंद की गई कुछ मूक ऐतिहासिक फिल्मों को बाद में बोलती फिल्मों के रूप में भी बनाया गया। 1930 में बनी ‘आदिल-ए-जहांगीर’ को 1934 में फिर बनाया गया। रोचक बात यह है कि 1955 में जीपी सिप्पी ने इसी कहानी पर प्रदीप कुमार और मीना कुमारी के साथ इस फिर को फिर से बनाया था।
     देश की आज़ादी से पहले मुंबई, पुणे और कोल्हापुर फिल्म निर्माण के प्रमुख केंद्र थे। मराठी फिल्मकारों ने इन फिल्मों में मराठा इतिहास और समाज के चरित्रों को प्रमुखता दी। मराठी के साथ उन्होंने हिंदी में भी ऐसी फिल्मों का निर्माण किया था। इनमें वी शांताराम, दामले और जयंत देसाई जैसे नाम प्रमुख थे।
उन्होंने पेशवाओं, सेनापतियों और राज साम्राज्यों से जुड़े कई व्यक्तियों पर फ़िल्में बनाई। ये वे फ़िल्में थीं, जिनमें अंग्रेजी साम्राज्य में देश की अस्मिता और गौरव के रूप में भी प्रकट होती थीं। इसी समय काल में एआर कारदार ने ‘चन्द्रगुप्त’ फिल्म बनाई। इस फिल्म में गुल हामिद, सबिता देवी और नज़ीर अहमद खान ने भूमिकाएं निभाई थीं।
इसकी सफलता ने एआर कारदार को कोलकाता में स्थापित कर दिया था। केएल सहगल के साथ पहाड़ी सान्याल और प्रेमांकुर एटोर्थी ने ‘यहूदी की लड़की’ का निर्देशन किया। यह फिल्म एक कश्मीरी के नाटक पर बनी थी।
      सोहराब मोदी की 1939 में आई फिल्म ‘पुकार’ की कहानी बादशाह जहांगीर के न्याय पर बनी थी। आजादी से पहले उन्होंने सिकंदर, पृथ्वी वल्लभ, झांसी की रानी, मिर्जा ग़ालिब और ‘एक दिन का सुलतान’ जैसी फ़िल्में बनाई। उन्होंने भव्य फिल्मों से ऐतिहासिक फिल्मों का ऐसा मानदंड स्थापित किया था, जो मिसाल बन गया। लेकिन, उनकी फिल्मों में भी इतिहास कम और ड्रामा ज्यादा होता था।
‘सिकंदर’ उनकी सबसे सफल फिल्मों में एक थी। 1953 में बनी ‘झांसी की रानी’ का निर्देशन भी सोहराब मोदी ने ही किया था। यह फिल्म अंग्रेजी भाषा में भी डब की गई थी, जिसे 1956 में रिलीज किया गया। 1960 में बनी ‘मुगले आजम’ इस कथानक की सबसे सफल फिल्मों में एक है। यह फिल्म रिलीज तो 1960 में हुई थी, लेकिन इस पर काम 1944 में ही शुरू हो गया था।
     आज के संदर्भ में ऐतिहासिक फिल्मों को देखा जाए तो आशुतोष गोवारिकर की फिल्म ‘पानीपत’ में 17वीं शताब्दी में अफगान सेना और मराठों के बीच हुई पानीपत की जंग को दर्शाया गया था। ‘तख्त’ में भी ऐतिहासिकता का पुट था। जबकि, ‘पृथ्वीराज चौहान’ अभी आने वाली है। मणिकर्णिका, पद्मावत और ‘बाजीराव मस्तानी’ फिल्में रिलीज हो चुकी है।
1983 में बनी ‘रजिया सुल्तान’ का निर्देशन और लेखन कमाल अमरोही ने किया था। महिला सुल्तान के पर आधारित इस फिल्म में उसे एक दास से प्यार हो जाता है, जिसके चलते वह राजपाट खो देती है। इसके बाद 2001 में ‘अशोका’ बनी। इसमें शाहरुख खान ने सम्राट अशोक का किरदार निभाया था। 2005 में आई ‘मंगल पांडे’ का कथानक क्रांतिकारी मंगल पांडे की 1857 की क्रांति पर आधारित था। फिल्म में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया के भारतीय मूल के सिपाही मंगल पांडे का किरदार आमिर खान ने निभाया था।
     2008 में आई ‘जोधा अकबर’ का निर्देशन आशुतोष गोवारिकर ने किया था। इसमें ऋतिक रोशन और ऐश्वर्या राय ने मुख्य किरदार निभाए थे। 2015 में बनी ‘बाजीराव मस्तानी’ की कहानी पेशवा बाजीराव और उसकी दूसरी पत्नी मस्तानी के पर बनी है। संजय लीला भंसाली की इस फिल्म में रणवीर सिंह और दीपिका पादुकोण ने मुख्य किरदार निभाए हैं। 2018 में आई संजय लीला भंसाली की ही ‘पद्मावत’ को लेकर काफी विवाद हुआ था।
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शुरू में फिल्म का नाम ‘पद्मावती’ रखा गया था। फिल्म में दीपिका पादुकोण, रणवीर सिंह और शाहिद कपूर मुख्य किरदार में थे। 2019 में आई ‘मणिकर्णिका: द क्वीन ऑफ झांसी’ में कंगना रनौत ने रानी लक्ष्मीबाई का किरदार निभाया है। यह फिल्म 1857 की क्रांति पर बनी थी। आज़ादी के पहले बनी ऐतिहासिक फिल्मों ने जरूर मनोरंजन के साथ इतिहास से परिचय कराया। लेकिन, ऐसी फ़िल्में महज दर्शकों की संतुष्टि के लिए होती है।
वास्तव में तो ये ऐतिहासिक फिल्में सच्ची घटनाओं की काल्पनिक कहानियां कही जा सकती है, इससे ज्यादा कुछ नहीं! इसलिए फिल्मकारों की सोच और मानसिकता को ध्यान में रखें, तो इन ऐतिहासिक फिल्मों को लेकर होने वाले विवादों की सच्चाई आसानी से समझी जा सकती है।