होली की हुड़दंग और रंगों की मस्ती

793

अभी तो होली की हुड़दंग और रंगों की मस्ती में सब डूबे हुए हैं। प्रदेश के उन क्षेत्रों में जहाँ गेर निकालने की परम्परा है वहाँ अभी रंगपंचमी की धूम मचना बाक़ी है। कोरोना महामारी के दौर में लोग होली का आनन्द नहीं ले पाए थे, पर इस बार ईश कृपा से सभी ने जम के रंग गुलाल उड़ाया है।

होली त्योहार ही है ऐसा कि हर कोई इसकी मस्ती में डूब जाता है, पर सही कहें तो बच्चों में जैसा जज़्बा और उत्साह होली को लेकर होता है वो हम वयस्कों में नहीं होता। कटनी, जो कि मेरा गृहनगर है, में होली के दिन हम सभी मित्र इकट्ठा होते।

शुरुआत मेरे घर से होती और फिर एक एक कर रास्ते में जो भी दोस्त मिलता उसे रंग लगाने और अपने जैसा कलरफुल बनाने की क़वायद शुरू होती। मुसीबत बिचारे राकेश अग्रवाल की होती जिसका घर सबसे आख़िर में पड़ता था, क्योंकि उसे रंग लगाने का दायित्व सभी रंगे हुरीयारे अपना परम कर्तव्य मानते थे।

नौकरी में आने के बाद तो होली के दिन क़ानून व्यवस्था के इंतजाम देखने के चक्कर में होली गुलाल तक ही सीमित रह गयी पर ये अलिखित व्यवस्था थी कि होली के दूसरे दिन सरकारी कर्मियों की होली होती थी।

होली के दिन भांग और ठंडाई का भी रिवाज है, पर सच कहूँ तो ये भांग का नशा तो मैंने एक बार ही किया था और वो भी तब जबकि किशोर अवस्था थी।

जबलपुर की पी एंड टी कालोनी में हम रहा करते थे और एक बार होली के अवसर पर घर के सभी लोग नाना के यहाँ चले गए, सिवा मैं और मेरे छोटे भाई अशोक के जिनकी परीक्षा होली के तत्काल बाद ही शुरु होनी थी।

रात को कॉलोनी में आयोजित होलिका दहन के अवसर पर हम दोनों भाईयों ने भाँग मिश्रित ठंडाई का जम कर सेवन कर लिया और जब दरवाज़ा जम के खटखटाया गया तो पता लगा हम दो दिनों तक सोते रहे थे।

इसके बाद मैंने तो भाँग से हाथ जोड़ लिए पर बाद में मेरी पोस्टिंग उज्जैन में ही हुई जहाँ मध्यप्रदेश में सबसे ज़्यादा भाँग की खपत है।

उज्जैन में जब मैं खाचरोद अनुविभाग का एस. डी. एम. था और होली के दूसरे दिन सुबह घर के बाहर टहल रहा था तो मैंने देखा मेरे घर के समीप रहने वाले नायब तहसीलदार के घर से कोई एक थैले में सामान भरे चुपचाप निकल रहा है।

मुझे शक हुआ तो मैंने उसे आवाज़ देकर रुकने को कहा और पास खड़े होमगार्ड के सैनिक को उसे अपने पास लाने को कहा। पास आने पर मैंने कहा इसके थैले की तलाशी लो तो वो और घबरा गया बोला सर आप ग़लत ना समझें मैं तो फ़लाँ हलके का पटवारी हूँ, साहब के पास सरकारी काम से आया था पर देखा कि साहब घर में बेसुध पड़े हुए हैं, हिलडुल भी नहीं रहे हैं तो मैं डर के मारे निकल अपने घर वापस जा रहा था।

मैंने सैनिक को नायब साहब के घर भेजा और तहसीलदार और ब्लाक मेडिकल आफ़िसर को फ़ोन किया।

थोड़ी देर में ही सभी लोग आ गए और नायब तहसीलदार को होश में लाया गया तो पता लगा कि बिहार का ये नौजवान नौकरी के कारण यहाँ आ गया था पर पत्नी बिहार में ही थी।

होली की ख़ुशी या पत्नी के वियोग में ये बंदा लगातार तीन दिन से मदिरा का सेवन कर रहा था। बस पीता और जब बेहोश होकर लुढ़क जाता तभी छोड़ता।

ख़ैर ये दारुण कथा उसके पिता को तहसीलदार साहब ने सुनाई और अगले ही हफ़्ते उसका परिवार संश्लिष्ट हो गया।

भांग का अगला पड़ाव तब देखने को मिला जब मेरी पदस्थापना इंदौर अपर कलेक्टर के पद पर हुई, जहाँ कलेक्टर बंगले पर धूमधाम से होली मनाने की परम्परा बड़ी पुरानी है।

उन दिनों कलेक्टर राघवेंद्र सिंह थे जो अपनी ख़ुशमिज़ाजी और बिंदास तबियत के लिए प्रसिद्ध थे। होली में हम सब तैयारी से पहुँचे और जल्द ही सब रंग से सराबोर हो गए, इस बीच ना जाने कैसे ठंडाई के प्रभाव में आए एक साथी अपर कलेक्टर को क्या सूझी कि इन्होंने सबके कुर्ते फाड़ने चालू कर दिए।

बस फिर क्या था, संचारी रोग की तरह ये उत्साह अन्य सदस्यों में भी फैल गया, नतीजा ये हुआ कि कलेक्टर और एस पी साहब को छोड़ कर थोड़ी ही देर में सब अर्धनग्न अवस्था में आ गए।

जैसे तैसे होली पूरी हुई और होली के बाद जब मैंने कलेक्टर बँगले के बाहर खड़ी अपनी कार में घर जाने के लिए दरवाज़ा खोलना चाहा तो पहली बार में तो ड्राइवर ने रंगे हुए आधे उघारे हम जैसों को तो पहचानने में ही देर लगा दी, फिर जैसे तैसे पहचाना और हम चढ़े रंग को उतारने घर की ओर रवाना हो पाये।