होली पर विशेष :श्याम म्हारा सी खेलो हो होळई

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होली पर विशेष :

श्याम म्हारा सी खेलो हो होळई

डॉ. सुमन चौरे

सुदूर ग्रमीण अंचल को छोड़कर एक ऐसे महानगर में रहने लगे जो चौबीसों घंटे जागता है, दौड़ता है। यहाँ त्यौहारों की भनक तक नहीं लगती। यहाँ की संस्कृति में हर त्यौहार को आयोजनों के नाम विशेष से पहचाना जाता है। ‘ईद मिलन’, ‘दीवाली मिलन’, ‘होली मिलन’ आदि। कुछ घण्टों के मिलन समारोह में ही त्यौहार निपट जाता है। वहीं अपनी-अपनी कॉलोनी, परिसर, रेसीडेंसी तक सीमित। ऐसे अवसरों पर एक टीम-सी उठती है- कहाँ छूट गया मेरा गाँव।

गाँव में त्यौहारों का अपना एक आनन्द- उल्लास होता है। लोक मानस चैतन्य हो उठता है, त्यौहारों की आगवानी करने को। अवसर अगर होली का हो तो प्रकृति ही मदमस्ती से आमद दर्ज करा देती है उस पर्व की, जिसमें सबकुछ बौरा उठता है। महुआ अपनी मदमस्त सुगंध से वातावरण में उन्मादी बयार फैला देता है तो आम करौंदी बौरा उठती है, वहीं अवधूत सा खड़ा पलाश भी धधक उठता है।

स्मरण हो आती है मेरे गाँव की होली। जहाँ होली का पूर्णिमा से एक माह पूर्व ही माघ पूर्णिमा को गाँव में “होली का डाँडा” गाड़ दिया जाता है। इस अवसर पर एक दिन पूर्व गाँव के पटेल पंडित से मुहूर्त पूछकर नाई से डोंडी पिटवा (ढोल बजाकर गली गली सूचना देना) देते थे। हमारे गाँव का हरिराम नाई शाम के समय हर गली के चौरास्ते पर खड़ा होकर जोर से डोंडी देता था। “काळ बारा बजे होळई को डाँडो गड़्यगो, आवजो रे लोगSSS नSS होणी। ” नियत समय पर सेठ-पटेल, पंडित औऱ आम जनता एकत्र हो जाती थी। होलिका दहन के स्थान पर पूजन कर एक दण्ड बड़ा सा लकड़ा गाड़ दिया जाता था। जिसके आसपास कण्ड जमा दिए जाते थे। फिर उस स्थान पर से ढोल- मिरदंग की थाप के साथ शिव-पार्वती विवाह के गीत गाते हुए मंदिर आते थे। एक माह तक रोज रात में लोकगीत गाए जाते थे। राधा-कृष्ण के फाग, शिव-पार्वती विवाह के गीतों के साथ ही देवर-भाभी, ननंद-भौजाई के गीत गाए गए थे। ईश्वरीय गीतों में जहाँ आध्यात्मिकता का पुट होता था वहीं सांसारिक लोक गीतों में चुटीला हास्य होता था।

होलिका की तैयारी में हम लोग जुट जाते थे। गोबर के सुन्दर-सुन्दर आभूषण बनाते थे। ‘वैड्या’ जिनको सुखाकर माला बनाकर होलिका को पहनाते थे। किसकी माला कितनी बड़ी, कितने आभूषण वाली है। गाँव में हम बच्चों में बड़ी प्रतिस्पर्धा रहती थी। पूरे गाँव में एक ही होली जलाई जाती थी। यूँ तो सब लोग स्वत: ही लकड़ी कण्डा देते थे, किन्तु होली का डाँडा गड़ते ही युवाओं में उत्साह के साथ ही शरारत पनपने लगती थी।

ऐसी मान्यता है कि होलिका दहन के लिए लकड़ी चोरी करने से होलिका प्रसन्न होती है। रात युवा टोलियाँ लोगों के घरों की लकड़ी तो खलिहानों की बागुड़ तो कच्चे दरवाजों को चुराकर होलिका पर रख देते थे। कोई कितना ही सख्त पहरा लगाकर चौकसी कर, होली के मतवारे सबकी आँखों का काजल निकाल लाते थे।

होली पर लकड़ी की चोरी को बुरा या दोषपूर्ण नहीं माना जाता था। एक बार तो युवाओं ने शरारत में अति कर दी। एक धन-सम्पन्न किसान थे। वे संतानहीन थे लेकिन बड़े भारी स्वभाव के थे। एक बार उन्होंने लड़कों को डाँट दिया कि “मेरे घर खलिहान की लकड़ी चुराई तो देख लेना।“ लड़कों ने भी कह दिया – “दाजी तुमजS देख लीजो”। इसके बाद आठ-दस युवा दबे पैर उनके घर गए। दाजी आँगन में सोये थे। उनको खटिया सहित होली के स्थान पर ले आए। उनकी नींद तब खुली,जब लड़कों ने जोर से कहा “दाजी उठो, देखो तुम कहाँ सोये हो। ”वे उठे तो भौंचक्के रह गए। किन्तु वे गुस्सा नहीं हुए। उन्होने कहा “चलो मेरा बिछौना ले चलो और खाट होली पर ही चढ़ा दो। तुम जीते मैं हारा।” ऐसा औदार्य अविस्मरणीय है। एक माह तक बहुत-सी शरारतों के बाद रात में संपूर्ण गाँव एकत्रित होता था। होलिका की पूजन कर पंडितजी और पटेल दाजी होलिका दहन करते थे। इस समय निमाड़ में बोम देने की प्रथा है। जिसमें पटेल हो या मालगुजार सब के लिए अश्लील हास्यपूर्ण काव्यतुकबंदी की जाती थी। जैसे

पटेल दाजी पातलो, पटलेण जाड़ी।

धोती खैंची न उखीs मूँछSउखाड़ी।

निमाड़ क्षेत्र में होलिका दहन वाली रात को ‘होळई फाग’ गाई जाती है। सुबह गोधूली वेला में पूरा गाँव धूलमय हो जाता है। पड़वा के दिन धूल मिट्टी और गोबर से होली खेली जाती थी। सब लोग एक-दूसरे पर गोबर के बड़े-बड़े गोले मारते, गोबर पोत देते थे और फिर एक-दूसरे प धूल फेंकते। धूल धूसरित इस वेला को ही निमाड़ में ‘धूलेंडी’ कहा जाता है।

हमारे बाबूजी एक माह पूर्व ही पलाश के फूल तोड़कर सुखा लेते थे। और होली जलने वाली रात में बड़े-बड़े हण्डों में गरम पानी कर फूल का रंग तैयार करते थे। हमारे पास बाँस की बड़ी-बड़ी पिचकारियाँ थी। पहली पिचकारी भरकर हम ठाकुरजी के मंदिर की दीवार पर डाल आते थे। फिर वही हल्का रंग खेलते थे। बाद के सालों में लाल रंग भी बाजार से लाने लगे थे। घर जो आता था, उसे गुलाल लगाया जाता था।

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हमारे गाँव में एक बाबूकाका थे। बाबू काका जैसे मददगार लोग प्राय: गाँवों में मिल जाते थे। गाँव में या किसी के घर भी, किसी भी प्रकार का कोई उत्सव मंगल हो तो बाबूकाका पूरी व्यवस्था में रहता था। गाँव में होली की रात्रि में नाच-गाने और ढोल-ढमाके होते थे। बाबूकाका रातभर नाचते थे लेकिन थकान का नाम नहीं। धुलेंडी को शाम को बाड़ी में ठंडाई- भाँग का दौर शुरू होता था, तो घुटाई भांग की और ठंडाई की दोनों में बाबू काका का किसी से कोई सानी नहीं था। भाँग के चहेते दस-बीस घरों में सबकी पारी बंधी थी: किस घर कल भाँग घुटेगी, इसकी घोषणा शाम को ही हो जाती थी औऱ दूसरे दिन समय से पूर्व ही बाबूकाका वहाँ मौजूद हो जाता था। “भाँग-ठण्डाई” का कार्यक्रम बाड़ी में होता था।

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किन्तु मुझे ऐसा कभी याद नहीं है कि रंग खेलने वाले को मिठाई खिलाई जाती हो। वह तो शाम को दाल-बाटी-चूरमा का सामूहिक आयोजन होता था। बाबूकाका के हाथ के बने हुए बड़े-बड़े चमकदार भटों के भर्ते के बिना तो होली का भोज अधूरा ही माना जाता था।

होली खेलने में महत्व विपरीत संबंधों का बड़ा ही आनन्ददायी होता है। जैसे देवर-भावज, जीजा-साली, नंदोई-भावज। एक बार की याद कभी नहीं भूलती। हमारी बड़ी भाभी को फाग के दिन किसी देवर नें ठण्डाई के धोखे में भाँग पिला दी। उन्हें वह भाँग इतनी चढ़ी कि कभी जेठ, ससुर के सामने न आने वाली वो बहू अपने ससुरजी के पास बैठक में पहुँच गई। और एक ही शब्द पचासों बार बोलने लगी। बर्तन माँजोगे… बर्तन माँजोगे…. बर्तन माँजोगे…। फिर बर्तनों के पास जाकर बैठ गई और माँजना शुरु कर दिया। पहले तो घर में सब सन्न रह गए कि इतनी मर्यादा में रहने वाली भाभी ससुरजी से बिना लिहाज के बोल रही है। पल्ले-साड़ी का भी ध्यान नहीं रहा। भाभी को बड़ी मुश्किल से बर्तनों के ढेर से उठाकर हमने ओढ़ाकर सुलाया। पर बाद में घर में पूछताछ शुरु हुई कि ऐसी मजाक किसने की।

पुरुषों का होली की जुलूस निकलता था। जिसमें लोग स्वांगधर कर अद्भुत रूप धर सबकी नकल करते थे। वही पुरूष ही टोलियों में बँटकर एक महिला पात्र बनकर गीत गाते थे। जिसमें हास्य के साथ कभी-कभी अश्लीलता भी आती थी। किन्तु होली में मर्यादा कहाँ? वहीं महिलाओं का अपना ढंग होता था होली मनाने का। वैसे महिलाएं घर में खेलती थीं। दरवाजे के बाहर निकल कर रंग नहीं खेलती थीं।

गाँव की महिलाएँ अपने हाथ में जल का कलश लिए, जिसमें दूध, दही, फूल कुंकुम अक्षत होता था होलिका दहन के स्थान पर जाकर कुंभ का जल होली में चढ़ाती थीं। जिसे “होळई ठण्डी” करना कहते हैं।

महिलाओं के साथ में सदैव शांति शीतलता और तृप्ति का भाव होता है। होली को ठंडाकर महिलाएं वहाँ से राख लाकर घर में रखती हैं। ऐसी लोक मान्यता है कि जिस घर में होली की राख रखी जाती है वहीं कोई अनिष्टकारी जीव नहीं रहता। बिच्छू और गंधेली के काटने का जहर कर इस राख से उतारा जाता है। होली की अग्नि में कई लोग ‘ऊँबी’ (गेहूँ की हरी बाली) सेंकते थे। तो कोई जलती लकड़ी ले जाकर घर का चूल्हा जलाते थे कि सम्पन्नता रहेगी।

सभी महिलाएं मिलकर उन घरों में जाती हैं, जिन घरों में इस वर्ष गमी हुई हो। परिवार के सदस्यों पर गुलाल डाकर उन्हें सांत्वना देती है किन उब सब दुख से उबरो। वहीं महिलाओं की टोली उन घरों में भी जाती हैं जिनपर इस वर्ष विवाहादि मंगल कार्य हुआ हो या परिवार में संतति वृद्धि हुई हो। गाँवों में लोक में शब्दों का नहीं भाव का महत्व होता है। सबका सुख-दुख गाँव का सुख-दुख होता था।

ग्रामीणांचल में आज भी अभी भी बहुत कुछ शेष है। वहाँ परिभाषाऐं नहीं है कि होली मिल-मिलाप का त्यौहार है या रंगों का त्यौहार है। वहाँ भावों की प्रधानता का अनुभव किया जा सकता है। एक माह पाँच दिन तक चलते वाला होली का पर्व ‘रंग पंचमी’ के दिन झण्डा तोड़कर समाप्त होता है। आज मोहल्ले में दसियों होली जलती देखकर मन में एक सोच जन्मती है, किसको कहते हैं ‘मिलन,’ ‘मेल- मिलाप’। कई सप्ताहों पूर्व जहाँ मिल-जुलकर हर्षोल्लास से तैयारी की जाती है।

पूरे गाँव की एक होली में सबके शामिल होने से जो आत्मिक सुख मिलता था वह शहरों में हर पच्चीस-तीस घरों के सामने बाजार से लाई गई रेडीमेड होली रखकर जलाने पर नहीं मिलता। इससे तो केवल त्यौहार मामाने की तसल्ली ही मिल सकती है।

डॉ. सुमन चौरे, लोक संस्कृतिविद् – लोक साहित्यकार, भोपाल