अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन ने विश्व लोकतंत्र सम्मेलन आयोजित किया। इस सम्मेलन में दुनिया के लगभग 100 देशों ने भाग लिया लेकिन इसमें रुस, चीन, तुर्की, पाकिस्तान और म्यांमार जैसे कई देश गैर-हाजिर थे। कुछ को अमेरिका ने निमंत्रित ही नहीं किया और पाकिस्तान उसमें जान-बूझकर शामिल नहीं हुआ, क्योंकि उसका जिगरी दोस्त चीन उसके बाहर था।
लोकतंत्र पर कोई भी छोटा या बड़ा सम्मेलन हो, वह स्वागत योग्य है लेकिन हम यह जानना चाहेंगे कि उसमें कौन-कौन से मुद्दे उठाए गए, उनके क्या-क्या समाधान सुझाए गए और उन्हें लागू करने का संकल्प किन-किन राष्ट्रों ने प्रकट किया। यदि इस पैमाने पर इस महासम्मेलन को नापें तो निराशा ही हाथ लगेगी, खास तौर से अमेरिका के संदर्भ में! पहला सवाल तो यही होगा कि बाइडन ने यह सम्मेलन क्यों आयोजित किया?
उनके पहले तो किसी अमेरिकी राष्ट्रपति को इतनी अच्छी बात क्यों नहीं सूझी? इसका कारण साफ है। बाइडन से राष्ट्रपति के चुनाव में हारनेवाले डोनाल्ड ट्रंप अभी तक यही प्रचार कर रहे हैं कि बाइडन की जीत ही अमेरिका लोकतंत्र की हत्या थी। उनका कहना है कि राष्ट्रपति का चुनाव भयंकर धांधली के अलावा कुछ नहीं था। इस मुद्दे को लेकर वाशिंगटन में अपूर्व तोड़-फोड़ भी हुई थी।
इस प्रचार की काट बाइडन के लिए जरुरी थी। लोकतंत्र का झंडा उठाने का दूसरा बड़ा कारण चीन और रुस को धकियाना था। दोनों राष्ट्रों से अमेरिका की काफी तनातनी चल रही है। उक्रेन को लेकर रूस से और प्रशांत महासागर, ताइवान आदि को लेकर चीन से! इन दोनों पूर्व-कम्युनिस्ट राष्ट्रों को लोकतंत्र का दुश्मन बताकर अमेरिका अपने नए शीतयुद्ध को बल प्रदान करना चाहता है।
यह तो ठीक है कि रुस और चीन जैसे दर्जनों राष्ट्रों में पश्चिमी शैली का लोकतंत्र नहीं है लेकिन मूल प्रश्न यह है कि भारत, अमेरिका और यूरोपीय राष्ट्रों में क्या सच्चा लोकतंत्र है? बाइडन ने अपने भाषण में चुनावों की शुद्धता, तानाशाही शासनों के विरोध, स्वतंत्र खबरपालिका और मानव अधिकारों की रक्षा पर जोर दिया और हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने क्रिप्टो करेंसी और इंटरनेट पर चलनेवाली अराजकता को रेखांकित किया।
यहां सवाल यही है कि क्या इन सतही मानदंडों पर भी भारत और अमेरिका के लोकतंत्र खरे उतरते हैं? एक दुनिया का सबसे बड़ा और दूसरा दुनिया का सबसे शक्तिशाली लोकतंत्र है। क्या हमारे लोकतांत्रिक देशों में हर देशवासी को जीवन जीने की न्यूनतम सुविधाएं उपलब्ध हैं? क्या यह सत्य नहीं है कि हमारे दोनों देशों में करोड़पतियों और कौड़ीपतियों की संख्या बढ़ती जा रही है?
जातिभेद और रंगभेद के कारण हमारे लोकतंत्र क्या थोकतंत्र में नहीं बदल गए है? क्या हमारे देशों में लोकशाही की बजाय नेताशाही और नौकरशाही का बोलबाला नहीं है? जो लोग अपने आप को जनता का सेवक और प्रधानसेवक कहते हैं, क्या उनमें सेवाभाव कभी दिखाई पड़ता है? जिस दिन हमारे नौकरशाहों और नेताशाहों में सेवा-भाव दिखाई पड़ जाएगा, उसी दिन भारत सच्चा लोकतंत्र बन जाएगा।