हवाई सपनों की उड़ानें खतरों को कब तक बढ़ाएंगी ?

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हवाई सपनों की उड़ानें खतरों को कब तक बढ़ाएंगी ?

आलोक मेहता

भारतीय विमानन उद्योग पिछले तीन दशकों से “उड़ने की महत्वाकांक्षा और गिरने की मजबूरी” — दोनों का प्रतीक रहा है। 1990 के दशक में आर्थिक उदारीकरण के बाद निजी एयरलाइंस का दौर शुरू हुआ। लोगों ने पहली बार एयर-ट्रैवल को राजसी विलासिता से निकालकर आम मध्यम वर्ग की पहुँच में आते देखा।लेकिन यह कहानी उतनी सरल नहीं थी।जहाँ एक ओर इंडियन एयरलाइंस और बाद में एयर इंडिया जैसी सरकारी कंपनियाँ भ्रष्टाचार, खराब प्रबंधन और राजनीतिक दख़ल से लगातार घाटे में डूबी रहीं, वहीं निजी क्षेत्र की किंगफिशर, जेट एयरवेज, सहारा एयरलाइंस और अन्य ब्रांड शुरुआती चमक-दमक के बाद दीवालियेपन, कर्ज़, अनियमितताओं और जाँचों में फँसते चले गए।आज, जब इंडिगो—जो कभी भारत का सबसे मज़बूत और कुशल एयरलाइन मॉडल माना जाता था—लागत दबाव, परिचालन चुनौतियों और बाजार की उथल-पुथल से जूझ रहा है, तो यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिर भारतीय विमानन में गड़बड़ी कहाँ है? और इस गड़बड़ी का ज़िम्मेदार कौन है—कंपनी मालिक, रेगुलेटर, नीति-निर्माता या सम्पूर्ण तंत्र?
इंडिगो को लंबे समय तक भारतीय विमानन का “मॉडल केस स्टडी” कहा गया। 2006 में शुरू हुई इस एयरलाइन के संस्थापक — राहुल भाटिया और राकेश गंगवाल — का कोई बड़ा विमानन पृष्ठभूमि नहीं था। यही कारण था कि उद्योग में उन्हें “नये खिलाड़ी” माना गया, लेकिन उनकी रणनीति बेहद आक्रामक और पेशेवर थी। एक ही मॉडल के विमान (A320/A321) , समय पर उड़ान , कम किराए और तेज़ी से बेड़ा बढ़ाने की रणनीतियों ने इंडिगो को 50% से अधिक घरेलू मार्केट शेयर तक पहुँचा दिया। लेकिन आज इंडिगो नई चुनौतियों से जूझ रहा है | बढ़ती परिचालन लागत – ईंधन, हवाईअड्डा शुल्क और रखरखाव लागत में भारी वृद्धि , पायलट और केबिन कर्मचारियों की की कमी , ड्यूटी के दबाव की स्थिति , हड़ताल जैसी तकनीकी समस्याएँ , इंजन विवाद के कारण सैकड़ों उड़ानें रद्द, विमान ग्राउंडेड।अंतरराष्ट्रीय विस्तार में अनिश्चितता।फिर प्रतिस्पर्धा का नया दौर — टाटा समूह की एयर इंडिया और उसकी साथी सिंगापुर एयरलाइन्स , आकासा जैसी एयरलाइंस चुनौती दे रही हैं। वैसे एयर इण्डिया भी पूरी तरह सफल नहीं हो रही है और चुनौतियां बढ़ती जा रही है |इंडिगो को अभी “वित्तीय पतन” की स्थिति में नहीं कहा जा सकता, लेकिन लाभ में गिरावट और ऑपरेशनल गड़बड़ियाँ साफ संकेत देती हैं कि भारत के सबसे मजबूत ब्रांड को भी संकट से गुज़रने का खतरा है।
सरकारी एयरलाइंस के रूप में विमान सेवाओं का घाटे का सिलसिला कभी रुका ही नहीं |असफलताओं के कई कारण दशकों से सामने आते रहे, जैसे राजनीतिक दख़ल , ख़रीद–फ़रोख़्त में गड़बड़ी , महँगे विमान सौदे , अक्षम प्रबंधन , कर्मचारियों की अधिक संख्या , भ्रष्टाचार के आरोप और विदेशी रूट्स का दबाव |एयर इंडिया की हालत इतनी ख़राब थी कि उसे चलाने के लिए हर साल हजारों करोड़ रुपये की सरकारी सब्सिडी और सहायता देनी पड़ती थी। अंततः 2022 में इसे टाटा समूह को बेचकर सरकार ने अपने कंधे हल्के किए।
निजी एयरलाइनों ने शुरुआत में चमचमाते विज्ञापनों, मॉडल-आधारित प्रचार और “लक्ज़री” की छवि से यात्रियों को लुभाया। लेकिन कई कंपनियों का पतन अव्यवस्थित बिज़नेस मॉडल, अनियंत्रित विस्तार, कर्ज़ और नियामकीय ढिलाई के कारण तेज़ हो गया | किंगफिशर को कभी भारत की “फाइव-स्टार एयरलाइन” कहा जाता था।अत्यधिक खर्च, महँगा ब्रांडिंग मॉडल और गलत अधिग्रहण (Air Deccan) ने किंगफिशर को कर्ज़ के पहाड़ में धकेल दिया। करीब 7000+ करोड़ बैंक कर्ज़ , टैक्स बकाया , कर्मचारियों के वेतन लंबि और कई जाँच और कानूनी विवाद से हालत ख़राब हुई |विजय माल्या पर धन शोधन और बैंक धोखाधड़ी के मामले दर्ज हुए, जिसके बाद वह देश छोड़कर चला गया और भारत के लिए “वित्तीय भगोड़े” का प्रतीक बन गए।
इसी तरह सहारा एयरलाइंस की विमान सेवाएँ 90 के दशक में काफी लोकप्रिय हुईं, लेकिन धीरे-धीरे वित्तीय विवाद और नियामकीय दबाव बढ़ते गए। बाद में यह कंपनी जेट एयरवेज को बेच दी गई। सहारा समूह के खिलाफ बड़े पैमाने पर सेबी के केस चले, और सुब्रत रॉय को लंबे समय तक जेल का सामना करना पड़ा। जेट एयरवेज कभी भारत की सबसे प्रतिष्ठित निजी एयरलाइन थी लेकिन 2015–2018 के बीच लागत बढ़ने, खतरनाक कर्ज़ और प्रबंधन विवादों ने इसे धराशायी कर दिया। मालिक नरेश गोयल परवित्तीय अनियमितताओं , विदेशी फंडिंग संबंधी जांच और मनी लॉन्ड्रिंग आरोप के मामले चले और वे जेल तक पहुँचे। जेट के बंद होने से लाखों यात्रियों, हजारों कर्मचारियों और सप्लाई-चेन कंपनियों को भारी नुकसान हुआ।
देश में हवाई सेवाओं को लेकर भारतीय विमानन नियामक और नागरिक उड्डयन मंत्रालय पर हमेशा सवाल उठते रहे हैं | समय पर हस्तक्षेप की कमी रही | कई एयरलाइनों के वित्तीय संकेत वर्षों तक खराब रहे, लेकिन नियामक ने देर से कदम उठाए।सर्दियों में कोहरा या कम विज़िबिलिटी में उड़ान के लिए पायलटों को विशेष प्रशिक्षण चाहिए होता है। लेकिन यह प्रशिक्षण महँगा पड़ता है, इसलिए कई निजी एयरलाइन्स पर्याप्त प्रशिक्षण नहीं करातीं।नियामक कई बार सलाह जारी करता रहा, परंतु कठोर कार्रवाई कभी नहीं की गई। सुरक्षा निरीक्षण सिर्फ “औपचारिकता” के रूप में किए जाते रहे। यही नहीं दबाव में एयरलाइन लाइसेंस देने में जल्दबाज़ी की गई | व्यावसायिक मॉडल कमजोर होने के बावजूद कई कंपनियों को उड़ान की अनुमति दे दी गई।इन कमज़ोरियों ने भारतीय विमानन को “उड़ान के पहले ही ख़तरे” में झोंक दिया।, एक तथ्य यह भी है कि भारत की एयरलाइंस विदेशी लीज़िंग कंपनियों और डॉलर आधारित लागत पर अत्यधिक निर्भर हैं, जिससे वित्तीय जोखिम बढ़ता है। लेकिन जब भी कोई एयरलाइन बंद होती है यात्रियों का पैसा फँसताहै टिकट रद्द होते हैं किराए अचानक बढ़ जाते हैं कर्मचारियों की नौकरियाँ जाती हैंकिंगफिशर, जेट और सहारा के बंद होने से जनता ने भारी नुकसान झेला। और यही चक्र दोहराया जा रहा है , बस नाम बदलते रहते हैं।
भारत के विमानन संकट की जड़ें , लागत बहुत अधिक, किराया बहुत कम , कंपनियाँ लंबे समय तक सस्ते टिकट देकर बाजार कब्जाने की कोशिश करती हैं, लेकिन नुकसान बढ़ता जाता है। डॉलर में लागत, रुपये में आय , ईंधन, लीज़िंग, इंजन, मेंटेनेंस — सब का भुगतान डॉलर में लेकिन कमाई रुपये में होती है | डी जी सी ए की निगरानी मजबूत नहीं रही है। सरकारी एयरलाइनों में तो यह स्थायी समस्या रही है।
टाटा समूह के हाथों में एयर इंडिया का पुनर्जीवन एक उम्मीद जगाता है |इंडिगो अभी भी एक बड़ी और महत्वपूर्ण एयरलाइन है, लेकिन उसे अपनी रणनीति नए दौर के अनुसार बदलनी होगी। आकासा जैसी नई एयरलाइंस सादगी और दक्षता पर जोर दे रही हैं। लेकिन जब तक डी जी सी ए वास्तविक निगरानी नहीं करेगा,पायलट प्रशिक्षण में सुधार नहीं होगा, वित्तीय पारदर्शिता नहीं बढ़ेगी, राजनीति और विमानन का रिश्ता साफ नहीं होगा, कंपनियों के दिवालिया होने पर जनता को सुरक्षा नहीं मिलेगी, तब तक भारत विमानन उद्योग उछाल और गिरावट के इस चक्र से मुक्त नहीं हो पाएगा। विमानन सिर्फ उड़ान भरना नहीं है; यह उस भरोसे का प्रश्न है जिसे यात्री हर बार अपनी जान सौंपकर बनाते हैं। यदि यह भरोसा बार-बार टूटा, तो एयरलाइनें नहीं, बल्कि पूरा देश कीमत चुकाएगा।