वर्तमान राजनीति में यह सवाल फिर उठ रहा है कि जवाहरलाल नेहरू के सपनों से भारत देश को कितना कुछ मिला और क्या कुछ खोया? क्या आज भी नेहरू की राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय नीतियों कीं सार्थकता है? नेहरू नहीं सरदार वल्ल्भभाई पटेल या मोहम्मद अली जिन्ना प्रधान मंत्री बनते, तो क्या अच्छा होता? जिन्ना को विकल्प कहने वालों की समझदारी पर तो भारतीय ही नहीं अधिकांश पाकिस्तानी भी आश्चर्य और प्रश्न चिन्ह ही लगाएंगे| सरदार पटेल के नाम पर फिर भी कई अनुकूल संभावनाओं की कल्पना की जा सकती हैं| अब नेहरू की बनाई नीतियों, राजनीतिक दिशाओं, विरासत, उपलब्धियों अथवा गल्तियों पर बहस जारी रह सकती है| सबसे दिलचस्प तथ्य यह है कि आज़ादी के बाद ही नहीं आज़ादी से पहले भी नेहरू कई मुद्दों पर महात्मा गाँधी के विचारों और तौर तरीकों से असहमत रहे और उन्हें व्यक्त करते रहे| हाँ, असहमत रहते हुए उन्होंने गाँधी के सामने आत्म समर्पण किया और गाँधी ने भी उन्हें आगे बढ़ाया| लेकिन स्वतंत्रता के बाद नेहरू ने गाँधी के रास्ते को नहीं चुना| तब क्या जिन्ना गाँधी के रास्ते को अपनाता? इतना स्वीकारना होगा कि उस समय की परिस्थितियों में वैचारिक विभिन्नताओं और सरदार पटेल जैसे नेताओं के कारण लोकतान्त्रिक जड़ें मजबूत हुई|
नेहरू के आलोचक भाजपाई अथवा समाजवादी सारी कमियों, गल्तियों और बुराइयों को गिनाने के बावजूद उनकी समाजवादी नीतियों और विदेश नीति के मूलभूत सिद्धांतों को अपना रहे हैं| अटल बिहारी वाजपेयी और नरेंद्र मोदी प्रधान मंत्री के रूप में गरीबों को सर्वाधिक प्राथमिकता देने और अमेरिका, रूस, यूरोप, अफ्रीका, पश्चिम तथा दक्षिण एशिया से संबधों के संतुलन के प्रयास जारी रखे हैं| अटलजी ने मई 1964 में नेहरूजी के निधन पर अपनी लम्बी श्रद्धांजलि में लिखा था – “महर्षि वाल्मीकि ने रामायण में भगवन राम के सम्बन्ध में कहा है कि वे असंभावों के समन्वय थे| नेहरू के जीवन में उसी कथन की झलक दिखती है| वे शांति के पुजारी लेकिन क्रांति के अग्रदूत थे| वे अहिंसा के उपासक थे, लेकिन देश की स्वाधीनता और सम्मान की रक्षा के लिए वह हर हथियार से लड़ने के हिमायती थे| चीन और पाकिस्तान के प्रति उनकी नीति इसी सम्मिश्रण का प्रतीक थी जिसमें उदारता और दृढ़ता भी थी| लेकिन दुर्भाग्य है कि उनकी उदारता को दुर्बलता और उनकी दृढ़ता को हठवादिता समझा गया|” नेहरू ने हिंदी चीनी भाई भाई के नारे को सामने रखकर सम्बन्ध बढ़ाए, तो प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने भी साबरमती के किनारे झूलेदार सोफे पर चीनी राष्ट्रपति शी जिन पिंग के सम्बन्ध सुधरने की उम्मीद रखी| चीन ने फिर से धोखा दिया, लेकिन इस बार भारत पर आक्रमण की हिम्मत नहीं जुटा सकता है| चीन और पाकिस्तान को दुनिया से अलग थलग करने में बहुत हद तक सफलता के लिए वही गुट निरपेक्ष नीति लाभदायक साबित हो रही है, जिसमें अमेरिका और रूस के खेमे में भारत शामिल नहीं रहता और उनका हर संभव सहयोग ले रहा है|
इसमें कोई शक नहीं कि नेहरू ने आज़ादी के बाद अपने राजनीतिक चातुर्य से कांग्रेस को जीवित रखा और विभिन्न विचारधाराओं को फलने फूलने दिया| अन्यथा गाँधी तो आज़ादी के बाद कांग्रेस को भंग किए जाने की बात कहते थे| समाजवादी विचारधारा को अपनाने के बावजूद नेहरू जानते थे कि साम्यवाद किन कारणों से फैलता है| साम्यवाद केवल सर्वहारा को ही नहीं बल्कि बौद्धिक संशयात्मक और निराशावादियों को भी आकर्षित करता है दो विश्वव्यापी महायुद्धों ने जो मानसिक और सामाजिक ध्वंस किया उसके अवशेषों में साम्यवाद पनपा| भूख और दैन्य से घृणा और साम्यवाद पैदा होता रहा है| गरीबों के प्रति सहानुभूति और सेवा भाव के कारण वह जनता के सर्वाधिक प्रिय नेता बन गए| हर आँख से निकले हर आंसू को पोंछ सकें यही उनकी आकांक्षा थी| 15 अगस्त 1947 को अर्ध रात्रि में भाषण देते हुए उन्होंने कहा था- हो सकता है कि हमारी सामर्थ्य के बहार हो लेकिन जब तक आंसू और यातना का चिन्ह भी रहेगा तब तक हमारे कार्यों की इतिश्री नहीं होगी| उन्होंने गरीबी और भुखमरी ख़त्म करने के लिए निजी और सार्वजनिक क्षेत्र में उद्योगों को बढ़ने की योजनाएं बनाई| हाँ वह एकाधिकार और एक वर्ग के प्रभुत्व को अनुचित मानते थे| लेकिन नेहरू जिन आदर्शों को घोषित कर आगे बढे थे, धीरे धीरे उनका क्रियान्वयन मुश्किल होता गया| इसीलिए उनके बहुत करीबी सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने लिखा था- “नेहरू शासन के प्रधान के नाते कई समझौते करते रहे और अपनी परिस्थितियों से ऊपर नहीं उठ सके|” दूसरी तरफ तथ्य यह भी है कि नेहरू के समकालीन और इंदिरा गाँधी को प्रधान मंत्री बनाने के प्रस्तावक, सलाहकार पंडित द्वारका प्रसाद मिश्रा ने अपनी जीवनी ‘लिविंग एन इरा’ के दूसरे खंड ‘द नेहरू इपाक: फ्रॉम डेमोक्रेसी टू मोनोक्रेसी’ में लिखा कि “भारत का लोकतंत्र नेहरू ने एकतंत्र में बदल दिया| नेहरू ने जो शुरू किया, उसकी पूर्णाहुति इंदिरा गाँधी ने की|” इस दृष्टि से आज राहुल गाँधी किस आधार पर नरेंद्र मोदी पर एकतंत्र का आरोप लगा सकते हैं? आख़िरकार देश को सशक्त नेतृत्व की आवश्यकता होती है|
इसी तरह कांग्रेस के नेताओं को शायद यह ध्यान ही नहीं है कि नेहरू ने ही संविधान सभा में डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी द्वारा प्रस्तुत भारत की औद्योगिक नीति के प्रस्ताव पर 7 अप्रैल 1948 में लम्बा चौड़ा भाषण देकर उसका समर्थन किया था| तब डॉक्टर मुखर्जी देश के उद्योग और रसद मंत्री थे| हाँ यह मानना होगा कि समय के साथ उन नीतियों में बदलाव होता रहा और होता रहेगा| महात्मा गाँधी की ही आर्थिक नीतियों को वर्तमान दौर में कितना लागू किया गया या अपनाया जा सकता है? बड़े पैमाने पर औद्योगीकरण के साथ खादी ग्रामोद्योग, लघु उद्योगों को अधिकाधिक प्रोत्साहन देने का प्रयास अवश्य हो रहा है| नेहरू ने 2 फरवरी 1953 को खादी ग्रामोद्योग बोर्ड की बैठक में साफ़ कह दिया था- “इस संस्था से जुड़े लोगों को तेजी से बदलती दुनिया के साथ तालमेल बैठाना होगा| वे दकियानूसी न बनें| उन्हें यह सोचना है कि नई तकनीक और वैज्ञानिक तरीकों को कैसे इस्तेमाल किया जाए| सरकार सहयोग दे सकती है, लेकिन उन्हें सरकारों पर आश्रित नहीं होना चाहिए|”
इन दिनों मीडिया की स्वतंत्रता को लेकर भी बहुत आवाज उठ रही है| इस सन्दर्भ में प्रेस की सीमाओं को लेकर नेहरूजी ने 17 सितम्बर 1952 को सम्पादकों के सम्मलेन में कही गई थोड़ी कड़वी बात को याद दिलाना उपयुक्त होगा| उन्होंने कहा था “मैं विचार की अभिव्यक्ति को दबाने को खतरनाक समझता हूँ, लेकिन ऐसे उदहारण बहुत मिल रहे हैं, जिनमें विचार की आज़ादी का गलत उपयोग हो रहा और जिससे संस्कृति पर भी गहरा आघात लगता है| इस तरह के रवैये को किसी तरह रोका जाना चाहिए| कुछ अनुशासन होना चाहिए| अनुशासनहीनता से अराजकता की स्थिति पैदा होती है, जिसे बर्दाश्त नहीं किया जा सकता है| अखबार बुरी बातों को खूब बढ़ा चढ़ाकर छापते हैं जिससे उत्तेजना पैदा होती है| कभी कभी किसी की बुराई करना संभव है लेकिन जब जिंदगी सिर्फ दूसरों की बुराई करने में निकल जाए तो अति हो जाती है|” आजकल तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रतया के नाम पर सारी सीमाएं तोड़ी जा रही है| इसलिए नेहरू युग की समीक्षा करते समय सभी पक्षों को कुछ संतुलित ढंग से सोचना होगा|
(लेखक आई टी वी नेटवर्क-इण्डिया न्यूज़ और दैनिक आज समाज के सम्पादकीय निदेशक हैं)