कैसे करते थे श्राद्ध :श्रद्धा ही है, श्रद्धा का दूसरा नाम!

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कैसे करते थे श्राद्:श्रद्धा ही है, श्रद्धा का दूसरा नाम!

 डॉ. सुमन चौरे

मैं अपने आँगन में कुछ कर रही थी, उसी समय पड़ोस से कुछ आवाज़ आई। कुछ विचार-विमर्श या संवाद चल रहा था। आवाज़ पास आई। साफ सुनाई दिया, नित्या कर रही थी, “आप भी पापा बस, किसी की भी नहीं सुनते। मैं ऐसा तो नहीं कह रही हूँ कि मत करो, पर पापा समस्या तो समझें, कहाँ गाय मिलेगी, कहाँ कौआ मिलेगा, मान लीजिए ना पापा! अपन सब खाना किसी भिखारी को दे देंगे या रोड के डागी को खिला देते हैं।” धीरे-धीरे दोनों के स्वर काँच लगते ही गाड़ी में समा गए।

मुझे देखकर नित्या की माँ आशा बाहर आकर बोली, “देखा ना दादी, आज सासू माँ का श्राद्ध है, किसे भोजन पर बुलाएँ, कौन पण्डित अपने खाने के लिए इतनी दूर की कॉलोनी में आयगा, किसके पास फुर्सद धरी है, एक दुबेजी हैं, उन्हें कहा, तो बोले –‘ एक सीएल खराब थोड़ी करूँगा’। फिर कोई, मीठा, तला खाता नहीं।” वह आगे बोले, “ दादी मैंने कहा- सब खाना मंदिर में दे आओ, गया श्राद्ध तो कर ही आये हैं, पर नित्या के पापा हैं कि मानते ही हीं, कहते हैं – ‘माँ की बड़ी श्रद्धा ती, गाय, पण्डित को भोजन कराने में’।” और बात करते-करते आशा भीतर चली गई। वह गई; किन्तु मुझे एक स्मृति बिम्ब में छोड़ गई।

‘श्राद्ध’, सच में श्रद्धा ही है, श्रद्धा का दूसरा नाम। माँ की श्रद्धा है, गाय और ब्राह्मण को भोजन कराने की। सच में श्राद्ध में पण्डित, ब्राह्मण भोजन का महत्त्व तो होता ही है, साथ ही बहुत लोग घर-परिवार के नाते-रिश्तेदार सभी को भोजन कराते थे। मुझे इस श्राद्ध क्रम की क्रिया को देखकर हँसी भी आई, मन रुआँसा हो गया, जाने वाला जाता है; किन्तु उसकी खाया तिथि और श्राद्धपक्ष में पड़ने वाली उसकी मृत्यु तिथि के दिन उसका श्राद्ध किया जाता है। मेरे चित्त में वे दिन तरोताजा हो उठे जब श्राद्ध पक्ष में हमारे यहाँ बड़े पैमाने पर श्राद्ध को श्रद्धा से मनाते थे। गाँव में हमारे कुटुम्ब के सात-आठ घर थे और दीगर ब्राह्मण परिवार, सेठ दाजी, पटेल, किसान परिवार आदि जहाँ श्राद्ध पक्ष में श्राद्ध के दिन उन्हें भोजन के लिए निमंत्रित करते थे, वहीं हर वर्ग, हर जाति के परिवार शामिल रहते थे।

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भादों मास की पूर्णिमा से लेकर कुआर मास की अमावस तक के सोलह दिनो को पितृपक्ष कहते हैं। इसे सोलह श्राद्ध भी कहते हैं। इस पक्ष में पूरा लोक अपने-अपने पितरों को आवाहन कर श्राद्ध करते हैं। उन्हें तर्पण कर उन्हें तुष्ट करते हैं। ऐसी मान्यता है कि इस पक्ष में शुभ मंगल कार्यों का आयोजन नहीं कराया जाता है। इसके पीछे मुख्य कारण यही है कि सब लोग अपने-अपने पितरों को ही ये दिन समर्पित करते हैं। निमाड़ में श्राद्ध पक्ष को कड़वे दिन भी कहा जाता है।

श्राद्ध की तैयारी भी बड़े पैमाने पर गहरी श्रद्धा से होती थी। रात में ही बर्तन साफ कर बड़े-बड़े बगौने आँगन में रख दिए जाते थे। गाँव में जिन किसानों के घर दूध होता था, वे तिथि याद रखकर बिना माँगे दूध बगोने में डाल जाते थे और भट्टों पर दूध उबलने रख दिया जाता था।

श्राद्ध का भोजन बड़े चौक-चतराई और शुचिता से बनता था। हमारे परिवार की सभी महिलाएँ आधी रात से जागकर, नहा-धोकर रेशमी साड़ी पहनकर चौके में घुस जाती थीं। फिर कोई सिल पर उड़द दाल पीसती, तो कोई आटा गूंथती। आदमी लोग चावल पकाकर बड़े-बड़े कड़छों से उन्हें घोटते थे, वे जब कण रही तो जाते थे, तो फिर उस में शक्कर डालकर, कढ़ा दूध डालकर धीमी आँच पर रख देते थे और फिर ठंडा होते ही केशर, इलायची, किशमिश, चिरौंजी आदि मेवे डालकर रखते थे। मैंने अपने बचपन में श्राद्ध की कभी-भी दो-तीन सौ लोगों से कम की पंगत नहीं देखी थी।

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निमंत्रण एक दिन पूर्व ही दे दिया जाता था। सूर्योदय से पूर्व नाई पत्तल दोने ले आता था, तो जिनके बाड़े में कोल्हा (कद्दू) होता था, वे उसे आँगन में रख जाते थे। कद्दू कटा और सब्जी बनी। श्राद्ध के अवसर पर दो पुड़ की रोटियाँ बनती थीं। चार छह महिलाएँ रोटी में लगती थीं – लोई बनाना, रोटी बेलना, सेंकना, पुड़ खोलना और उनमें घी लगाकर रखना- ये काम थे उन महिलाओं के। सब बड़े पैमाने पर होता था- बड़े-बड़े टोकने भरकर रोटियाँ बनती थीं। टोकनों से उड़द-चने के बड़े बनते थे। सब बारह बजे के पहले तैयार होना होता था, ताकि श्राद्ध की धूप डले और भोजन की पत्तलें परोसी जायँ।

जिस व्यक्ति की श्राद्ध तिथि होती ते, उसके घर बड़ा बेटा श्राद्ध क्रिया करता था। अन्य लोग इस अवसर पर बड़ी श्रद्धा से बैठकर तर्पण, पूजन धूप आदि में सम्मिलित होते थे और चर्चा में व्यक्ति की प्रशंसा कर उनके प्रति आदर भाव प्रकट करते थे।

मुझे याद है, पूजन शुरू होते ही, कोई एक व्यक्ति या नौकर शाला आकर हम बच्चों को और गुरुजियों को बुलाकर ले जाता था। बड़ा अचरज होता है, आज यह सोचकर कि पूरी शाला खाली हो जाती थी, क्योंकि जितने दो-तीन गुरुजी होते थे, सभी ब्राह्मण भोजन में निमंत्रित होते थे। वे भी सौळ्या (रेशमी धोती) पहनकर ही भोजन करने आते थे। श्राद्ध के दिन बच्चे भी हमारे परिवार के और बाकी सभी भोजन में निमंत्रित होते थे। आसपास के गाँव के नाते-रिश्तेदार भी गाड़ी-बैल से श्राद्ध में आते थे।

पण्डितजी पूरे विधि-विधान से तर्पण करवाते थे। बारह बजे धूप डालने (वैश्वदेव) के समय सबका उपस्थित होना  आवश्यक होता था। क्योंकि ‘वसुदेव’ (वैश्वदेव) डलते ही ज्वाला के रूप में पितृ प्रकट हो जाते थे, जिनका श्राद्ध था। फिर उस अग्नि को सभी प्रणाम करते थे। जाने वाला अगर कम उम्र का होता था, तो वह भी जाने के बाद पूजनीय हो जाता है। उसे बड़े भी प्रणाम करते थे। महिलाएँ सब आँचल का छोर पकड़कर वैश्वदेव की ज्वाला को प्रणाम करते थे। अगर वह कम उम्र के युवा का श्राद्ध दिवस हो, तो उस ज्वाला को प्रणाम करते करते महिलाओं कि सिसकियाँ थमती नहीं थीं।

यदि अग्नि एक बार में ही प्रकट होती, तो महिलाएँ आपस में अपनी चर्चा करतीं – “दादाजी बड़े भोले थे, जराक में प्रकट हो गए। तो माँय तो मयाळु थ- देख झट से आ गई। देखो, अगर देर लगती तो माँय को फिकर होती कि बच्चे भूखे हैं, देखा, वैश्वदेव होते ही प्रकट हो गई।” कोई उनके स्वभाव को, तो कोई उनके खानपान का उल्लेख करता…। अगर अग्नि जल्दी प्रकट नहीं होती तो आपस में चर्चा करते, “ देखा भाई, दादाजी नाराज़ हैं ”, फिर सब प्रार्थना कर क्षमा माँगते कि जल्दी आ जाओ, हमसे कोई त्रुटि, अपराध, भूलचूक होय तो क्षमा करो…। और अग्नि प्रकट होते ही सब निश्चिंत मन से प्रणाम करते थे।

संबंधित रिश्ता बताकर घर के हर बच्चे से प्रणाम करवाते थे। हम सब बच्चे भी बड़ी श्रद्धा से प्रणाम करते थे, भले ही उन आजा, पड़ाजा दाजी या पड़ाजी आजी माय को हमारे माँ पिता ने भी नहीं देखा हो;  किन्तु परिवार के सदस्य हैं, श्राद्ध के अवसर पर वे आकर अपने परिवार को देखते हैं, कि उनका परिवार कितना बड़ा वृक्ष बनकर फल-फूल रहा है। ऐसी अटूट श्रद्धा ही श्राद्ध है।

श्राद्ध क्रिया की सामग्री जैसे चंदन, तुलसी, सफेद पुष्प, कुश, जौ, काली तिल्ली, सुपारी, दूध, जल, शहद, दक्षिणा आदि यदि पूजन के बाद में शेष रह जाते थे तो उन्हें विसर्जित कर दिया जाता था। कुमकुम, हल्दी, सिंदूर, अक्षत, अबीर-गुलाल जैसी पूजन सामग्री का उपयोग नहीं किया जाता था। कुश का बहुत महत्त्व होता था। तर्पण में कुश का उपयोग होता था तो आसन भी कुश का ही रहता था। तर्पण में सात पीढ़ियों तक का नाम लेकर तर्पण किया जाता था।  संबन्धियों के साथ ही मित्रों के नाम से भी तर्पण किया जाता था। यही नहीं घर के प्रिय पशुओं के नाम से भी कई लोग तर्पण करते थे।

जैसे ही वैश्वदेव की प्रक्रिया पूर्ण होती, वैसे ही घर बहुएँ पत्तलें परोसती थीं। उनमें पाँच पत्तल होती थीं, क्रमश: गाय, श्वान, काक (कौवा), पिप्पलिका और अतिथि। भोग लगने पर एक-एक पत्तल उठाकर घर के सदस्य सबका भाग देकर आते, तब तक पंगत की तैयारी शुरू हो जाती थी। तब कहीं भी गाय या काक या श्वान दुर्लभ नहीं थे। घर के आँगन में गाय बँधी रहती थी, कौवे की तो जैसे ही पत्तल लेकर ‘आओ आओ’ कहते थे, तत्काल  काँव-काँव कर कौवे उपस्थित हो जाते थे। गोठान में गाय के साथ ही कुत्ता भी भोजन कर लेता था। अतिथि की पत्तल अतिथि को देते और पिप्पलिका (कीड़े-मकोड़े-चीटियाँ) की पत्तल मंदिर के पास किसी पेड़ के पास रख देते थे।

पंगत में बैठते ही सबसे पहले सबके सिर पर सुन्दर चंदन लगाया जाता था। कोई-कोई चाँदी की करधनी को चंदन में डुबाकर सिर पर लगा देते थे, इस प्रकार कंगूरेदार तिलक लगता था।

जैसे ही पंगत का संकल्प हुआ, ‘ओम् नम: पार्वती पतये हर-हर महादेव’, ‘ओंकार महाराज की जय’,  फिर ‘नर्मदेss हर, हर हर’ के समवेत स्वर के साथ पंगत शुरू हो जाती थी। हम बच्चों की पंगत अलग लगती थी। पूरी शाला के पचास-साठ बच्चों की पंगत को परोसने और सम्हालने वाले बड़े जिम्मेदार लोग होते थे। बच्चों का ध्यान उधर बड़े लोगों की पंगत पर भी रहता था। जैसे ही गुरुजी को दक्षिणा मिली कि उसके पहले खीर का दोना फुड़काते और हाथ धोकर मुँह पोंछते-पोंछते शाला की ओर दौड़ लगा देते थे। और पढ़ाई फिर शुरु।  श्राद्ध कर्म करवाने वाले पण्डितजी सहित सभी लोगों को भोजन के पश्चात् दक्षिणा जी जाती थी।

पूरे सोलह-श्राद्ध के अंतिम दिन, पितृमोक्ष अमावस के दिन श्राद्ध कर सर्व पितरों से क्षमा-याचना कर उन्हें विदाई दी जाती है। निमाड़ में पितृमोक्ष अमावस के दिन अपने पितरों को भोजन कराने के बाद महिलाएँ संध्या से पूर्व जलाशय पर विसर्जन करने जाती थीं। विसर्जन में एक जलते कंडे को मिट्टी के पात्र में रखकर उसपर घी, खीर, बड़ा आदि सामग्री परोसी जाती है और उसे विसर्जित करके स्नान कर घर लौटती हैं। वैसे तो श्राद्ध को मंगल श्राद्ध कहते हैं किन्तु व्यवहार में मंगल कार्य सोलह श्राद्ध में निषिद्ध रहते हैं।

पितृ पक्ष पर विचार पूरा हो ही रहा था कि इतने में गाड़ी आकर रुकी। गाड़ी से उतरते ही नित्या ज़ोर से बोली, “माँ! पापा की इच्छा थी ना कि गाय मिले, दादी पसन्द करती थीं, दादी की श्रद्धा थी, तो देखो मंदिर में गाँव का कोई व्यक्ति गाय बाँध गया है।”

“दादी के श्राद्ध का भोजन गाय, कौवा, श्वान, पण्डितजी सबने खाया,” नित्या की माँ ने कहा,“ पापा बड़ी श्रद्धा से ले गये थे, दादी बहुत खुश होंगी।”

सच में श्रद्धा ही श्राद्ध है।

डॉ. सुमन चौरे

डॉ. सुमन चौरे