करता हूं स्वीकार ,बेडियां ये, यह कारा…

210

करता हूं स्वीकार ,बेडियां ये, यह कारा…

आज हम एक ऐसे कवि की बात कर रहे हैं, जिस पर प्रकृति ने कोप की वर्षा की और वह कवि बस प्रकृति को ताकता रह गया। प्रकृति को निहारता रह गया। प्रकृति को शब्दों में गूंथते-गूंथते प्रकृति से परे चला गया। जीवन इतना ही मिल पाया उसे कि प्रकृति को निहारा और मौत का आलिंगन किया। तरस आ जाए कि न तो बचपन ही मिला और न ही जवानी। जितना जीवन मिला, उसमें ही गुजर बसर कर जो दुनिया को दिया वह खजाना था … सौंदर्य का और जीवन सार का। तो आज हम प्रकृति से शुरुआत कर मौत और मोहभंग तक का सफर तय करते हैं।

“जिन पर मेघों के नयन गिरे

वे सबके सब हो गए हरे ।

पतझड़ का सुन कर करुण रुदन

  जिसने उतार दे दिए वसन

    उस पर निकले किशोर किसलय

       कलियाँ निकली निकला यौवन ।

जिन पर वसंत की पवन चली

वे सबकी सब खिल गईं कली ।

             सह स्वयं ज्येष्ठ की तीव्र तपन

       जिसने अपने छायाश्रित जन

       के लिए बनाई मधुर मही

       लख उसे भरे नभ के लोचन ।

लख जिन्हें गगन के नयन भरे

वे सबके सब हो गए हरे ।”

इस कविता का शीर्षक है ‘मेघकृपा’ और कवि का नाम है चंद्रकुंवर वर्त्वाल। आज इन्हें याद करने की कई वजह हैं। पहली यह कि आज हिंदी दिवस है और यह हिंदी के कवि हैं। दूसरा यह कि 14 सितंबर को मात्र 28 वर्ष की उम्र में इस चंद्र पर काल का ग्रहण लग गया था। पर उनके शब्द आज भी सूरज बनकर रोशनी बिखेर रहे हैं। चन्द्र कुंवर बर्त्वाल (20 अगस्त 1919 – 14 सितंबर 1947) हिन्दी के कवि थे। उन्होंने मात्र 28 साल की उम्र में हिंदी साहित्य को अनमोल कविताओं का समृद्ध खजाना दे दिया था। समीक्षक चंद्र कुंवर बर्त्वाल को हिंदी का ‘कालिदास’ मानते हैं। उनकी कविताओं में प्रकृतिप्रेम झलकता है।
चन्द्र कुंवर बर्त्वाल का जन्म उत्तराखण्ड के चमोली जिले के ग्राम मालकोटी,पट्टी तल्ला नागपुर में 20 अगस्त 1919 में हुआ था। बर्त्वाल की शिक्षा पौड़ी, देहरादून और इलाहाबाद में हुई। 1939 में इन्होंने इलाहाबाद से बीए की परीक्षा उत्तीर्ण की तथा 1941 में एमए में लखनऊ विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। यहीं पर ये सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ के सम्पर्क में आये। प्रकृति के चितेरे कवि, हिमवंत पुत्र बर्त्वाल जी अपनी मात्र 28 साल की जीवन यात्रा में हिन्दी साहित्य की अपूर्व सेवा कर अनन्त यात्रा पर प्रस्थान कर गये। 1947 में इनका आकस्मिक देहान्त हो गया।
1939 में ही इनकी कवितायें “कर्मभूमि” साप्ताहिक पत्र में प्रकाशित होने लगी थी, इनके कुछ फुटकर निबन्धों का संग्रह “नागिनी” इनके सहपाठी शम्भूप्रसाद बहुगुणा ने प्रकाशित कराया। बहुगुणा ने ही 1945 में “हिमवन्त का एक कवि” नाम से इनकी काव्य प्रतिभा पर एक पुस्तक भी प्रकाशित की। इनके काफल पाको गीति काव्य को हिन्दी के श्रेष्ठ गीति के रूप में “प्रेमी अभिनन्दन ग्रन्थ” में स्थान दिया गया। इनकी मृत्यु के बाद बहुगुणा के सम्पादकत्व में “नंदिनी” गीति कविता प्रकाशित हुई, इसके बाद इनके गीत- माधवी, प्रणयिनी, पयस्विनि, जीतू, कंकड-पत्थर आदि नाम से प्रकाशित हुये। नंदिनी गीत कविता के संबंध में आचार्य भारतीय और भावनगर के हरिशंकर मूलानी लिखते हैं कि “रस, भाव, चमत्कृति, अन्तर्द्वन्द की अभिव्यंजना, भाव शवलता, व्यवहारिकता आदि दृष्टियों से नंदिनी अत्युत्तम है। इसका हर चरण सुन्दर, शीतल, सरल, शान्त और दर्द से भरा हुआ है। ठीक इसी तरह चंद्र कुंवर का जीवन भी सुंदर, शीतल, सरल, शांत और दर्द से भरा रहा। मात्र 28 वर्ष के जीवनकाल में एक हज़ार अनमोल कविताएं, कहानियां, एकांकी और बाल साहित्य रचकर शांत भाव से प्रकृति में विलीन हो गए। मृत्यु गीत की यह पंक्तियां उनके भावों को व्यक्त कर रही हैं।
मैं न चाहता युग-युग तक पृथ्वी पर जीना, पर उतना जी लूं जितना जीना सुंदर हो! मैं न चाहता जीवन भर मधुरस ही पीना, पर उतना पी लूं जिससे मधुमय अंतर हो!!”
हिंदी के कालिदास के रूप में जाने जाने वाले प्रकृति के चहते कवि चन्द्र कुंवर बर्त्वाल मृत्यु पर आत्मीय ढंग से और विस्तार से लिखने वाले चंद्रकुंवर बर्त्वाल हिंदी के पहले कवि हैं। युवावस्था में ही वह तपेदिक यानी टीबी के शिकार बन गए थे और इसके चलते उन्हें पांवलिया के जंगल में बने घर में एकाकी जीवन व्यतीत करना पड़ा था। मृत्यु के सामने खड़े कवि चन्द्रकुंवर बर्त्वाल ने अपनी सर्वश्रेष्ठ कविताओं को लिखकर 14 सितम्बर, 1947 को हिन्दी साहित्य को बेहद समृद्ध खजाना देकर दुनिया को अलविदा कह दिया था।
और अंत में मोह भंग (कविता का अंश )
“खुली आंख जब, ईश्वर के चरणों में आये,
रूप और आनन्द ज्ञान तब तुमने पाये।
करता हूं स्वीकार प्रभेा! मैं न्याय तुम्हारा ,
करता हूं स्वीकार ,बेडियां ये, यह कारा।
सभी दिशायें मित्र , शत्रु है आज न कोई,
पाप नहीं प्राणों में मेरे लाज न कोई,
कोई क्या सोचता न कुछ चिंता है इसकी,
वस्तु नहीं ऐसी मुझे चाह हो कुछ जिसकी।

और फिर “मरण” में वर्णित कवि के भाव…
“मरण, कितनी दूर है, रे मरण, कितनी दूर!
उड़ रहा प्रतिपल हवा में विकल प्राण-कपूर।
पीत जीवन-पात प्रतिपल
काँपता है, कह रहा—
हृदय में मेरे व्यथा है
और पलकों पर अनेकों आँसुओं का चूर।
ग्रीष्म की दारुण हँसी से
चरण मेरे थक गए अब,
सूख, जीवन कह रहा—
हाय, जाना मुझे जाने अभी कितनी दूर!”