बिछड़ गया सिंहस्थ में मिला मित्र…
जीवन में बहुत सारी घटनाएं फ्लैश बैक में लेकर जाती है। यह परम सत्य स्थापित करती हैं कि विधि के विधान के आगे किसी की नहीं चलती। विधि ने जीवन और मृत्यु का जो पल तय कर दिया है, वह टाले भी नहीं टलता। दुनिया में किसी में वह ताकत नहीं है, जो ईश्वर की सत्ता को चुनौती दे सके। हानि-लाभ, जीवन-मरण, यश व अपयश यह छह वस्तु भगवान के हाथ में होती है, मनुष्य के हाथ में नहीं। गोस्वामी तुलसीदास ने एक दोहे के द्वारा इस परमसत्य की व्याख्या रामचरित मानस में की हैं। यह इस प्रकार है कि “सुनहु भरत भावी प्रबल बिलखि कहहु मुनिनाथ, हानि लाभ जीवन मरन जस अपजस विधि हाथ’। राम के वनवास के बाद भरत जब अपने ननिहाल से लौट कर अयोध्या आए तो वहां के हालात को देख कर बहुत विचलित हुए। उन्होंने महर्षि वशिष्ठ से पूछा प्रभु आप तो संसार के सबसे श्रेष्ठ मुनि व महाज्ञानी हैं। आपने राम के राजतिलक का ऐसा मुहूर्त कैसे निकाल दिया कि महाराज दशरथ की मृत्यु हुई, राम वनवास गए और पूरी अयोध्या ही बर्बाद हो गई। यह प्रश्न सुन कर वशिष्ठ मुनि ने भरत को यह ज्ञान दिया था। तुलसीदास जी ने सुंदर शब्दों में इस संवाद को दोहाबद्ध किया है। इसीलिए यह भी कहा गया है कि “जाको राखे साइयाँ मार सके नहिं कोइ। बाल न बांका कर सके जो जग बैरी होइ।” यानि कि जब तक मृत्यु पास भी नहीं फटक सकती, जब तक विधाता को मंजूर नहीं है। फिर चाहे रोग तन को घेर ले या फिर पूरी दुनिया ही दुश्मन बन कर जान लेने पर उतारू हो जाए।
पर आज हम बात कर रहे हैं मृत्यु की, जो तय समय पर आकर आत्मा को ले जाती है और देह को मिट्टी में बदल देती है। और फिर माटी बनी वह देह पंचतत्व में विलीन हो जाती है। उज्जैन में तो कालों के काल महाकाल विराजित हैं। सृष्टि रचना के समय कल और काल की रचना करने वाले को महाकाल कहते हैं। ये समय का अति सूक्ष्म माप है। शिव हिंदू धर्म के सबसे प्राचीन और लोकप्रिय देवता हैं, उन्हे जगत का संहारक देवता भी माना जाता है। शिव को महाकाल कहा जाता है, अर्थात समय। शिव अपने इस स्वरूप द्वारा पूर्ण सृष्टि का भरण-पोषण करते हैं। इसी स्वरूप द्वारा परमात्मा ने अपने ओज व उष्णता की शक्ति से सभी ग्रहों को एकत्रित कर रखा है। परमात्मा का यह स्वरूप अत्यंत ही कल्याणकारी माना जाता है क्योंकि पूर्ण सृष्टि का आधार इसी स्वरूप पर टिका हुआ है।
महाकाल की नगरी उज्जयिनी में हर बारह साल में सिंहस्थ का आयोजन होता है। बीस साल पहले 2004 में सिंहस्थ के कवरेज के लिए मैं उज्जैन में था। इस सिंहस्थ ने मुझे जीवन के अनमोल तोहफे दिए थे। यहां लोकमत समाचार के लिए मैं रिपोर्टिंग कर रहा था। और अप्रैल का महीना था। यह अप्रैल का दूसरा सप्ताह ही था कि मुझे ईटीवी का ज्वाइनिंग लेेटर मिल गया और लोकमत समाचार में लिखते-लिखते मैं 12 अप्रैल 2004 को ईटीवी ज्वाइन कर लिया था। सिंहस्थ में महाकाल के दर्शन और क्षिप्रा स्नान का यह बड़ा तोहफा मुझे मिला था। पर सबसे अनमोल तोहफा मिला था मुझे उज्जैन में मित्र के रूप में हेमेन्द्र नाथ तिवारी। जो मित्र बने और भाई बन गए। परिवार का हिस्सा बना लिया और खुद परिवार का हिस्सा बन गए। हर सुख दुःख में साथी बना लिया और बन गए। कभी कोई अपेक्षा नहीं, मगर मदद को हर पल तत्पर रहे। आकाशवाणी में कार्यरत संजीव शर्मा जी ने मित्र हेमेंद्र के निधन की सूचना पोस्ट की। उज्जैन के वरिष्ठ पत्रकार एवं अभिभाषक *हेमेंद्र नाथ तिवारी* का आज यानि 25 सितंबर 2024 को असामयिक देहावसान हो गया है। वे कुछ समय से अस्वस्थ थे। हेमेंद्र उज्जैन में आकाशवाणी के संवाददाता भी थे। उनके परिवार में पिता माधव विज्ञान महाविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर रत्नेश्वर नाथ तिवारी, छोटे भ्राता और विक्रम विश्वविद्यालय के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ पवनेंद्र नाथ तिवारी, माताश्री, धर्मपत्नी, बेटी सहित भरा पूरा परिवार है।
जो उन्होंने नहीं लिखा वह यह कि यह भरा पूरा परिवार अब बेटे, भाई, पिता और पति के निधन से पूरी तरह खाली हो गया है। खुशियों से भरे रहने वाले परिवार में दु:खों ने डेरा डाल लिया है। बेटी के लिए घर बिना पिता के रिक्तता ले चुका है। बूढ़े पिता-माता की आंखों में बेटे के न दिखने से रिक्तता है। यही हाल पत्नी, भाई और बहन का है। और वास्तव में मैं भी ऐसे मित्र-भाई के जाने से रिक्तता का अनुभव कर रहा हूं। ऐसे मित्र बिरले ही होते हैं, जो अपना सर्वस्व साझा कर लेते हैं और अहसास भी नहीं होने देते। ऐसे मित्र-भाई हेमेंद्र को बुधवार 25 सितंबर 2024 को उज्जैन के रामघाट चक्र तीर्थ पर विदाई देना यही अहसास था कि चक्र का पहिया कभी-कभी समय से पहले भी घूमता है तो मन पर बड़ा कुठाराघात होता है और सभी प्रियजनों के दिलों को छलनी कर जाता है। महाकाल ऐसा किसी के साथ न करें। जनवरी से सितंबर के बीच एक बीमारी आई और अपने साथ लेकर चली गई। बीस साल पहले सिंहस्थ में मिले इस स्वाभिमानी मित्र-भाई को खोकर मैं बहुत दु:खी हूं। स्वाभिमान ऐसा कि लाखों के खर्च पर भी सरकार की तरफ मदद को हाथ नहीं फैलाए। जबकि मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव भी परिवार की तरह थे। सिंहस्थ में बीस साल पहले मिला ऐसा मित्र हमेशा-हमेशा के लिए मुझसे बिछड़ गया है…।