‘रामकृष्ण’ और ‘अटल’ को दिल में बसाते हैं…

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‘रामकृष्ण’ और ‘अटल’ को दिल में बसाते हैं…

 

आज दो महान विभूतियों को याद करने का दिन है। एक हैं आध्यात्म से आत्मा को सराबोर करने में समर्थ रहे, तो दूसरे राजनीति में श्रेष्ठता के प्रतीक व्यक्तित्व। दोनों ही महान आत्मा 16 अगस्त को परमात्मा में जा मिली थीं। आओ आज बस याद कर इन्हें दिल में बसाते हैं।

रामकृष्ण परमहंस भारत के एक महान संत, आध्यात्मिक गुरु एवं विचारक थे। इन्होंने सभी धर्मों की एकता पर जोर दिया। उन्हें बचपन से ही विश्वास था कि ईश्वर के दर्शन होते हैं अतः ईश्वर की प्राप्ति के लिए उन्होंने कठोर साधना और भक्ति का जीवन बिताया। स्वामी रामकृष्ण मानवता के पुजारी थे। साधना के फलस्वरूप वह इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि ‘संसार के सभी धर्म सच्चे हैं और उनमें कोई भिन्नता नहीं। वे ईश्वर तक पहुँचने के भिन्न-भिन्न साधन मात्र हैं।’

मानवीय मूल्यों के पोषक संत रामकृष्ण परमहंस का जन्म 18 फ़रवरी 1836 को बंगाल प्रांत स्थित कामारपुकुर ग्राम में हुआ था। इनके बचपन का नाम गदाधर था। पिताजी के नाम खुदीराम और माताजी के नाम चन्द्रा देवी था। उनके भक्तों के अनुसार रामकृष्ण के माता पिता को उनके जन्म से पहले ही अलौकिक घटनाओं और दृश्यों का अनुभव हुआ था। गया में उनके पिता खुदीराम ने एक स्वप्न देखा था जिसमें उन्होंने देखा कि भगवान गदाधर ( विष्णु के अवतार ) ने उन्हें कहा कि वे उनके पुत्र के रूप में जन्म लेंगे। उनकी माता चंद्रमणि देवी को भी ऐसा एक अनुभव हुआ था उन्होंने शिव मंदिर में अपने गर्भ में रोशनी प्रवेश करते हुए देखा।इनकी बालसुलभ सरलता और मंत्रमुग्ध मुस्कान से हर कोई सम्मोहित हो जाता था। एक परम आध्यात्मिक संत थे। इनके परम शिष्य स्वामी विवेकानंद के बारे में हम सभी परिचित ही हैं। 16 अगस्त 1886 को रामकृष्ण परमहंस महासमाधि में लीन हो गए थे।

तो दूसरे अटल बिहारी वाजपेयी (25 दिसम्बर 1924 –16 अगस्त 2018) भारत के दसवें प्रधानमन्त्री थे। उन्होंने प्रधानमंत्री का पद तीन बार संभाला है, वे पहले 13 दिन के लिए 16 मई 1996 से 1 जून 1996 तक। फिर दूसरी बार; 8 महीने के लिए 19 मार्च 1998 से 13 अक्टूबर 1999 और फिर वापस 13 अक्टूबर 1999 से 22 मई 2004 तक भारत के प्रधानमन्त्री रहे। वे हिन्दी कवि, पत्रकार व एक प्रखर वक्ता थे। वे भारतीय जनसंघ के संस्थापकों में एक थे, और 1968 से 1973 तक उसके अध्यक्ष भी रहे। उन्होंने लम्बे समय तक राष्‍ट्रधर्म, पाञ्चजन्य (पत्र) और वीर अर्जुन आदि राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत अनेक पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन भी किया।

वह चार दशकों से भारतीय संसद के सदस्य थे, लोकसभा, निचले सदन, दस बार, और दो बार राज्य सभा, ऊपरी सदन में चुने गए थे। उन्होंने लखनऊ के लिए संसद सदस्य के रूप में कार्य किया।2009 में स्वास्थ्य सम्बन्धी चिन्ताओं के कारण सक्रिय राजनीति से सेवानिवृत्त हुए। अपना जीवन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक के रूप में आजीवन अविवाहित रहने का संकल्प लेकर प्रारम्भ करने वाले वाजपेयी राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन (राजग) सरकार के पहले प्रधानमन्त्री थे, जिन्होंने गैर काँग्रेसी प्रधानमन्त्री पद के 5 वर्ष बिना किसी समस्या के पूरे किए। आजीवन अविवाहित रहने का संकल्प लेने के कारण इन्हे भीष्मपितामह भी कहा जाता है। उन्होंने 24 दलों के गठबन्धन से सरकार बनाई थी जिसमें 81 मन्त्री थे।

अटल जी के दो गीतों को पढ़कर उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं-

‘गीत नहीं गाता हूं…’

बेनक़ाब चेहरे हैं,

दाग़ बड़े गहरे हैं

टूटता तिलिस्म आज सच से भय खाता हूँ

गीत नहीं गाता हूँ

लगी कुछ ऐसी नज़र

बिखरा शीशे सा शहर

अपनों के मेले में मीत नहीं पाता हूँ

गीत नहीं गाता हूँ

पीठ में छुरी सा चांद

राहू गया रेखा फांद

मुक्ति के क्षणों में बार बार बंध जाता हूँ

गीत नहीं गाता हूँ

दूसरा गीत-

‘गीत नया गाता हूँ…’

टूटे हुए तारों से फूटे बासंती स्वर

पत्थर की छाती मे उग आया नव अंकुर

झरे सब पीले पात

कोयल की कुहुक रात

प्राची मे अरुणिमा की रेख देख पाता हूँ

गीत नया गाता हूँ

टूटे हुए सपनों की कौन सुने सिसकी

अन्तर की चीर व्यथा पलकों पर ठिठकी

हार नहीं मानूँगा,

रार नई ठानूँगा,

काल के कपाल पे लिखता मिटाता हूँ

गीत नया गाता हूँ …।

दोनों ही श्रेष्ठ व्यक्तित्व को सादर नमन। आइए कुछ समय मौन रहकर रामकृष्ण परमहंस के अंश बन ध्यान में लीन होते हैं और गीत गुनगुनाते हुए अटल को कुछ पल जीते हैं। दोनों ही संत स्वरूप व्यक्तित्वों ‘रामकृष्ण’

और ‘अटल’ को दिल में बसाते हैं…।