मैं जी भर जिया, मैं मन भर मरूं: यथार्थवादी कवि थे अटलजी
जन्म दिवस पर भावपूर्ण शब्दांजली
प्रसंग वश में वरिष्ठ लेखक चंद्रकांत अग्रवाल का कालम*
देश के प्रधानमंत्री के रूप में मुझे भारतरत्न अटलजी ने कभी भी उतना प्रभावित नहीं किया, जितना कि एक कवि के रूप में किया। एक राजनैतिज्ञ होते हुए भी उनकी संवेदनशीलता, पारदर्शिता, नैतिकता, जिजीविषा बेमिसाल थी, जो उनकी कविताओं में ध्वनित भी होती हैं। सोचता हूँ यदि वे कोरोना के इस संक्रमण काल में स्वस्थ तन से हमारे मध्य होते तो हिंदी साहित्य जगत को उनकी कलम से कई कालजयी कविताएं भाव विचार मिलते। भले ही वे किसी भी पद पर होते या न होते। क्योंकि उनके भीतर के कवि को भारतीय राजनीति की कालिख़ कभी भी किंचित भी नहीं लग सकी। उनके भीतर का कवि सदैव अन्याय शोषण व अन्य सभी त्रासदियों के खिलाफ सदैव मुखर रहा। हाल ही में इंदौर की मेरी एक वरिष्ठ पत्रकार फेस बुक मित्र जिसका नाम मुझे इस समय स्मरण नहीं हो रहा की फेस बुक वाल पर, मुझे उनके अटल जी के साथ, उनके कुछ लमहों के एक संस्मरण ने रोमांचित कर दिया। उन्होंने लिखा है कि चौथा संसार में कार्य करते समय उनके अग्रज व ज्ञानपीठ पुरुष्कार प्राप्त श्री मेहता जी की कृपा से उनके आमन्त्रण पर इंदौर पधारे अटल जी को अपना परिचय देने व कुछ लमहे उनके सानिध्य में बिताने का सौभाग्य मिला। अटलजी को जब यह पता चला कि मैं भी एक पत्रकार हूँ तो वे मुझसे बोले कि छोड़ दो पत्रकारिता स्वतंत्र लेखन करो। मैंने पूछा क्यों तो बोले पत्रकार को कई बार झूठ लिखना पड़ता है। मैंने कहा कि मैं झूठ नहीं लिखती। तो बोले नेताओं के भाषण बयान आदि तो कवर करती हो। मैंने कहा हाँ। तो बोले नेता ही झूठ बोलते हैं। और वही झूठ तुमको लिखना ही पड़ता है। मुझे पोस्ट पढ़कर लगा कि यह एक बहुत बड़े कद का नेता नहीं उनके भीतर का ईमानदार कवि ही बोल रहा था। एक कवि हृदय पिता की विरासत उन्हें प्राप्त हुई जिसने उनको एक देशभक्त नेता तो बनाया ही पर उनके भीतर का कवि उत्तरोत्तर प्राणवान होता गया। साहित्य जगत में उनको वीर रस के , श्रृंगार रस के एवं यथार्थवादी कवि के रूप में पहचाना जाता हैं। उनकी कविताओं में जहां रामधारी सिंह दिनकर, सी प्रखरता हैं, तो निराला जैसी साफगोई भी है। राष्ट्र भाषा हिंदी के वे एक सच्चे सपूत व अद्वितीय साधक थे। हिंदी को समग्र विश्व में पहुंचाने में राजनैतिक रूप से विवेकानंद के बाद उनका ही सर्वाधिक योगदान रहा। उनकी भाषागत विद्वता अद्भुत थी। पहली कविता ताजमहल थी, जिसमें उसे बनाने वाले मजदूरों की पीड़ा के स्वर थे। उनके पिता जहां ब्रज भाषा व खड़ी बोली के कवि थे , अटलजी विशुद्ध हिंदी के साधक थे। उनका ओज भाव अप्रतिम था- बाधाएं आती हैं आयें/ घिरें प्रलय की और घटाएं पांवों के नीचे अंगारे/ सिर पर बरसें यदि ज्वालाएं/ निज हाथों में हंसते-हंसते/आग लगाकर जलना होगा/ सन्मुख फैला अगर ध्येय पथ/ प्रगति चिंरतन कैसा इति अब/ सुस्मित, हर्षित, कैसा श्रलथ/ असफल, सफल समान मनोरथ/सब कुछ देकर कुछ न मांगते/ पावस बनकर ढलना होगा / कदम मिलाकर चलना होगा।
एक राजनैतिज्ञ होते हुए भी उनकी साफगोई, उनका नैतिक साहस बेमिसाल था। बेनकाब चेहरें हैं।/दाग बड़े गहरें हैं/ टूटता तिलिस्म आज सच से भय खाता हूँ/ गीत नहीं गाता हूँ/ लगी कुछ ऐसी नजर/ बिखरा शीशे सा शहर / अपनों के मेले में/ मीत नहीं पाता हूँ/ गीत नहीं गाता हूँ/ पीठ में छुरी सा चांद राहू गया रेखा फांद / मुक्ति के क्षणों में/ बार-बार बंध जाता हूँ/ गीत नहीं गाता हूँ।
मेरी 51 कविताएं उनका प्रसिद्ध काव्य संग्रह हैं। जिसमें उनकी रचनाशीलता व रसास्वाद स्पष्ट दिखते हैं। कुछ यशस्वी रचनाकृतियां, मृत्यु या हत्या, अमर वरदान, कैदी कविराय की कुंडलियां ,संसद में & दशक, अमर आग हैं, राजनीति की रपटीली राहें, आदि हैं। यथार्थ को उन्होंनें कभी भी नहीं नकारा- खून क्यों सफेद हो गया ?/ भेद में अभेद हो गया/ बंट गये शहीद, गीत कट गये/ कलेजे में कटार फं स गयी/ दूध में दरार पड़ गयी/ खेतों में बारूदी-गंध/ टूट गये नानक के छंद/ सतलज सहम उठी/ व्यथित सी वितस्ता है / बसंत से बहार झड़ गयी/ दूध में दरार पड़ गयी/ अपनी ही छाया से बैर/ गले लगाने लगे हैं गैर/ खुदकुशी का रास्ता/ तुम्हें वतन का वास्ता/ बात बनाये बिगड़ गयी/ दूध में दरार पड़ गयी। वहीं भारतीय राजनीति की त्रासदी भी उन्होंनें दो टूक कही- कौरव कौन?/ पांडव कौन? /टेढ़ा सवाल है/दोनों और शकुनी का फैल कूट जाल है/ धर्मराज ने छोड़ी नहीं जुएं की लत हैं/ हर पंचायत में पांचाली अपमानित है/ बिना कृष्ण के महाभारत होना है/ कोई राजा बनेंं रंक तो रोना हैं।
प्रकृति को तो उन्होंनें मानों आत्मसात कर रखा था। यर्थार्थ के साथ प्रकृति को जोड़कर वे कड़वा सच बड़ी सहजता से रेखांकित कर देते थे- सबेरा है,मगर पूर्व दिशा में घिर रहे बादल/ रूई से धुंधलके में मील के पत्थर पड़े घायल/ ठिठके पांव, ओझल गांव/ जड़ता हैं न गतिमानता/ स्वयं को दूसरों की दृष्टि से मैं देख पाता हूँ/ न मैं चुप हूँ न गाता हूँ/ समय की सर्द सांसों ने चिनारों को झुलस डाला/ मगर हिमपात को चुनौती देती एक दृममाला/ बिखरे नीड़, विहंसी चीड़, आंसू हैंं न मुस्कानें/ हिमानी झील के तट पर, अकेला गुनगुनाता हूँ/ न मैं चुप हूँ , न गाता हूँ।
सच को छुपाने की कभी कोई कौशिश उन्होनें अपनी कविताओं में तो नहीं की- हाथों की हल्दी हैं पीली/ पैसों की मेंहदी कुछ गीली/ पलक झपकने से पहले ही सपना टूट गया/ दीप बुझाया रची दीवाली/ लेकिन कटी न मावस काली/ व्यर्थ हुआ आवाहन/ स्वर्ग सबेरा रूठ गया/ सपना टूट गया/ नियति नटी की लीला न्यारी/ सब कुछ स्वाहा की तैयारी/ अभी चला दो कदम करवां/ साथ छूट गया/ सपना टूट गया। और जिंदगी के मंच पर स्वयं को साबित करते हुए वे मानों अपनी कहीं एक कविता के एक एक शब्द को सार्थक कर गये- ठन गयी/ मौत से ठन गयी/ जूझने का मेरा इरादा न था/मौड़ पर मिलेंगे इसका वादा न था/ रास्ता रोक कर वह खड़ी हो गयी/ यूं लगा जिंदगी से बड़ी हो गयी/ मौत की उमर क्या, दो पल भी नहीं/ जिंदगी सिलसिला, आज कल की नहीं/मैं जी भर जिया, मैं मन भर मरूं/ लौटकर आंऊगा, कूच से क्यों डरूं।