Iaw and justice: न्यायपालिका को तो सोशल मीडिया प्रभावित न करे!
यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि हमारे सामाजिक ताने-बाने को नष्ट करने के प्रयासों के बाद सोशल मीडिया का प्रयास अप्रत्यक्ष रूप से न्यायपालिका को प्रभावित करने का भी हो रहा है। यह एक खतरनाक और वीभत्स प्रयास है। इस खेल पर कठोरता से रोक लगाने की आवश्यकता है। क्योंकि, पिछले कुछ दिनों से सोशल मीडिया पर न्यायपालिका के संबंध में जो कुछ चल रहा है उसने स्वतंत्र न्यायपालिका में विश्वास रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति के मन की चिंता को बढ़ाया है। सोशल मीडिया पर एक वर्ग ने न्यायालय के निर्णयों एवं न्यायाधीशों पर जिस प्रकार की टिप्पणियां की है वह न केवल दुर्भाग्यपूर्ण है, बल्कि न्यायपालिका को प्रभावित करने और न्यायाधीशों पर दबाव बढ़ाने के एक कुत्सित प्रयासों के रूप में भी देखा जा रहा है। इसे एक संगठित गिरोह का सुनियोजित षड़यंत्र के रूप में देखा जाना चाहिए। इस पर कठोरता से नियंत्रण की आवश्यकता है। यदि इसके लिए आवश्यक हो तो नियमों एवं कानूनों में संशोधन भी किए जाने चाहिए।
फरवरी 2021 में केंद्र सरकार ने ‘सूचना प्रौद्योगिकी के लिए दिशा-निर्देश और डिजिटल मीडिया आचार संहिता 2021’ को अधिसूचित किया था। ये नियम सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उत्पत्ति प्रज्वला बनाम भारत सरकार मामले में दिए गए दिशा-निर्देशों पर आधारित है। सर्वोच्च न्यायालय ने इसमें आवश्यक दिशा-निर्देश एवं मानक संचालन प्रक्रिया तैयार करने तथा कुछ वीडियो एवं कुछ सामग्री को हटाने के आदेश दिए थे। एक अन्य मामले तहसीन पूनावाला मामले में भी ‘विभिन्न सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर गैर जिम्मेदार और ऐसे हिंसक संदेशों के प्रचार प्रसार को रोकने हेतु संबंधित एजेंसियों को पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान की है, जिसमें भीड़ में हिंसा को भड़काने और किसी भी तरह की लिचिंग को उकसाने की प्रवृत्ति हो। इन दिशा-निर्देशों में सोशल मीडिया इंटरमीडियरी को कुछ श्रेणियों में विभाजित किया गया है। इसमें कुछ अधिकारियों को नियुक्त करने तथा चौबीस घंटे में शिकायत का संज्ञान लेने तथा 15 दिनों के भीतर इसका समाधान करने का निर्देश दिया गया है। महिलाओं के खिलाफ अपराध, मौलिक अधिकारों का उल्लंघन आदि पर तुरंत कार्यवाही के निर्देश है।
न्यायालयों के फैसलों की आलोचना की जा सकती है लेकिन न्यायाधीशों की नहीं। इस लक्ष्मण रेखा का ध्यान सोशल मीडिया को रखना आवश्यक है। लेकिन, गत कुछ समय से सोशल मीडिया में जिस तरह पर टिप्पणियां आई, उन्होंने चिंताओं को बढ़ाया है। सोशल मीडिया एक सशक्त माध्यम है तथा इसकी स्वंतत्रता बनी रहनी चाहिए। लेकिन, इसकी एक खतरनाक प्रवृत्ति यह भी है कि कई बार यह न्यायाधीशों को भी इसके दायरे में ले लेते हैं। न्यायाधीशों को पूरी तरह से निर्णय देने के लिए स्वतंत्र छोड़ा जाना चाहिए। क्योंकि, वे जो सोचते है वह कानून के शासन के अनुसार सही माना जाना चाहिए। न्यायपालिका स्वतंत्रता, निष्पक्षता एवं दृढ़तापूर्व अपने फैसले दे सके, इसके लिए भी यह आवश्यक है।
इस बात में कोई संदेह नहीं है कि सोशल मीडिया न्यायजगत के लिए भी परस्पर जुड़े रहने का एक मजबूत माध्यम है। हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति रोहिंग्टन फली नरीमन ने एक अधिकृत यू-ट्यूब चैनल प्रारंभ किया है। इसमें चुने हुए विडियो, भाषण आदि शामिल किए गए हैं। लेकिन न्यायाधीशों के खिलाफ टिप्पणियां नहीं होना चाहिए। साथ ही न्यायाधीशों को भी सोशल मीडिया की टिप्पणियों से अप्रभावित हुए बगैर अपना काम निष्पक्षता से करना होगा। न्यायाधीश यदि सोशल मीडिया से जुड़े है तो उन्हें इस बात की सावधानी एवं ध्यान रखना होगा कि सोशल मीडिया की टिप्पणियों एवं समाचारों पर कितना विश्वास किया जाए।
आजकल मीडिया ट्रायल खूब हो रहे हैं। अंत्तोगत्वा इनका प्रभाव कम अथवा अधिक मात्रा में किसी भी रूप में न्यायाधीशों पर भी हो सकता है। हमें यह ध्यान रखना होगा कि आखिर न्यायाधीश भी एक इंसान ही है। इसका दुष्परिणाम कहीं न कहीं मुकदमें के पक्षकारों के हितों पर भी पड़ता है। इनके दुष्परिणामों का असर कई बरसों के बाद मालूम पड़ता है जब कोई साक्ष्य न होने के कारण संबंधित व्यक्ति सर्वोच्च अथवा उच्च न्यायालय से बरी हो जाता है। यदि एक व्यक्ति निरपराध है तो उसके जीवन में इन कष्टों का कोई भी मुआवजा क्षतिपूर्ति करने में सक्षम नहीं हो सकता है।
यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि सोशल मीडिया की टिप्पणियों का खंडन संभव नहीं है। इसका रास्ता भले ही सकारात्मक हो अथवा नकारात्मक, यह एक तरफा रास्ता है जो सुनियोजित तरीके से व्यक्तियों के सोच को प्रभावित करने का प्रयास करता है। जो न्यायाधीश इसकी मदद लेते हैं उन्हें यह विश्वास होना चाहिए कि इसका सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। आमतौर पर यह माना जाता है कि सोशल मीडिया न्यायपालिका के लिए उपयुक्त मंच नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति शरद अरविंद बोबड़े ने ऑनलाईन न्यायिक उत्पीड़न के बारे में कहा है कि न्यायाधीश की आलोचना करना निर्णय की नहीं, मानहानि है। इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं कहा जा सकता है। इसकी आड़ में इन न्यायाधीशों की प्रतिष्ठा पर आघात किया जा रहा है। सोशल मीडिया, आज ‘न्यायिक निंदा’ का एक नया शगल है। हाल ही में 20 अप्रैल को दिल्ली में अतिक्रमण हटने के मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा रोक लगाए जाने के विरूद्ध सोशल मीडिया पर पुनः न्यायिक निंदा का अभियान एक वर्ग द्वारा छेड़ दिया गया।
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय के दो न्यायाधीषों ने कृष्णा नदी के पानी के बंटवारे के मामले सुनने से स्वयं को अलग कर लिया। इनमें से एक महाराष्ट्र के थे तथा एक कर्नाटक के। इन न्यायाधीशों के बारे में इतनी टिप्पणियां ट्रोल की गई जिनकी कोई सीमा नहीं थी। स्वाभाविक रूप से इसका असर इन न्यायाधीशों पर भी रहा होगा। अन्य कारणों के साथ ये टिप्पणियां भी उनके इन मुकदमों से अलग होने में सहायक रही होगी। यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है जिसने सर्वोच्च न्यायालयों के दो न्यायाधीशों को अपनी निष्पक्षता साबित करने के लिए मुकदमों से अलग होने पर मजबूर होना पड़ा। सर्वोच्च न्यायालय देश का अंतिम न्यायालय है। देश की जनता को भी सर्वोच्च न्यायालय पर पूरा विश्वास है। ऐसी स्थिति में सोशल मीडिया की यह भूमिका खतरनाक साबित हो सकती है।
सामान्य तौर पर न्यायाधीश मुकदमे से स्वयं को तब अलग करता है जब वह पक्षकार को जानता है अथवा वह तब हटता है जब उन्होंने उसकी तरफ से अपने वकालत के दिनों में किसी प्रकरण में पैरवी की हो। यह न्यायाधीशों के विवेक पर निर्भर करता है। लेकिन इतने महत्वपूर्ण मामले में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के पास कई ई-मेल और पत्र आना जिनमें उनके गृह राज्यों का ध्यान दिलाया जाना तथा अपने राज्यों के पक्ष में फैसलों की संभावना व्यक्त करना, चिंता का सबब है।
भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति रंजन गोगोई ने भी अपनी पुस्तक ‘न्यायाधीश के लिए न्याय’ में कहा कि भारत में न्यायपालिका को खतरा सरकारों से नहीं बल्कि उस खास विचारधारा वाले समूह और मुठ्ठीभर लोगों से है, जिन्होंने खुद को न्यायपालिका का ठेकेदार घोषित कर दिया है। ये लोग कम जरूर है। लेकिन, वैचारिक तौर पर काफी संगठित है। ये लोग बड़ी-बड़ी पत्रिकाओं और अखबारों में लेख लिखते हैं और न्यायपालिका का जो फैसला अच्छा नहीं लगता है या इन्हें सूट नहीं करता है, उस पर संगठित तरीके से प्रहार करते हैं, ताकि इन लोगों का दबाव न्यायपालिका पर बना रहे। उन्होंने इसे ‘ट्रोल आर्मी’ नाम दिया।
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए इन दिशा-निर्देशों का अध्ययन कर इस संबंध में यदि ये पर्याप्त नहीं है तो इस संबंध में विशेष कानून नियम बनाए जाना सरकार की प्राथमिक जवाबदारी है। झूठी सूचनाओं के संबंध में कानून का पालन कठोरता से करवाया जाना चाहिए। इन सबके बीच न्यायाधीशों एवं न्यायाधीशों की गरिमा एवं स्वतंत्रता का भी ध्यान रखा जाना चाहिए। न्यायाधीशों के समक्ष प्रस्तुत मामलों में दो पक्ष होते हैं। एक ही विजयी होता है। दुसरा पक्ष अपनी हार को न्यायालय के एवं न्यायाधीष के खिलाफ उपयोग न कर सके, ऐसा कानून एवं नियम आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है।