“रस्म-ए-उल्फत को निभाएं तो निभाएं कैसे”…

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“रस्म-ए-उल्फत को निभाएं तो निभाएं कैसे”…

जिस शख्स की अर्थी को अभिनेताओं राजेश खन्ना,धर्मेंद्र ,अमिताभ बच्चन और राजेंद्र कुमार ने कंधा लगाया हो। वह निश्चित तौर पर फिल्मी जगत की महान शख्सियत रही होगी। जी हां, हम बात कर रहे हैं हिंदी फिल्म सिनेमा के मशहूर संगीतकार मदन मोहन की। उन्हें आज इसलिए याद कर रहे हैं, क्योंकि 14 जुलाई 1975 को सिर्फ 51 वर्ष की उम्र में उन्होंने इस फानी दुनिया को अलविदा कहा था। 1950, 1960 और 1970 के दशक के हिट भारतीय संगीत निर्देशक थे।उन्हें हिंदी फिल्म उद्योग के सबसे सुरीले और कुशल संगीत निर्देशकों में से एक माना जाता है। उन्हें हिंदी फिल्मों के लिए रचित अमर ग़ज़लों के लिए विशेष रूप से याद किया जाता है। गायक लता मंगेशकर, मोहम्मद रफ़ी और तलत महमूद के साथ उनके संगीत को बहुत सराहा गया। मदन मोहन के मनपसन्द गायक मौहम्मद रफी थे।
जब ऋषि कपूर और रंजीता की फिल्म लैला मजनू बन रही थी तो गायक के रूप में किशोर कुमार का नाम आया परन्तु मदन मोहन ने साफ कह दिया कि पर्दे पर मजनूँ की आवाज़ तो रफी साहब की ही होगी। उन्होंने अपने पसंदीदा गायक मोहम्मद रफी से ही गवाया और लैला मजनूँ एक बहुत बड़ी म्यूजिकल हिट साबित हुई। अपनी गजलों के लिए प्रसिद्द इस संगीतकार का पूरा नाम मदन मोहन कोहली था। अपनी युवावस्था में ये सेना में अफसर थे। बाद में संगीत के प्रति अपने झुकाव के कारण ऑल इंडिया रेडियो से जुड़ गए। तलत महमूद तथा लता मंगेशकर से इन्होंने कई यादगार गज़लें गंवाई जिनमें – आपकी नजरों ने समझा (अनपढ़, 1962) जैसे गीत शामिल हैं।
Music Director Madan Mohan
मदन मोहन को याद करना आनंद से भर देता है। वह 25 जून 1924 को बगदाद में जन्मे, जहां उनके पिता राय बहादुर चुन्नीलाल कोहली इराकी पुलिस बलों में अकाउंटेंट जनरल के रूप में कार्यरत थे। मदन मोहन ने अपने जीवन के शुरुआती वर्ष मध्य पूर्व में बिताए। 1932 के बाद, उनका परिवार अपने गृह नगर चकवाल, जो उस समय ब्रिटिश भारत के पंजाब के झेलम जिले में था,लौट आया। जब उनके पिता व्यवसाय के अवसरों की तलाश में बंबई गए तो उन्हें दादा-दादी की देखभाल में छोड़ दिया गया था। उन्होंने लाहौर के स्थानीय स्कूल में पढ़ाई की अगले कुछ वर्षों के लिए। लाहौर में अपने प्रवास के दौरान,उन्होंने बहुत ही कम समय के लिए करतार सिंह नामक व्यक्ति से शास्त्रीय संगीत की मूल बातें सीखीं। हालाँकि उन्हें संगीत में कभी कोई औपचारिक प्रशिक्षण नहीं मिला।
कुछ समय बाद उनका परिवार मुंबई चला गया, जहां उन्होंने बायकुला मुंबई के सेंट मैरी स्कूल से सीनियर कैम्ब्रिज की पढ़ाई पूरी की। मुंबई में 11 साल की उम्र में उन्होंने ऑल इंडिया रेडियो द्वारा प्रसारित बच्चों के कार्यक्रमों में प्रदर्शन करना शुरू कर दिया। 17 साल की उम्र में,उन्होंने देहरादून के कर्नल ब्राउन कैम्ब्रिज स्कूल में दाखिला लिया, जहाँ उन्होंने एक साल का प्रशिक्षण पूरा किया।वह वर्ष 1943 में सेना में द्वितीय लेफ्टिनेंट के रूप में शामिल हुए। उन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध के अंत तक दो साल तक वहां सेवा की। बाद में उन्होंने सेना छोड़ दी और अपने संगीत हितों को आगे बढ़ाने के लिए मुंबई लौट आए। 1946 में, वह ऑल इंडिया रेडियो, लखनऊ में कार्यक्रम सहायक के रूप में शामिल हुए। 1946 और 1948 के बीच, उन्होंने संगीतकार एसडी बर्मन को दो भाई के लिए और श्याम सुंदर को एक्ट्रेस के लिए संगीत सहायक की भूमिका भी निभाई। मदन अक्सर अपनी फिल्मों के लिए गीतकार राजा मेहदी अली खान, कैफ़ी आज़मी और राजिंदर कृष्ण, साहिर लुधियानवी और मजरूह सुल्तानपुरी के साथ सहयोग करते थे।
1957 में उनकी फिल्म ‘ देख कबीरा रोया’ आई, जिसमें महान गायक मन्ना डे ने फिल्म बावर्ची में ‘कौन आया मेरे मन के द्वारे’ और ‘तुम बिन जीवन कैसा जीवन’ जैसे अविस्मरणीय गाने को अपनी आवाज दी थी। इसके अलावा,उन्होंने लता से ‘तू प्यार करे या ठुकराए’ और ‘मेरी वीणा तुम बिन रोये’ गाने गवाए और उसी फिल्म में ‘हम से आया ना गया’ गाने के लिए उन्होंने तलत महमूद का इस्तेमाल किया। एक बार एक साक्षात्कार में मन्ना डे ने याद किया कि मदन मोहन ने उनसे ‘कौन आया मेरे मन के द्वारे’ गाते समय विशेष ध्यान रखने को कहा था। मदन द्वारा बनाई गई एक फिल्म चेतन आनंद की हकीकत (1964) थी, जिसमें बलराज साहनी और धर्मेंद्र ने अभिनय किया था और यह 1962 के भारत-चीन युद्ध पर आधारित थी। इसमें उन्होंने रफी से ‘कर चले हम फिदा’, मैं ये सोच जैसे गाने गवाए थे।
लता से गीत ‘जरा सी आहट होती है’ और “खेलो ना मेरे दिलसे” जैसे अविस्मरणीय गाने गवाए। और उसी फिल्म में रफी, तलत, मन्ना डे और भूपेन्द्र ने ‘ होके मजबूर मुझे उसने भुलाया होगा’ गाना गाया था। खुद को पार्श्व गायक के रूप में स्थापित करने से बहुत पहले ही भूपेन्द्र पहली बार पर्दे पर भी आये थे। यह गाना एकमात्र गाना है जिसमें चार टॉप रेटेड पुरुष पार्श्व गायकों ने एक साथ आवाज दी है। 1966 में, उन्होंने फिर से मेरा साया के लिए लता मंगेशकर के साथ जोड़ी बनाई । मदन मोहन ने खुद राज खोसला का “वूमन इन व्हाइट” का संस्करण ‘वो कौन थी’ फिल्म बनाई। इस फिल्म में तीन लता एकल ‘नैना बरसे रिम झिम रिम झिम’, ‘लग जा गले’ और ‘जो हमने दास्तां अपनी सुनायी’ गीत कभी भुलाए नहीं जा सकते।
पचास के दशक के अंत, साठ के दशक और सत्तर के दशक की शुरुआत मदन मोहन के करियर का ग्राफ बुलंदी को छू रहा था। उन दशकों के उनके गीतों में अदालत, अनपढ़, दुल्हन एक रात की, मेरा साया, दस्तक, हंसते ज़ख्म, हीर रांझा, महाराजा और मौसम जैसी कई अन्य फिल्मों की रचनाएँ शामिल हैं। उनका दूसरा आखिरी प्रयास उनकी मृत्यु के पांच साल बाद रिलीज़ हुई फिल्म चालबाज़ के लिए था। 1970 में, पश्चिमी संगीत के बदलते समय के दौरान उन्होंने राजिंदर सिंह बेदी की दस्तक के लिए रागों पर आधारित संगीत दिया और अपना एकमात्र पुरस्कार जीता। 1971 सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशन के लिए राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार। लता मंगेशकर द्वारा गाए गए इसके गाने आज भी उनके सबसे बेहतरीन गाने माने जाते हैं।
उनकी विरासत फिल्म “दिल की राहें” के लिए रचित उनकी ग़ज़ल – “रस्म-ए-उल्फत को निभाएं तो निभाएं कैसे” का उल्लेख किए बिना पूरी नहीं होगी। ग़ज़ल के शायर (गीतकार) नक्श लल्लायलपुरी थे और इसे लता मंगेशकर ने गाया था। इसे लता मंगेशकर द्वारा गाए अब तक के सबसे बेहतरीन गानों में से एक माना जाता है। 2004 में, मदन की अप्रयुक्त धुनों को उनके बेटे संजीव कोहली ने यश चोपड़ा की फिल्म वीर-ज़ारा के लिए फिर से बनाया, जिसमें शाहरुख खान , प्रीति जिंटा और रानी मुखर्जी ने अभिनय किया था । गीत जावेद अख्तर द्वारा लिखे गए थे , और लता मंगेशकर को एक बार फिर उनके द्वारा रचित अधिकांश धुनों को गाने के लिए आमंत्रित किया गया था। संगीत को बहुत सराहा गया और समीक्षकों द्वारा प्रशंसित किया गया। वीर-ज़ारा के संगीत निर्देशन के लिए उन्हें 2005 में आईफा पुरस्कार से सम्मानित किया गया था । बाद में,कोहली ने एक एल्बम “तेरे बगैर” निकाला जिसमें मदन मोहन के कुछ गाने शामिल हैं।
मदन के संगीत की विशेषता भारतीय शास्त्रीय संगीत के तत्वों को हिंदी फिल्मी गीत की एक नई शैली में ढालने की उनकी अपार क्षमता थी। उनके पास भारतीय शास्त्रीय धुनों की बारीकियों को जानने की गहरी और संवेदनशील क्षमता थी, और उन्होंने उन्हें पश्चिमी संगीत के तत्वों जैसे हारमोंस के साथ जोड़कर संगीत की एक ऐसी शैली तैयार की, जिसे शास्त्रीय संगीत प्रेमियों और आम व्यक्ति दोनों द्वारा समान रूप से सराहा जा सकता था। लता मंगेशकर ने उन्हें “ग़ज़ल का शहज़ादा” या ग़ज़ल का राजकुमार नाम दिया। यहां तक कि लता ने खुद 1990 के दशक के अंत में एक लाइव कॉन्सर्ट में कहा था कि उन्हें मदन मोहन की रचनाओं में महारत हासिल करना मुश्किल लगता था। पर मदन के लगातार संघर्षों का असर उसके जीवन पर पड़ा और वह अत्यधिक शराब पीने लगे। 14 जुलाई 1975 को लीवर सिरोसिस से उनकी मृत्यु हो गई।  भारत सरकार ने 2013 में मदन मोहन पर डाक टिकट जारी कर महान संगीतकार को याद किया।
 मदन मोहन जैसे संगीतकार कभी मरते नहीं हैं। वह कुछ समय तक इस धरा पर रहकर हमेशा के लिए लोगों के दिलों में जिंदा रहते हैं। इनकी याद कर कोई भी संगीत प्रेमी एक बार फिर उन गानों को जी उठता है और सारे तनावों से मुक्त हो जाता है। मदन मोहन आप यूं ही हम सबकी यादों में जिंदा रहना…।