33 साल से बैतूल जिले में आदिवासी जीवन जी रहे हैं, IIT प्रोफेसर, पूर्व RBI गवर्नर के गुरु आलोक सागर
*संभागीय ब्यूरो चीफ चंद्रकांत अग्रवाल की हतप्रभ कर देने वाली एक रियल स्टोरी*
बैतूल। रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन के गुरू रहे, IIT दिल्ली के पूर्व प्रोफेसर डा. आलोक सागर,जिनके स्टूडेंट्स भी आज दुनिया की तमाम बड़ी कंपनियों में करोड़ों कमा रहे हैं, पिछले 33 साल से पूरी तरह आदिवासियों को अपना जीवन समर्पित कर उनकी तरह ही जंगल में रह रहे हैं। आलोक सागर एक छोटी सी झोपड़ी में रहते हैं और सिर्फ 3 जोड़ी कुर्ता-पायजामा में जीवन बिताते हैं। आलोक सागर के मुताबिक सुकून की नींद और मन का चैन इंसान को जहां नसीब हो, वहीं असली जिंदगी है। हालांकि इन 33 सालों में स्वयं को आदिवासियों का मसीहा कहने वाली मध्यप्रदेश की किसी भी सरकार ने कभी भी उनसे कोई सरोकार रखना,उनके मार्गदर्शन में आदिवासियों के विकास की योजनाएं बनाना,संचालित करना,उनका सहयोग लेना, कभी भी जरूरी नहीं समझा।
निश्चय ही आलोक सागर का 33 साल का आदिवासियों को समर्पित जीवन आफीवादियों के नाम पर दशकों से चल रही इस देश की राजनीति के पाखंड को आईना दिखाने में सक्षम है। पिछले 33 साल से डॉ. आलोक सागर जंगल में आदिवासियों के बीच रह रहे हैं। मध्यप्रदेश के बैतूल जिले के शाहपुर ब्लाक से करीब 25 किलोमीटर दूर कोचामऊ के ग्राम कल्ला में डॉ. आलोक सागर की एक छोटी सी झोपड़ी है। डॉ. आलोक RBI के पूर्व गर्वनर रघुराम राजन के गुरु हैं। आलोक सागर बहुत सी भाषाओं के जानकार हैं, लेकिन बावजूद इसके प्रचार-प्रसार से दूर रहते हैं। डॉ. सागर ने आईआईटी दिल्ली से ही इंजीनियरिंग की डिग्री ली। इसके बाद वह अमेरिका की ह्यूसटन यूनिवर्सिटी चले गए। पीएचडी पूरी करने के बाद सागर ने 7 साल कनाडा में नौकरी भी की। प्रोफेसर आलोक सागर दिल्ली में पैदा हुए हैं। उनका जन्म 20 जनवरी 1950 को उनका जन्म हुआ। बाद में वे आईआईटी दिल्ली में प्रोफेसर बने। जरूरतमंदों के लिए कुछ करने की जिद में ही आलोक सागर ने नौकरी छोड़ दी। उनके पिता सीमा शुल्क उत्पाद शुल्क विभाग में कार्यरत थे। उनके छोटे भाई अंबुज सागर भी आईआईटी दिल्ली में प्रोफेसर हैं, जबकि उनकी बहनें अमेरिका, कनाडा में नौकरी करती हैं।
*आलोक सागर का वर्तमान जीवन*
डॉ. आलोक सागर जंगल में रह रहे हैं, ताकि आदिवासियों में स्वरोजगार के अवसर बढ़ा सकें। आलोक आदिवासियों के आर्थिक और सामाजिक हित की लड़ाई लड़ते हैं। डॉक्टर सागर मोबाइल इस्तेमाल नहीं करते और साइकिल के अलावा कुछ राशन और झोपड़ी में रखे कुछ बर्तन ही उनकी पूंजी हैं। उन्होंने कोचमऊ में हजारों फलदार पेड़ लगाए हैं। इनमें चीकू, लीची, अंजीर, नीबू, चकोतरा, मौसमी, किन्नू, संतरा, रीठा, आम, महुआ, आचार, जामुन, काजू, कटहल, सीताफल के कई पेड़ शामिल हैं।
*मात्र 100 वर्ग फुट की झोपड़ी में जीवन बिता रहे हैं अपना जीवन*
जिस व्यक्ति ने आईआईटी दिल्ली से इंजीनियरिंग की हो और अमेरिका की मसहूर ह्यूस्टन यूनिवर्सिटी से पीएचडी की हो और फिर आईआईटी दिल्ली में प्रोफेसर रहे हों तो उस व्यक्ति के बारे में हर कोई यही कहेगा कि यह तो शानौ शोकत की जिंदगी जी रहा होगा। लेकिन मामला इससे बिल्कुल विपरीत है। दिल्ली आईआईटी के प्रोफेसर और अमेरिका की प्रसिद्ध ह्यूसटन यूनिवर्सिटी से पीएचडी करने वाला यह शख्स 33 साल से वनवासियों के बीच स्वयं भी वनवासी बनकर जीवन जी रहा है। कायदे से तो इतने हाई प्रोफाइल के बाद प्रोफेसर आलोक सागर को ऐशो आराम की जिंदगी बितानी चाहिए थी।
पर पिछले 33 सालों से आलोक सागर मध्यप्रदेश के बीहड़ों में आदिवासी,वनवासी समाज की सेवा में लगे हैं। एक करोड़ से अधिक वार्षिक वेतन की अपनी नौकरी से इस्तीफा देने के बाद आलोक ने बेतूल और होशंगाबाद जैसे आदिवासी और पिछड़े इलाकों में रहकर काम करना शुरू किया। वे मानते हैं कि आज भी यहां के लोग बुनियादी सुविधाओं से अभी कोसों दूर हैं। वर्तमान में वे शाहपुर ब्लाक,जिला बैतूल के जिस आदिवासी ग्राम में रह रहें हैं,इस क्षेत्र में सिर्फ एक प्राइमरी स्कूल है।
इस इलाके में आलोक सागर ने 50,000 से ज्यादा पेड़ लगाए हैं। सागर ने बताया कि लोग अगर चाहें तो जमीनी स्तर पर काम करके देश की पूरी सूरत बदल सकते हैं। पर आज लोग अपनी डिग्रियों की प्रदर्शनी लगाकर अपनी बुद्धिमता दिखाने में ही ज्यादा ध्यान देते हैं। आलोक सागर मूल रूप से दिल्ली के रहने वाले है। आलोक ने यहीं से साल 1973 में आई आई टी दिल्ली से इंजीनियरिंग में मास्टर डिग्री हासिल की। आलोक ने 1977 में अमेरिका के टेक्सास की ह्यूस्टन यूनिवर्सिटी से पीएचडी किया। पीएचडी के बाद दो साल अमेरिका में नौकरी भी की लेकिन उनका मन नहीं लगा। साल 1980-81 में आलोक भारत लौट आए। और आई आई टी दिल्ली में ही पढ़ाने लगे। इस दौरान रघुराम राजन भी उनके छात्र रहे। आलोक सागर के पास उनकी कुल कमाई में से सिर्फ तीन कुर्ता पायजामा और एक साइकिल मात्र ही है। उनके पास जमापूंजी के नाम पर मात्र 100 वर्ग फुट की एक झोपड़ी, 3 जोड़ी कपड़े और एक साइकिल है। वे जिस घर में रह रहे हैं, उसमें दरवाजे तक नहीं हैं। एक संभ्रान्त परिवार से ताल्लुक रखने वाले आलोक सागर के छोटे भाई आज भी आईआईटी में प्रोफेसर हैं। उनकी मां मिरंडा हाउस में फिजिक्स की प्रोफेसर थीं और पिता इंडियन रेवेन्यू सर्विस में अधिकारी थे।
आजकल आलोक का दिन बीजों को जमा करने और आदिवासियों के बीच उसे बांटने में बीतता है। वे श्रमिक आदिवासी संगठन से भी जुड़े हैं । आलोक कई आदिवासी भाषाएं भी जानते हैं। डॉक्टर आलोक सागर के स्टूडेंट्स आज दुनिया की तमाम बड़ी कंपनियों में करोड़ों कमा रहे हैं। मजेदार बात यह है कि पिछले 33 साल से डॉ. आलोक सागर जंगल में रह रहे हैं।आदिवासियों के बीच छोटी सी झोपड़ी में रहकर डॉक्टर आलोक उनके हक की हर लड़ाई लड़ते हैं। जंगल के आदिवासियों का जीवन बेहतर बनाने में जुटे सागर जैसे कर्मयोगी का कभी कोई सहयोग,मार्गदर्शन स्वयं को आदिवासियों का मसीहा कहने वाली किसी भी पार्टी की मध्यप्रदेश या केंद्र सरकार ने लेना जरूरी नहीं समझा। पर निश्चय ही यह आलोक सागर का नहीं सरकारों का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा। वैसे भी पद्यश्री सम्मान भी ठुकरा चुके आलोक सागर के जीवन दर्शन को समझ पाना किसी के लिए भी आसान नहीं