Illegal Rules & Regulations Of Rera: डेढ़ साल से किसी अपील की सुनवाई ही नहीं
आप कह सकते हैं कि मध्यप्रदेश का रेरा देश भर में अनियमितताओं और गैर कानूनी नियमों को बनाने में प्रथम पायदान पर है। अपने मूल उद्देश्य से भटकने के अलावा यहां मूल प्रावधानों से हटकर नियम कायदे बनाये और थोपे गये। जिससे मप्र के रियल एस्टेट कारोबार को भारी नुकसान उठाना पड़ रहा है। कहने को रेरा की कार्य प्रणाली से असहमत रहने पर अपील के लिये विशेष न्यायालय (ट्रिब्यूनल) है,लेकिन पिछले डेढ़ साल से एक भी मामले की सुनवाई नहीं हुई। इसमें तीन सदस्यों की नियुक्ति की जाना चाहिये, किंतु केवल एक सदस्य मनोनीत हैं, जो उच्च न्यायालय के सेवा निवृत्त न्यायाधीश हैं।अकेले को फैसला लेने का अधिकार ही नहीं है।
इससे बड़ी विसंगति क्या हो सकती है कि शिकायत निराकरण का मंच तो उपलब्ध करा दिया, लेकिन उसके नाखून और दांत ही नहीं है। ये दो सदस्य सेवा निवृत्त आईएएस या विधि सेवा विशेषज्ञ याने वकील व एक तकनीकी जानकार होना चाहिये। अफसोस, सरकार को ऐसे दो सदस्य ढूंढे नहीं मिल रहे। जबकि भोपाल के महाराणा प्रताप नगर में अमरकंटक भवन में ट्रिब्यूनल का आलीशान भवन है, उसमें डेढ़ वर्ष से करीब 60 अधिकारी-कर्मचारी व एक सदस्य लाखों रुपये वेतन-भत्ते,गाड़ी-बंगले का सुख भोग रहे हैं, ,लेकिन काम धेले का भी नहीं कर रहे। जिसमें उनकी कोई गलती है भी नहीं ।
रेरा मामलों में अपील करने वाले एक सलाहकार बताते हैं कि वे अनेक मामले ट्रिब्यूनल में ले गये, लेकिन उन पर कोई फैसला ही नहीं हो पा रहा है, क्योंकि बैंच अधूरी है। इस कारण से उन्हें व अन्य सलाहकारों को भी प्रकरण वापस लेकर रेरा से बताये गये संशोधनों को करवाकर प्रोजेक्ट फिर से दाखिल करने पड़ रहे हैं। इससे प्रोजेक्ट में तो विलंब हो ही रहा है, लागत भी बढ़ रही है और बिना वजह वो खाना-पूरी करना पड़ रही है, जिसकी आवश्यकता ही नहीं थी। एक अनुमान के मुताबिक रेरा के पास पंजीयन के लिये आने वाले प्रकरणों में से करीब 30 प्रतिशत मामले ट्रिब्यूनल में ले जाने पड़ते हैं, क्योंकि वहां इतने मनमाने प्रावधान लादे जा रहे हैं कि कॉलोनाइजर,डेवलपर को उन्हें मानना संभव और व्यावहारिक ही नहीं । इस तरह से रियल एस्टेट कारोबारियों की हालत दुबले और दो आषाढ़ वाली हो गई है। मंदी से गुजर रहे रियल एस्टेट को राहत-रियायतों की दरकार है, लेकिन मप्र में तो उसके साथ गैर जरूरी और गैर कानूनी नियम-कायदों की ज्यादतियां की जा रही हैं।
रेरा का ऐसा ही एक और प्रावधान कारोबार का दम घोंट रहा है। कोई भी कॉलोनाइजर या बिल्डर ज्यादातर मामलों में किसान से अनुबंध पर जमीन लेकर उसका विकास करता है। इसमें किसान के साथ रेशो डील(साझेदारी) होती है। मान लें कि यदि कोई प्रोजेक्ट 50-50 प्रतिशत पर तय हुआ हो तो दोनों के बीच भूखंडों या फ्लैट के आकार व क्रमांक तय हो जाते हैं। रेरा के बाद इनकी रजिस्ट्री की जाती हैं। तब जिसके हिस्से का जो भूखंड या फ्लैट होते हैं, उसकी रजिस्ट्री करने की जिम्मेदारी उस साझेदार की होती है। यहां रेरा ने एक फच्चर फंसा रखा है। उसने व्यवस्था दे रखी है कि रजिस्ट्री में हस्ताक्षर दोनों के होंगे । इससे दूसरे व्यक्ति को बेवजह समय खराब करना पड़ता है। बाद में यदि दोनों में तालमेल बिगड़ जाये या किसी वजह से दोनों का समय मेल न करे तो रजिस्ट्री में परेशानी खड़ी हो सकती है। रेरा को इससे कोई मतलब नहीं। वह इस प्रावधान पर अभी-भी अड़ा हुआ है।
इसी तरह से रेरा का एक अन्य नियम भी कारोबारी की कमर तोड़ रहा है। कारोबारी जमीन खरीदने या रेशो डील करने के एकाध साल बाद ही पंजीयन के लिये आवेदन करता है। उसके बाद जब वह भूखंड या फ्लैट की बिक्री करता है तो नियम यह है कि उसे कुल लागत का 75 प्रतिशत(जमीन की कीमत सहित) तक बैंक में एक अलग खाता खोलकर रकम उसमें जमा रखना पड़ता है। ऐसा इसलिये कि डेवलपर यदि विकास कार्य न करे तो उस रकम से कार्य करवाये जा सके। इसमें डेवलपर की बडी रकम अटक जाती है । जबकि विकास कार्य के विये विकास कार्य की लागत वाली रकम ही जमा रखना व्यावहारिक होता है। जमीन की कीमतें तो यूं भी समय के साथ तेजी से बढ़ती हैं। जैसे यदि कोई जमीन आज एक करोड़ रुपये एकड़ है और प्रोजेक्ट पूरा होने में 5 साल का समय लगता है तो जमीन के दाम 3 से 5 करोड़ रुपये एकड़ भी हो सकते हैं और गाइड लाइन की रकम भी बढ़ जाती है। ऐसे में गैर जरूरी तौर से डेवलपर की बडी रकम बैंक में संपूर्ण कार्य पूरे हो जाने तक उपयोग नहीं की जा सकती। जबकि कारोबारी एक प्रोजेक्ट से थोड़ा पैसा निकाल कर अगले प्रोजेक्ट में लगाता है, जो कि व्यापार का तरीका है ही।
रेरा के अव्यावहारिक नजरिये और नियमों के ऐसे अनगित मसले हैं,जिनसे कारोबारी तंग आ चुके हैं, लेकिन सरकारी संस्थाओं से बैर लेकर काम किया नहीं जा सकता तो जैसे-तैसे कर रहे हैं। कोई माई-बाप,सरकार सुन रही है?