Importance of One Vote : एक-एक वोट कीमती, जहां मुकाबला कड़ा वहां हिसाब लगाया जा रहा!
Bhopal : रविवार को उन करीब ढाई हजार उम्मीदवारों की किस्मत का फैसला होगा, जिनके पांच साल का राजनीतिक भविष्य 17 नवंबर को ईवीएम में बंद हुआ था। उन उम्मीदवारों के दिल की धड़कन सबसे ज्यादा धड़क रही है, जहां मुकाबला कांटाजोड़ समझा जा रहा है। क्योंकि, जहां उम्मीदवार टक्कर के हैं, वहां एक-एक वोट की कीमत समझी जा रही है। 2018 के चुनाव में भी कई उम्मीदवार 100 और 200 वोटों के अंतर से चुनाव जीते थे। लेकिन, इतिहास देखा जाए तो प्रदेश में एक वोट से भी हार-जीत हुई है।
2008 के विधानसभा चुनाव में धार विधानसभा सीट के चुनाव में भाजपा की नीना वर्मा एक वोट से चुनाव जीती थीं। बाद में साढ़े 4 साल बाद सुप्रीम कोर्ट ने फैसला देकर कांग्रेस के बालमुकुंद गौतम को विजयी घोषित कर बाजी पलट दी थी। इसी साल के चुनाव में पन्ना में कांग्रेस के श्रीकांत दुबे 42, परासिया से भाजपा के ताराचंद बावरिया 93 और दमोह से भाजपा के जयंत मलैया मात्र 130 मतों से चुनाव जीते थे। जबकि, 2018 के चुनाव में 17, 2013 में 11 और 2008 में 18 सीटों पर हार-जीत का फैसला 1% से भी कम वोटों से हुआ था।
इस बार के विधानसभा चुनाव में भी ज्यादातर सीटों पर कड़ा मुकाबला है। प्रदेश की 22 सीटों पर त्रिकोणीय संघर्ष है। यहां दोनों पार्टियों के बागी चुनाव में खड़े होकर अधिकृत उम्मीदवारों के लिए परेशानी का कारण बन गए।
जहां मुकाबला कड़ा, वहां डर भी ज्यादा
भले ही पार्टियों के उम्मीदवार जीत का दावा कर रहे हों, लेकिन संभावित नतीजों से भाजपा और कांग्रेस के बड़े नेता भी डरे हुए हैं। वैसे किनारे पर हार-जीत के सबसे ज्यादा मामले 2008 के विधानसभा चुनाव के हैं। इस चुनाव में 200 से कम वोटों के अंतर से 6 उम्मीदवारों ने चुनाव जीता था। इनमें तीन कांग्रेस और तीन भाजपा के थे।
2013 के विधानसभा चुनाव में सागर जिले की सुरखी विधानसभा सीट से भाजपा की पारुल साहू केसरी 141 वोटों से चुनाव जीती थी। इस चुनाव में जो 11 उम्मीदवार एक प्रतिशत से कम वोटों के अंतर से जीते थे उनमें 6 भाजपा, 4 कांग्रेस और एक बसपा का उम्मीदवार था। 2018 में ग्वालियर (दक्षिण) से कांग्रेस के उम्मीदवार प्रवीण पाठक मात्र 121 वोटों से जीते थे। बाकी की हार-जीत 200 से ज्यादा वोटों से हुई थी।