लोकतंत्र में शक्ति सम्पन शासन के बजाय लुंज पुंज राज से पतन

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लोकतंत्र में शक्ति सम्पन शासन के बजाय लुंज पुंज राज से पतन

कल्पना कीजिये कौन अपने परिवार का मुखिया कमजोर , बीमार और बैसाखियों के सहारे देखना चाहेगा ? कौन घर में शारीरिक रुप से कमजोर बच्चे या दामाद अथवा बहू होने की प्रार्थना करेगा ? भारत को पोलियो से मुक्त होने का गौरव हो सकता है , तो देश में एक मजबूत प्रधान मंत्री और सरकार होने पर गौरव के साथ ख़ुशी क्यों नहीं हो सकती है ? लेकिन इन दिनों राजनीति के अलावा भी कुछ लोग हैं , जो कमजोर और गठबंधन की सरकार की तमन्ना के साथ वैसी स्थिति के लिए हर संभव प्रयास कर रहे हैं | इसका एक कारण लोक सभा चुनाव के बाद प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी को दो क्षेत्रीय दलों का सहयोग लेना पड़ रहा है | सरकार के कुछ निर्णयों को संसद में तत्काल पारित कर लागू करने के बजाय संसदीय समिति आदि से विस्तृत विचार और जरुरत होने पर संशोधन के लिए रख दिया गया | लेकिन इस रुख से प्रधान मंत्री को कमजोर तथा सरकार पांच साल नहीं चल सकने के दावे करके देश विदेश में भ्रम पैदा किया जा रहा है | जबकि अब लोक सभा और राज्य सभा में भी पर्याप्त बहुमत होने से सरकार महत्वपूर्ण विधेयक पारित करवा सकेगी | संविधान में बड़ा संशोधन किए बिना सरकार सामाजिक आर्थिक और सामरिक क्षेत्र में विभिन्न स्तरों पर क्रन्तिकारी बदलाव के फैसले संसद से पारित कर लागू कर सकती है |

प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी से लेकर नरेंद्र मोदी तक की सरकारों के कार्यकाल का गहराई से विश्लेषण किया जाए तो यह साबित हो सकता है कि इंदिरा गाँधी और नरेंद्र मोदी ने सर्वाधिक साहसिक फैसले किए | पहला परमाणु परीक्षण हो या बैंकों और कोल् इंडिया का राष्ट्रीयकरण या 1971 में पाकिस्तान के साथ युद्ध के बाद बांग्ला देश का निर्माण , क्या कमजोर नेतृत्व की सरकार से संभव था | उन निर्णयों को गलत कहने वाले लोग रहे हैं | हाँ इमरजेंसीं बहुत बड़ी राजनीतिक गलती थी ,लेकिन यह प्रधान मंत्रीं के कमजोर होने की परिणिति थी | दूसरी तरफ प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने नोटबंदी , जम्मू कश्मीर से धारा 370 ख़त्म करने , तलाक व्यवस्था विरोधी कानून , संसद और विधान सभाओं में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत स्थान का आरक्षण , ब्रिटिश राज के काले कानूनों के बजाय नई न्याय संहिता लागू करने जैसे क्रन्तिकारी बदलाव अपने दृढ संकल्प और पर्याप्त बहुमत के बल पर किए | आज़ादी के बाद कोई प्रधान मंत्री इतने बड़े कदम नहीं उठा सके \ इससे पहले 1967 ( इंदिरा गाँधी ) , 1977 – 1979 ( मोरारजी देसाई और चरण सिंह ) , 1989 – 1991 ( वी पी सिंह , चंद्रशेखर ) , फिर 1999 तक नरसिंहा राव , अटल बिहारी वाजपेयी , एच डी देवेगौड़ा इंद्रकुमार गुजराल तक की कमजोर सरकारों से कोई बड़े निर्णय नहीं हो सके | इसके बाद अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह की गठबंधन की सरकारों में खींचातानी , घोटालों की मजबूरियों से न केवल राजनीतिक पतन बल्कि आर्थिक विकास में कठिनाइयां आई | गठबंधन के कारण वाजपेयी और मनमोहन सिंह को कई क्षेत्रीय नेताओं के दबाव और भ्रष्टाचार को झेलना पड़ा | इसे राजनीतिक चमत्कार ही कहा जा सकता है कि नरेंद्र मोदी के दस वर्षों के कार्यकाल में किसी एक मंत्री के विरुद्ध घोटाले का कोई प्रामाणिक आरोप सामने नहीं आ सका | राहुल गाँधी या अन्य विरोधी नेता सरकार पर अनेक आरोप लगाते रहे , फिर भी जनता ने तीसरी बार मोदी की सरकार बनवा दी |

केंद्र से अधिक राज्यों में कमजोर मुख्यमंत्रियों तथा दल बदल की अस्थिर सरकारों से राजनीति से अधिक नुकसान सामाजिक और आर्थिक विकास में हुआ | दिलचस्प बात यह है कि 1956 में केरल से दलबदल की शुरुआत हुई और बहुमत वाली कांग्रेस को धक्का लगा | इसके बाद तो केरल में कम्युनिस्ट पार्टियों , मुस्लिम लीग और स्थानीय पार्टियों के गठबंधन की सरकारों तथा कांग्रेस गठबंधन की दोस्ती दुश्मनी का खेल चलता रहा | वह आज भी जारी है | राज्य और केंद्र में दोनों के चेहरे या मुखौटे अलग अलग हैं | पार्टी के कार्यकर्ताओं और जनता के लिए भ्रम जाल ही कहा जा सकता है | हाल के चुनाव में भी राहुल गाँधी के विरुद्ध मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने उम्मीदवार खड़ा किया , पश्चिम बंगाल में भी यही किया | जबकि केंद्र के लिए बने कथित गठबंधन में साथ रणनीति बनाते रहे | दुनिया में ऐसा राजनीतिक मजाक और धोखा शयद ही देखने को मिले | उनके लिए सत्ता का खेल है , लेकिन इस तरह की स्थितियों से केरल अन्य पडोसी दक्षिण के राज्यों से आर्थिक विकास में पिछड़ता गया | साक्षरता में अग्रणी और योग्य लोगों को बड़ी संख्या में खाड़ी के देशों में नौकरी तथा अन्य काम धंधों के लिए दुनिया भर में जाना पड़ा | यही स्थिति पश्चिम बंगाल में हुई , जहाँ कांग्रेस , कम्युनिस्ट , माओवादी , तृणमूल कांग्रेस के माया जाल से सत्तर के दशक तक रहे उधोग धंधे भी बर्बाद हुए और टाटा बिड़ला जैसे उद्योगपति तक अपने उद्योग अन्य राज्यों में ले गए |

पड़ोसी बिहार और झारखण्ड भी दलबदल , जोड़ तोड़ , भ्रष्टाचार , कमजोर मुख्यमंत्रियों और अस्थिर सरकारों से आर्थिक विकास में पिछड़ता गया | भारत रत्न कर्पूरी ठाकुर से नीतीश कुमार तक या कांग्रेस के भागवत झा जैसे ईमानदार मुख्यमंत्रियों को अधिक समय टिकने नहीं देने का नुकसान समाज को हुआ | यह बात जरुर है कि नीतीश कुमार को लगातार जन समर्थन मिला , लेकिन उन्हें अन्य दलों और भ्रष्टतम आरोपी लालू यादव जैसे नेताओं तक का सहारा भी लेना पड़ा | आदिवासियों के लिए संघर्ष से बने झारखण्ड की दुर्गति सबको दिख रही है | उत्तर प्रदेश में 1967 के बाद दल बदल से कई बार अस्थिर सरकारें और कमजोर मुख्यमंत्री रहे | कांग्रेस के राष्ट्रीय नेतृत्व ने कमलापति त्रिपाठी , हेमवतीनंदन बहुगुणा , नारायणदत्त तिवारी जैसे नेताओं को कभी मुख्यमंत्री बनाया , कभी हटाया | सो अब तक राहुल गाँधी और पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे केंद्र में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी को ही नहीं अपने किसी मुख्यमंत्री को मजबूत नहीं देखना चाहते | राजस्थान में अशोक गेहलोत , मध्य प्रदेश में कमलनाथ या उससे पहले ईमानदार मोतीलाल वोरा , पंजाब में कैप्टन अमरेंद्र सिंह , हरियाणा में भूपेंद्र सिंह हुड्डा को मजबूत नहीं होने देने के लिए अपने विधयकों को शह देते रहे | तमिलनाडु गठबंधन की राजनीति से लगातार प्रभावित रहा | पूर्वोत्तर के छोटे राज्य अब थोड़ी राहत पाकर आर्थिक प्रगति कर रहे हैं | अन्यथा अस्थिरता और भ्र्ष्टाचार से बेहद क्षति हुई | आश्चर्य यह है कि इस असलियत को देखने जानने वाले लोग भी केंद्र और राज्यों में अश्थिर गठबंधन की कमजोर सरकारों और मुख्यमंत्रियों को लाने की दुहाई दे रहे हैं |

Author profile
ALOK MEHTA
आलोक मेहता

आलोक मेहता एक भारतीय पत्रकार, टीवी प्रसारक और लेखक हैं। 2009 में, उन्हें भारत सरकार से पद्म श्री का नागरिक सम्मान मिला। मेहताजी के काम ने हमेशा सामाजिक कल्याण के मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया है।

7  सितम्बर 1952  को मध्यप्रदेश के उज्जैन में जन्में आलोक मेहता का पत्रकारिता में सक्रिय रहने का यह पांचवां दशक है। नई दूनिया, हिंदुस्तान समाचार, साप्ताहिक हिंदुस्तान, दिनमान में राजनितिक संवाददाता के रूप में कार्य करने के बाद  वौइस् ऑफ़ जर्मनी, कोलोन में रहे। भारत लौटकर  नवभारत टाइम्स, , दैनिक भास्कर, दैनिक हिंदुस्तान, आउटलुक साप्ताहिक व नै दुनिया में संपादक रहे ।

भारत सरकार के राष्ट्रीय एकता परिषद् के सदस्य, एडिटर गिल्ड ऑफ़ इंडिया के पूर्व अध्यक्ष व महासचिव, रेडियो तथा टीवी चैनलों पर नियमित कार्यक्रमों का प्रसारण किया। लगभग 40 देशों की यात्रायें, अनेक प्रधानमंत्रियों, राष्ट्राध्यक्षों व नेताओं से भेंटवार्ताएं की ।

प्रमुख पुस्तकों में"Naman Narmada- Obeisance to Narmada [2], Social Reforms In India , कलम के सेनापति [3], "पत्रकारिता की लक्ष्मण रेखा" (2000), [4] Indian Journalism Keeping it clean [5], सफर सुहाना दुनिया का [6], चिड़िया फिर नहीं चहकी (कहानी संग्रह), Bird did not Sing Yet Again (छोटी कहानियों का संग्रह), भारत के राष्ट्रपति (राजेंद्र प्रसाद से प्रतिभा पाटिल तक), नामी चेहरे यादगार मुलाकातें ( Interviews of Prominent personalities), तब और अब, [7] स्मृतियाँ ही स्मृतियाँ (TRAVELOGUES OF INDIA AND EUROPE), [8]चरित्र और चेहरे, आस्था का आँगन, सिंहासन का न्याय, आधुनिक भारत : परम्परा और भविष्य इनकी बहुचर्चित पुस्तकें हैं | उनके पुरस्कारों में पदम श्री, विक्रम विश्वविद्यालय द्वारा डी.लिट, भारतेन्दु हरिश्चंद्र पुरस्कार, गणेश शंकर विद्यार्थी पुरस्कार, पत्रकारिता भूषण पुरस्कार, हल्दीघाटी सम्मान,  राष्ट्रीय सद्भावना पुरस्कार, राष्ट्रीय तुलसी पुरस्कार, इंदिरा प्रियदर्शनी पुरस्कार आदि शामिल हैं ।