3-In Memory of My Father: मेरे आदर्श मेरे बाबूजी

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3-In Memory of My Father: मेरे आदर्श मेरे बाबूजी

संतोष श्रीवास्तव

जिंदगी में कई शहर और शहर में रहते हुए कई घर बदले लेकिन हर जगह मेरी एंट्री धमाकेदार हुई ।अब मेरे जन्म को ही ले लें।तब बाबूजी (गणेश प्रसाद वर्मा ) मंडला मध्य प्रदेश में डिस्ट्रिक्ट मैजिस्ट्रेट थे ।खूब बड़ा बंगला ,नौकर-चाकर। मैं उसी बंगले में पैदा हुई ।मैं अभागन अम्मा को भी बहुत पीड़ा हुई मुझे जन्म देते हुए। बाबूजी ने जबलपुर से स्पेशलिस्ट डॉक्टरों की भीड़ इकट्ठी कर ली। मेरे जन्म लेते ही बंगले के अहाते में पुलिस दल ने तीस बंदूकों की सलामी दी थी। दुनिया में पदार्पण का मेरा शोर और पीड़ा भरा वह खास अंदाज ……. शायद इसीलिए बाबूजी हम बेटियों को चिड़िया कहते थे और पांच भाई-बहनों में चौथे नंबर की मैं सबसे लाड़ली थी उनकी।

घर में मेरे लिए अलग नौकरानी थी। बंगले के पीछे दो गायों की गौशाला थी। एक सफेद एक भूरी। भूरी गाय का बछड़ा भी भूरा। मैंने बछड़े का नाम मटरू रखा था। मटरू अहाते में मेरे संग उछलता कूदता था ।मैं उसे छोटी सी लुटिया में पीने को पानी देती थी। लुटिया में उसका मुंह कैसे जाए,मैं बुक्का फाड़ कर रोती कि” मेरा मटरू प्यासा है।”

बाबूजी प्यार से मेरे गाल थपथपाते “मेरी प्यारी गुड़िया,मटरू को लुटिया से पानी पिलाएगी।“पांच छः साल की रही होऊंगी कि एक दिन मैं जीजी के साथ नर्मदा नदी की सैर को गई। वे मुझे किनारे बैठा कर अपनी सखियों के साथ नदी में तैर रही थीं। उन्हें देखकर मैं भी नदी में कूद पड़ी और लहरों के बहाव में बह गई। बचाया जीजी ने । लेकिन नदी के प्रति मेरे मन में ख़ौफ़ समा गया था। घर में मुझे छोड़कर सब तैराक हैं। केवल मुझे तैरना नहीं आता था। बाबूजी मेरे मन का डर निकालने के लिए और तैरना सिखाने के लिए प्रतिदिन नदी ले जाने लगे। लेकिन मैं तैरना नहीं सीख सकी।

बचपन के यानी नौ दस वर्ष की उम्र के वे साल बाबूजी के साथ बहुत तेजी से घटी घटनाओं के साक्षी बन मेरी जिंदगी में गहरे धंसे हैं। आज भी उनसे उबर नहीं पाती हूँ ।

जैसे एक सघन अंधेरा मेरी ओर बढ़ता है। जैसे युग युग की रातें इकट्ठी हो गई हों एक साथ। जैसे सदियों की आंधियां गुजर रही हों मेरे भीतर। बहुत स्पष्ट याद है वह रोमांचक घटना जब बाबूजी कत्ल के केस की सुनवाई कर रहे थे ।सभी पेशियों की गवाहियाँ खूनी को निर्दोष साबित कर रही थीं। विपक्ष मालदार भी था और ताकतवर भी ।धमकियां आनी शुरू हो गईं।बाबूजी ने सरकारी सुरक्षा मांगी ।

दो पुलिस कॉन्स्टेबल बदल-बदल कर घर की ड्यूटी पर तैनात किए गए । मेरे भाई रमेश छाया की तरह बाबूजी के साथ रहते। रात को टॉयलेट भी रमेश भाई की सुरक्षा में जाते ।लेकिन इतनी सुरक्षा के बावजूद बाबूजी पर हमला करने की कोशिश की गई।

रात के 9 बजे होंगे ।खाना खाकर बाबूजी ऊपर के कमरे में बैठकर कानून की और दर्शन की किताबें पढ़ते थे। जैसे ही वे ऊपर पहुंचे और किताब निकालने को अलमारी खोली कि अलमारी के पल्ले की ओर से चमचमाता छुरा उनकी ओर लपका। जाने किस अदृश्य शक्ति के जरिए वे भागे और तेजी से सीढ़ियों पर लुढ़कते चले गए।बाबूजी ने एक काले साए को कमरे की खिड़की से खेतों की ओर कूदते देखा था ।बाबूजी गीता के उपासक, कभी किसी बात से विचलित नहीं होते थे। उन्होंने तेज आवाज में कहा –“कोई घर के बाहर नहीं जाएगा ,हमला हुआ है मुझ पर ।”

फाटक पर तैनात पुलिस कॉन्स्टेबल बस 10 मिनट को ड्यूटी से हटा था कि ताक लगाए बैठे हमलावर को मौका मिल गया अंदर घुसने का ।बंगले की खिड़कियों में ग्रिल नहीं थी। बड़ी-बड़ी खिड़कियां …कोई भी आसानी से अंदर बाहर जा सकता था। पुलिस तहकीकात तो होनी ही थी। खेतों पर खिड़की से कूदने के निशान मिले । ऐन खिड़की के नीचे की फसल दबी ,धंसी मिली। फिर तो आए दिन की धमकियां

” केस वापस लो ,पूरा परिवार मिटा डालेंगे, जीना दूभर कर देंगे।” बाबूजी की सुरक्षा और कड़ी कर दी गई ।घर दहशत में गिरफ्त रहता। सरेशाम से ही दरवाजे बंद कर दिए जाते और बंद करने के पहले पूरा घर तलाशा जाता। कोई छुपा तो नहीं बैठा है। बहरहाल लंबे चले केस का फैसला बाबूजी के सही न्याय से हुआ।कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी मैंने कभी बाबूजी को विचलित होते नहीं देखा।

केस खत्म हो जाने के बाद भी हम बच्चों के चेहरे पर हवाइयां उड़ी रहतीं। नींद में भी हम चौंक -चौंक जाते । बाबूजी ने हमारा यह डर दूर करने के लिहाज से हमें चेंज देने की योजना बनाई ।हनुमान जयंती भी आने वाली थी ।लिहाजा हम सब सूरजकुंड गए ।जहां पुरवा ग्राम के नजदीक हनुमान जी का प्राचीन मंदिर है ।मंदिर में प्रतिष्ठित हनुमान जी की उस दुर्लभ मूर्ति की खासियत यह है कि वह 24 घंटे में प्राकृतिक रूप से (पंडित नहीं बदलते) तीन बार अपना रूप बदलती है ।सुबह 4 से 10 बजे तक मूर्ति बालक जैसी दिखती है। 10 से शाम 6 बजे तक युवा और छह से पूरी रात मूर्ति वृद्ध दिखती है। बाबूजी को ये तीनों रूप देखने थे इसलिए हम सब जीप में सूरजकुंड सुबह-सुबह ही पहुंच गए ।

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क्योंकि हनुमान जयंती थी इसलिए ढेर सारे रंगारंग कार्यक्रम भी मंदिर परिसर में रखे गए ।अखंड रामायण ,भजन, भजनों पर नाचते भक्तगण और विशाल भंडारे में स्वादिष्ट भोजन ।

शाम होते ही हम नौका विहार के लिए मचलने लगे। बाबूजी ने रमेश भाई के साथ मुझे और छोटी बहन प्रमिला को नौका विहार के लिए भेज दिया। सूरजकुंड में नदी का प्रवाह अक्सर शांत रहता है। दोनों किनारों पर गझिन हरियाली और बहाव का कोई छोर नहीं ।जब नाव में बैठे तो सूरज अस्त होने को ही था। नदी भी मानो हनुमान जी के रंग में रंग गई थी ।खूब दूर तक नौका चलती चली गई ,चलती चली गई ।अचानक काले डरावने बादल आसमान पर मंडराने लगे। तेज हवाएं चलने लगीं। हवाओं की गति देख मल्लाह ने नौका तट की दिशा में मोड़नी चाही पर नौका तो बिना पतवार के बही चली जा रही थी ।चारों ओर जलराशि ही जलराशि। किनारा सूझता नहीं था। थोड़ी ही देर में घनघोर बारिश शुरू हो गई और बिजली कड़कने लगी। हम रमेश भाई से लिपटे रोए जा रहे थे ।कभी नौका बाएँ झुक जाती, कभी दाएँ। कभी लहरों पर उछलने लगती। लगता अब गए पानी में।मंडला में नर्मदा नदी का सांस्कृतिक भूगोल - वेदितुम इंडिया फाउंडेशन

अचानक इतनी जोर की बिजली कड़की कि लगा हमारी नौका पर ही गिरी है ।बिजली की चमक में हमने एक दूसरी नाव अपनी ओर आते देखी। नाव पर अम्मा बाबूजी टॉर्च की रोशनी डालते हुए हमारा नाम पुकार रहे थे। बाबूजी नाव पर बिना किसी सहारे के मजबूत स्तंभ से खड़े थे। उनकी नौका के मल्लाह ने हमारी नौका भी अपनी नौका से बांध दी ।अब दो नौकाएँ, दो मल्लाह और जिंदगी की आस छोड़ चुके हम सब। नौका रुकी। घुटने घुटने पानी से होकर हम जहां पहुंचे वह किसी किसान का झोपड़ा था। जब हम सबका रोना थमा तब उसने गुड़ डालकर औटाया हुआ गर्म दूध हमें पिलाया ।उसके पास खाने को कुछ न था। वह अपनी बगिया से पके हुए पपीते तोड़ लाया।

किसान के झोपड़े में रात गुजार कर जब हम घर लौटने के लिए रवाना हुए तो बाबूजी ने बताया- “तूफान बहुत भयानक था।न जाने किस दैविक शक्ति से हमारा बाल भी बांका नहीं हुआ।”

जब हमारी नौका पुरवा गांव के तट पर लगी तो वहाँ कोहराम मचा था। दो नौकाएँ रात के तूफान में लापता थीं। जिनमें करीब तीस लोग सवार थे।

बाबूजी ने बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी जिसे वे काशी हिंदू विश्वविद्यालय कहते थे से संस्कृत में एम ए किया। हमारे पूर्व राष्ट्रपति डॉ राधाकृष्णन के गाईडेंस में दर्शनशास्त्र में पीएचडी की उपाधि और फिर वकालत पास कर सिविल परीक्षाओं में उत्तीर्ण हुए। आज की बीएचयू कही जाने वाली यह यूनिवर्सिटी पूरे विश्व में प्रख्यात थी। और इसमें पढ़ने के लिए लोग लालायित रहते थे। इसके संस्थापक पंडित मदन मोहन मालवीय स्वयं छात्रों की खोज खबर रखते थे। बाबूजी हॉस्टल में रहते थे ।हॉस्टल के सभी विद्यार्थियों से मालवीय जी रात को उनका हालचाल पूछने जाते ।अपने हाथों से खुद दूध बांटते। बाबूजी को संस्कृत में दक्षता हासिल करने की धुन सवार हो गयी ।उन्होंने सारे वेद ,उपनिषद घुट्टी बनाकर पी डाले। गीता उनको कंठस्थ थी ।दर्शनशास्त्र में उनका सानी नहीं था ।सूरज की पहली किरण के धरती को स्पर्श करते ही वे दशाश्वमेध घाट में जाकर स्नान, सूर्य उपासना और योगासन प्राणायाम करते थे।

और यही आदत उन्होंने हम भाई बहनों में भी डाली। 6 साल की उम्र से ही हम सब भाई बहनों को भी सुबह 4:00 बजे उठा कर वे योगासन, प्राणायाम कराते थे और अपने संग दूध के तबेले तक ले जाते जो घर से 1 किलोमीटर दूर था। दूध लाना प्रातः भ्रमण का बहाना था।

फिर बाबूजी को चित्रकारी की धुन चढ़ी सो मुंबई के जेजे स्कूल ऑफ आर्ट से चित्रकारी में उन्होंने डिप्लोमा किया ।पीएचडी के कॉन्वोकेशन की उनकी तस्वीर उनके हाथों खूबसूरत रंगों से चित्रित है ।मैं अंत तक समझ नहीं पाई कि वे मार्क्सवादी थे या दर्शनशास्त्री थे या संस्कृत के प्रकांड पंडित या फिर चित्रकार।

पढ़ाई के दौरान ही उन्होंने दर्शन शास्त्र और मार्क्सवाद की किताबें लिखीं। अपनी लिखी पुस्तक जो शुभचिंतक प्रेस जबलपुर से प्रकाशित हुई थी “सरस्वती पूजन द्वारा विश्व शांति “का परचम लहराते मार्क्सवाद में वे गहरे उतर गए ।कार्ल मार्क्स को लेकर उनके मन में कुछ विवाद भी रहे पर वे यह कहने से नहीं चूकते थे कि जीवन की सबसे सही व्याख्या कार्ल मार्क्स ने ही की है ।वे कर्मकांड के सख्त विरोधी थे और मतवाद को, संप्रदाय को उथली मानसिकता मानते थे।

जब इमरजेंसी लगी।प्रेस की आजादी छिन गई और बुद्धिजीवी वर्ग की जान सांसत में थी कि कहीं पकड़े न जाएं ।जबलपुर के जनवादी आंदोलन से जुड़े कई लेखक पत्रकार सलाखों के पीछे कर दिए गए। कई भूमिगत हो गए ।

चूँकि बाबूजी एडवोकेट थे। कानूनी दांवपेच से परिचित थे ।उन्होंने एहतियात बरती और घर की लाइब्रेरी में जितनी भी संदेहास्पद किताबें थीं उन्होंने आंगन में रखकर होली जला दी। रात 3 बजे विजय भाई प्रेस से उत्तेजित मन लिए घर लौटे। आंगन का नजारा देख उनका धैर्य जवाब दे गया ।हम अवाक और मौन उन किताबों को राख का ढेर होते देखते रहे और वह राख हमारे आंसुओं से भीगती रही। खबर थी कि उसी रात विजय भाई के दोस्त कलकत्ते से निकलने वाली पत्रिका के संपादक सुरेंद्र प्रताप (एसपी) द्वारा संजय गांधी और इंदिरा गांधी पर केंद्रित रविवार के जो अंक निकाले गए थे उन्हें जलाया गया था। एसपी चाहते थे कि विजय भाई कलकत्ता आकर रविवार संभाल लें। लेकिन बाबूजी ने सलाह दी कि मध्य प्रदेश हिंदी भाषी प्रदेश होने के कारण यहाँ पत्रकारिता की जड़ें गहराई तक हैं।

बाबूजी की विद्वत्ता और हर एक विषय की गहराई से जानकारी मेरे लिए आश्चर्य का विषय थी। मैं उस पूर्णिमा की रात को कभी नहीं भूल सकती जब बाबूजी ने बताया था कि आज ऐसी पूर्णिमा है जो 100 साल बाद होती है जब हमारी परछाई 12 बजे रात को चाँद को छूती है।

हम लोग आंगन में पलँग पर लेटे-लेटे जिज्ञासा और आश्चर्य की अनुभूति लिए 12 बजने का इंतजार करते रहे। बाबूजी ने 12 बजने की सूचना देते हुए हमें आंगन में ऐसे एंगल पर खड़ा किया कि…….. दंग रह गई मैं ।मेरी परछाई आंगन से उठकर सीधी चांद को छू रही थी ! बेहद विशाल, एड़ी से सिर तक पूरी परछाई! कैसा करिश्मा था यह। कहीं यह सपना तो नहीं। पर मैं पूरे होशो हवास में थी। यह करिश्मा 2 मिनट का था। मेरी परछाई सीधी चांद को छूकर धरती पर आ गई। हमारे पास कोई कैमरा न था जो इस करिश्मे को कैद करते लेकिन यादों में वह आज भी कैद है ।आज भी मैं चाँद, परछाई और धरती के इस नजारे को ,उस एहसास को महसूस कर रोमांचित हो जाती हूँ। उसी रात बाबूजी ने बताया कि हमें पूरा चाँद कभी नहीं दिखता ।आधा ही दिखता है। आधे चाँद पर हमेशा अंधेरा रहता है ।

माछीवाड़ा में बाबा मालगुजार थे, दादी दहेज में पूरा गांव लेकर आई थीं। खूब संपत्ति थी बाबा के पास। लेकिन बाबू जी का मन इन सब में नहीं लगा । वे जबलपुर आकर वकालत करने लगे और क्रांतिकारी दल में भी शामिल हो गए। अम्मा पूरा घर अपने अकेले के बूते पर संभालती थी। घर की लाइब्रेरी में कानून, राजनीति ,इतिहास और मार्क्सवाद की किताबें थीं। अपनी फुर्सत के वक्त अम्मा ये किताबें पढ़तीं और रात में बाबूजी के साथ इन पर चर्चा करतीं। बाबूजी उन्हें क्रांति ,आजादी के और राजनीति के गुर सिखाते। दर्शनशास्त्र और साहित्य की किताबें पढ़ने के लिए लाकर देते। किताब पढ़ लेने के बाद बाकायदा उस पर विचार विमर्श होता। चर्चा होती। आज जो किताबों के विमोचन की परंपरा चल पड़ी है अम्मा बाबूजी के बीच बरसों चली।

अम्मा के अंदर समाज सेवा की भावना थी बाबू जी ने उनको पूरा सहयोग दिया।कभी घर में कोई भेदभाव नहीं रखा उन्होंने लड़की लड़के में।उन्होंने अम्मा को आदिवासी महिलाओं के लिए कार्य करने की सलाह दी।अम्मा ने 1969 में आदिवासी महिलाओं के लिए महिला संगठन की शुरुआत कर विभिन्न उद्देश्यों पर काम करना शुरू किया। साक्षर बनाना, बेसिक शिक्षा देना, उनके कानूनी एवं सामाजिक अधिकारों के प्रति उन्हें जागरूक करना जैसे उद्देश्यों को लेकर वे आगे बढ़ीं। मध्यप्रदेश के अंचल में बसे गोंड़, बैगा, भील आदिवासियों के फौजदारी के मुकदमे बाबूजी के पास आते थे। जिनसे उस समाज की बहुत कुछ जानकारी हासिल होती थी कि आदिवासी महिलाएं भी पितृसत्ता में जकड़ी हैं।

औरतों का कोई खास महत्व नहीं है। जबकि उनकी तमाम कामों खेती ,गुड़ाई ,कटाई ,झोपड़े बनाना, खेती की उपज मंडला ,बालाघाट आदि शहरों के साप्ताहिक हाट बाजार में जाकर बेचना आदि कामों में पुरुषों के साथ बराबर की भागीदार थी। फिर भी उन्हें समानता, स्वायत्तता और संसाधनों में अधिकार नहीं मिलता था। इसके अलावा हाट बाजार में उन्हें मात्र इस अपराध पर नीलामी पर चढ़ा दिया जाता था कि उन्होंने अपनी मर्जी से शादी की है। उन्हें खेतों की मेड़ों पर निर्वस्त्र घुमाया जाता। क्योंकि उस साल सूखा पड़ा है और इंद्र भगवान इसी से तो प्रसन्न होंगे ।उन्हें डायन, बिसाही जैसे शब्दों से नवाजा जाता और पत्थर, लोहे की छड़ों से पीट-पीटकर उनकी हत्या कर दी जाती। ऐसे तमाम मुकदमों की मूक गवाह अम्मा उतर पड़ीं आदिवासी समाज में।

अम्मा ने संगठन के सदस्यों को लेकर सतपुड़ा की तराई और राई घाटी में बसे आदिवासी बहुल इलाकों का तूफानी दौरा किया और कड़े परिश्रम, कानूनी दांवपेच से उन्हें उनके अधिकार दिलाए ।लोगों ने दाँतों तले उंगली दबा ली जब उन्होंने देखा कि कुछ दबंग आदिवासी औरतें अम्मा के संगठन से आ जुड़ी हैं और वे संगठन की सदस्य हैं ।धीरे-धीरे आदिवासी समाज में औरतों की स्थिति मजबूत होती गई ।उन्हें बहुत हद तक डायन की त्रासदी से छुटकारा मिला क्योंकि उन्होंने समझ लिया था कि डायन कहकर उन्हें नीचा दिखाने वालों की मंशा उनकी संपत्ति हड़पना ,बलात्कार और यौन शोषण ही सिद्ध करती है। हमारे घर के पिछवाड़े का बरामदा जहाँ हम सर्दियों में धूप तापते थे अम्मा के संगठन का ऑफिस बन चुका था। जहाँ दूर-दूर से आदिवासी औरतें अपनी फरियाद लेकर आती थीं।

और यह सब संभव हुआ बाबूजी के सहयोग और अम्मा को उचित मार्गदर्शन देने के कारण।

इधर घर में भी एक चिंगारी धीरे-धीरे सुलग रही थी जिसने हमारे परिवार की चूलें हिला कर रख दी थीं। जीजी को ननिहाल की तरफ के रिश्ते के लड़के से प्रेम हो गया था। जिस दिन इस प्रेम का अंतिम अध्याय खुला अम्मा सदमे की हालत से गुजर रही थीं। जीजी ने आत्महत्या करने की कोशिश की थी और बाबूजी स्तब्ध लेकिन मामले का हल खोजने की कोशिश में थे। जीजी की जिद के आगे बाबूजी को घुटने टेकने पड़े। उस जमाने में यह एक क्रांतिकारी कदम था। हमारे खानदान में आज तक किसी ने प्रेम विवाह नहीं किया था। वह भी रिश्तेदार से !विवाह तो हो गया था पर इस अप्रत्याशित घटना से बाबूजी बीमार पड़ गए। उन्हें विक्टोरिया अस्पताल में भर्ती किया गया। विजय भाई तब नवभारत प्रेस में समाचार संपादक थे। उनके लेखक, पत्रकार दोस्त बारी-बारी से अस्पताल की भाग दौड़ में साथ देते थे ।महीने भर अस्पताल में रहकर बाबूजी घर लौटे। धीरे-धीरे समय ने एक बड़ी करवट ली। रमेश भाई की शादी तय हो गई। बाबूजी की वकालत भी उनकी लंबी बीमारी की वजह से आर्थिक संकट से गुजरने लगी। इधर हम सबकी महंगी पढ़ाई ,शादियां सभी वजहों के कारण घर में तंगहाली ने कदम रख दिया था। बाबा की जायदाद से अम्मा बाबूजी ने कभी एक पैसा भी नहीं लिया था। न बेटे की शादी में दहेज ही लिया।यह उनके उसूलों के खिलाफ था ।

विरक्ति के बावजूद बाबूजी के स्वभाव में फकीरी के साथ-साथ अमीरी भी थी ।गीता के सिद्धांत पर चलने वाले बाबू जी कर्म करते फल की चिंता नहीं करते थे। भविष्य कभी सोचा नहीं। हमेशा आज को जिया और भरपूर जिया। हाईकोर्ट में बाररूम में उनके द्वारा दी दावतें सभी की पसंदीदा थीं। बिना चेहरे पर शिकन लाए अम्मा बड़े बड़े कटोरदानों में दही बड़े, गुझिया, कांजी के बड़े ,मालपुए अपने हाथों से बना कर भिजवातीं।

बाबूजी ने रिटायरमेंट के पहले ही अपने उसूलों के कारण जिला मजिस्ट्रेट के पद से त्यागपत्र दे दिया था और जबलपुर आ गए थे। जहाँ वे ताउम्र वकालत करते रहे ।उन्होंने अपनी वकालत के काल में कत्ल के 40 मुकदमे लड़े और प्रत्येक मुकदमे में उनकी जीत हुई ।

क्योंकि बाबूजी कर्मकांड के सख्त विरोधी थे अतः उनके निधन के बाद किसी भी प्रकार का कर्मकांड नहीं कराया गया। उनके अस्थिपुष्प भी मुंबई में समंदर में विसर्जित कर दिए गए और तेरहवें दिन किसी भी प्रकार का ब्राह्मण भोज न कराकर झुग्गी झोपड़ियों में उनके नाम से रुपया, भोजन बांटा गया। उनका निधन मुंबई में 19 मार्च 1978 को विजय भाई के घर दिल का दौरा पड़ने से हुआ था। सांताक्रुज में छठवें फ्लोर पर विजय भाई रहते थे। मुंबई में ऊंची ऊंची इमारतों के नजदीक झोपड़पट्टी होती है। अम्मा ने बालकनी से इन झोंपड़ों की ओर ढेर सारी चिल्लर लुटाई थी। बाबूजी की अंतिम इच्छा पूरी करते हुए उनके चेहरे पर दिव्य आलोक था।

बाबूजी के निधन के बाद उनके अस्थिपुष्प भी थोड़े बचा कर रख लिए थे ।जिन्हें 21 वर्षों तक अम्मा ने अपने साथ रखा ।उनकी इच्छा थी कि बाबूजी और उनके अस्थिपुष्प साथ में मिलाकर थोड़े नर्मदा और थोड़े गंगा में विसर्जित किए जाएं ।अम्मा बाबूजी के अस्थि पुष्पों का विसर्जन मेरे ही हाथों गंगा के घाट पर हुआ।

मुझे ऋग्वेद का एक श्लोक याद आ रहा है….

सयुजा सखाया द्वा सुपर्णा ।

समानं वृक्षं परिषस्वजाते।।

तयोः अन्यः पिप्पलं स्वादु अत्ति।

अन्यः तु अनश्नन् अभिचाकशीति।।

सचमुच अम्मा बाबूजी सयुजा सखाया ही थे जो जीवन रूपी वृक्ष की डाल पर हमेशा संग संग रहे मित्रवत।

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संतोष श्रीवास्तव     

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