In Memory of My Father / मेरी स्मृतियों में मेरे पिता
पिता को लेकर mediawala.in में शुरू की हैं शृंखला-मेरे मन /मेरी स्मृतियों में मेरे पिता। इसकी बीसवीं क़िस्त में महू से सुप्रसिद्ध कथाकार नीता श्रीवास्तव अपने पिता स्व. श्री कामताप्रसाद श्रीवास्तव के दिल छू लेनेवाले प्रसंगों के साथ उनके जन शताब्दी वर्ष पर उन्हें इस लेख के माध्यम से अपनी भावांजली दे रही है .इसी माह अगर बाऊजी होते तो वे अपना १००वां जन्मदिन मना रहे होते .एक बेटी का अपने पिता से जो रिश्ता होता है ,उसकी स्नेहिल उष्मा और मार्मिक स्मृतियों को नीता जी ने सुन्दर अभिव्यक्ति दी है .यह संस्मरण ही उनकी पिता को सादर भावांजलि है –
पिता जीते हैं इच्छाओं में
पिता की इच्छाएँ
उन चिरैयों का झुंड
जो आता है आँगन में रोज़
पिता के बिखराए दाने चुगने
गंगा-जमुना की आख़िरी बूँद तक
पिता देना चाहते हैं चिरैयों को अन्न
पिता, बने रहना चाहते हैं पिता ।
वे हो जाना चाहते हैं हमारे लिए
ठंडी में गर्म स्वेटर
और गर्मी में सर की अँगौछी– आशीष त्रिपाठी
20.In Memory of My Father: पिता… जो हमारी ‘मां’ भी थे !
१८ अक्टूबर २०२४, तारीख मेरे लिए इसलिए और भी महत्वपूर्ण है कि यह वर्ष मेरे पिता यानी मेरे बाउजी पिता श्री कामताप्रसाद श्रीवास्तव.. का जन्म शताब्दी वर्ष है। मैं प्रायः एकान्त में कल्पना करती हूं कि बाउजी आज होते तो… उनकी स्नेह दृष्टि याद करते ही होंठ भले ही मुस्कुराने लगते हैं, मगर आंखें नम हो जाती हैं। मुझे बार-बार उनकी सारी बातें याद आती हैं। उनका वो आश्वासन… ‘‘क्या बात है… मुझसे बोल।’’ मगर अब.. वे घर में कहीं नहीं नजर आते… आखिरी वक्त में तो बाउजी चल फिर भी नहीं सकते थे, फिर भी चले गए, दूर-बहुत दूर।
बचपन में सिखाया शब्द, तो मिला स्कूल में प्रवेश
बाउजी का जन्म १८ अक्टूबर १९२४ को धार एस्टेट के बहुत छोटे से गांव बगड़ी में हुआ। हमारे दादाजी गरदावर थे वहां, लेकिन वहां शिक्षा की उचित व्यवस्था न होने के कारण बाउजी को दस वर्ष की उम्र में उनसे सोलह वर्ष बड़ी बहन के घर पढ़ने के लिए महू भेज दिया। बुआ का भरापूरा परिवार, फूफाजी स्काउट कमिश्नर… एकदम सख्त, अनुशासन पसंद।
अगले दिन बाउजी को चौथी कक्षा में भर्ती कराना था। आदेश- ‘‘सुबह तक एडमिशन से पहले छोटी-बड़ी ए बी सी डी लिखना-पढ़ना सीखना है, तभी भर्ती होगी चौथी में।’’ कठोड़िया-बगड़ी में दूसरी-तीसरी पढ़े बाउजी ने सारी रात जागकर अल्फाबेट सीख लिया और स्कूल जाने लगे।
खुद रहते ठन ठन..गरीबों का रखते थे ध्यान
फूफाजी के भय-खौफ से ज्यादा, बाउजी को खुद पढ़ने-लिखने का शौक था। मैट्रिक करते ही सबसे पहले मिलिट्री डेरी फार्म में सर्विस लगी और उसके तुरंत बाद रेलवे के ग्रेन शॉप में पदस्थ होते ही उन्हें बम्बई स्थानांतरित कर दिया गया। बम्बई में घर यानी सपना, तो फूफाजी ने बम्बई के आर्य समाज में बाउजी के रहने-सोने की व्यवस्था करवा दी, लेकिन ग्रेन शॉप में बाउजी असहाय निर्धनों को अपनी जेब से पैसा देकर अनाज दिलवा देते। नतीजा ठन-ठन। खुद क्या तो खाएं-क्या बचाएं? रेलवे की नौकरी छोड़ फिर महू आ गए।
आते ही बर्माशैल कम्पनी के महू डिपो से बुलावा आ गए। जाने क्या बात थी बाउजी को हमेशा घर बैठे नौकरियों के प्रस्ताव आए। बचपन से महू में पलते-बढ़ते देख प्रायः बाउजी के व्यवहार, सेवाभाव से परिचित प्रभावित होते मगर बाउजी को सुशिक्षित करने का श्रेय कभी भी उनके जीजाजी को नहीं देते, बल्कि कोरी सहानुभूति दिखाते कि बाउजी ने नौकरों की तरह बहन-बहनोई के घर सेवा की है। यह नजरिया बहुत गलत होता है समाज का… बाउजी ने लोगों की बातों पर कभी ध्यान नहीं दिया और बुआ-फूफाजी से अंत तक मधुर संबंध रखे।
अपनी कार्यक्षमता से हुए सबके प्रिय
बर्मा शैल की सर्विस में बाउजी के पहुंचते ही उनके व्यवहार, कार्यकुशलता की ऐसी छाप लगी कि बाउजी ऑफिसर्स से लेकर पूरे स्टॉफ के चहेते हो गए। उनकी विनम्रता, सज्जनता ही एकमात्र वजह थी कि उनके मित्रों की कमी न थी। मैंने जब होश संभाला बाउजी को पूरे ठाठ-बाट से लकदक देखा। लेकिन सिर्फ ऑफिस टाइम में बाकी घर में वे एक सह्दय पिता, पुत्र एवं पति ही रहे। मैं बाउजी की वह लाड़ली बिटिया रही, जिसका नाम उन्होंने ‘‘मेरे जन्म से पूर्व’’ ही रेणुजी के उपन्यास में पढ़कर चुन लिया था। पांचवी कक्षा तक बाउजी मुझे अपने हाथ से बिटको काला दंत मंजन देकर करते थे। बाई घर में मूंग-उड़द के पापड़ बनाती थी तो उसका आटा कूट-पीटकर तैयार करते थे और दादी-दादाजी को जीवन भर अपने साथ रखा। अगर कभी दोनों काका के घर दादी-दादाजी गए भी, एक-दो महिने के लिए, तो वहां से घबराकर तुरंत आ जाते।
इसके अलावा बाउजी पर अपनी पांच बहनों के ससुराल में होने वाले हर उत्सव, पर्व, मामेरा, बधावे की जिम्मेदारी, जो निभाना उनका फर्ज था। दोनों काका इन झंझटों से मुक्त थे।
मदद के लिए कभी न नहीं करते
यहां तक तो माना बाउजी की बाध्यता या कर्तव्यपराणयता थी मगर इससे दो कदम आगे बाउजी सिद्धांत-‘‘कोई भी मदद मांगे तो कभी ना नहीं करना। रुपए-पैसे की कमी की वजह से किसी काम रूकना नहीं चाहिए। हमारा क्या है हम अपनी जरूरत बाद में पूरी कर लेंगे।’’ कहीं किसी को बेटी को दहेज के बर्तन… तो कहीं फीस.. तो कभी यानी आए दिन। यहां तक कि हमने बाउजी को उधार मांगकर भी उधार मांगने वालो की मदद करते देखा है।
मदद क्या… सिफारिश तक करने में नहीं हिचकते… लेकिन दूसरो की। अपने बच्चों को हमेशा उन्होंने जरूरतें कम करने की शिक्षा दी। यही नजरिया-‘‘हिश्ट् … मेहनत करो, अपने बच्चों की सिफारिश थोड़ी की जाती है।’’
महू जैसे छोटे शहर में रहकर भी उनकी इन व्यवहारिकताओं की वजह से प्रायः हाथ तंग रहता था मगर खर्च में कोई कमी नहीं। इस हालत में बर्माशैल कम्पनी की ओर से महू डिपो बन्द होने की सूचना के साथ ही समस्त पदाधिकारियों के तबादले का आदेश… बाउजी को बम्बई भेजा जा रहा था।
बंबई ट्रांसफर का नाम सुनते ही परिवार का खयाल आया और ली सेवा निवृत्ति
बम्बई? एक बार गए थे तब अविवाहित थे अब तो माता-पिता-पत्नी के साथ पांच बच्चों के अलावा, मातृविहिन भतीजी और उनके घर में ही रहकर बहन की बी.ए. कर रही बिटिया और पत्नी की बहन का बेटा… जो महू वेटरनरी कॉलेज से पढ़ाई कर रहा है। दर्जन भर का परिवार… परेशान हो जाएंगे सब।
एच्छिक सेवानिवृति ले ली। एक मुश्त हजारों रुपए मिलने वाले थे ये सन् १९६४ की बात है। जैसे ही लोगों को खबर लगी मक्खी की तरह भिनभिनाने लगे। सब हितैषी नहीं होते। अपनी-अपनी सलाह देने लगे कोई बिजनेस, दुकान सुझाता, तो कोई सूद पर उठाने की बात करता। बाई ने अपने मायके में अपने पिता को सभी विशेषताओं से भरपूर देखा था। उनके पिता की जिनिंग फेक्टरी होने के साथ जमीन-जायदाद, आम, नीबू, संतरे-मौसम्बी के बड़े बाग थे। बाई ने बाउजी को सलाह दी कि प्राप्त रकम से जमीन खरीदी जाए। जिसे ने कोई चुरा सकता है, न हड़प सकता है, न पैसे की तरह उसके डूबने का खतरा है।
कुछ ही महिनों में कई शहर-गांव में तलाश के बाद बाउजी को महू से ७-८ किमी पर ‘‘कटकटखेड़ी’’ नामक गांव में ही उनतीस बीघा जमीन मिल गई।
शहर से निकल गांव जा पहुंचे
उसी साल मैं छठी कक्षा में पहुंची थी। शहर के मध्य ऑलीशान मकान से एकाएक उठकर हम सब मात्र साठ घरों (कच्चे-झोपड़े) वाले गांव में जा पहुंचे। बिजली-पानी-सड़क-स्कूल का नामोनिशान नहीं। गांव में सब एक ही जाति के… आपस में रिश्तेदारी वाले। दिनभर मेहनत-मजदूरी करते और अंधेरा होते ही लड़ाई-झगड़ा-कोलाहल।
सुनते ही बाउजी नौकरों के साथ लेकर टार्च उठाए चल देते सबको समझाने। हमारा घर गांव से कुछ दूरी पर हमारे खेतों के बीच में बना होने से राहत थी, लेकिन बाउजी को उनके रोग, शोक, और नशा-भाषा की चिंता थी।
गांव वालों को बिमारी-सफाई की सलाह देने के साथ दवा आदि की मदद दयाभाव से करते पर हमारे खेतों में हाली-ग्वालों के अलावा दैनिक मजदूरों को भी काम देने से पहले शर्त रखी जाती थी कि पहली… कोई भी शराब पीकर काम पर नहीं आएगा। दूसरी-आपस में गाली, तू-तुकारा, माता-पिता को डोकरा-डोकरी करके संबोधित नहीं करेगा। बाउजी की सख्ती का असर हुआ। इसके अलावा बाउजी के प्रयास से गांव में बिजली आई। अपनी ही जमीन पर टॉवर लगवा कर एक सरकारी फोन लगवाया। गांव के बच्चों को स्कूल जाने को प्रेरित किया। सर्दी में अपने दर्जन भर सूट के कोट वृद्धजनों को बांट दिए।
यानी सबकुछ शांत, सहज नजर आ रहा था। जान ही न पाए कोई घात लगाए बैठा है।
नहीं भूलने वाली रात….
एक रात… बरसात की रात। गांव से दूर, खेतों के बीच एक अकेला बहुत ही बड़ा… मकान। सामने आंगन के तार पर लटकता सौ वॉल्ट का बल्ब।
यकायत चारों कुत्ते लगातार भौंकने लगे। बाउजी ने घर के अंदर से ही नाम ले लेकर रानी, टीपू, काली और मोती को डांटा भी पर कोई असर नहीं। घड़ी देखी रात के दो बजे… बाई ने कहा-‘‘हो सकता है कोई गाय, भैंस, खुल गई होगी।’’
कुत्तों का भौंकना जारी था बाउजी को बाहर बरामदे में सोए बड़े भैया की फिक्र हुई। उठे और एकदम दरवाजा खोल दिया… दो बंदूकधारी नकाबपोश… बिना घबराए बाउजी बोले-‘‘क्या बात है…’’ तब तक चार-पांच और सामने खड़े हो गए।
बाउजी माजरा समझ गए। शांति से बोले-‘‘जो चाहिए ले जाओ मगर बच्चों-बूढ़ों को हाथ न लगाना।’’ सुबह हमें पता चला, पूरे घर का सामान बिखरा पड़ा। सारी पेटियां, दराज, अलमारियां खुली बिखरी पड़ीं। बाई के सारे जेवर (जो अलमारी में थे) के अलावा भैयाओं और बाउजी के तो सारे नए कपड़े, यहां तक कि जूते-चप्पल तक चादरों में बांधकर बटोर ले गए। पूरा गांव हक्का-बक्का… पुलिस भी आई… कई रात गांव वालों ने भी पहरा दिया.. हम बच्चे भी कुछ दिन डरे, फिर सामान्य दिनचर्या शुष हो गई, किंतु दिल की मरीज बाई यह सदमा सह न सकीं और साल भर बाद २६ सितम्बर श्राद्ध की एकादशी वाले दिन १९७० में उनका ह्दयाघात से निधन हो गया। अब बाउजी पर दोहरी जिम्मेदारी आ पड़ी।
बाबूजी मां बनकर रहे…
जब भी किसी ने हमें ‘‘बिन मां के बच्चे’’ कहकर सहानुभूति जताई, बाउजी ने उसी वक्त उन्हें टोक दिया-‘‘आप चिंता मत दिखाइए… मैं हूं ना… मां से कम हूं?’’
और बाउजी ने वाकई लोगों को निरुत्तर कर दिया। इधर डाका पड़ने के साथ अतिवृष्टि से फसलें चौपट। आय का कोई साधन नहीं तो बाउजी ने फिर सर्विस करनी शुरू की। मोहन मिकिन्स ब्रीवरीज में… इंदौर अप-डाउन करना पड़ता था।
लोगों ने सलाह दी करोड़ों की जमीन है कुछ बीघा निकाल दो। एक इंच नहीं कम होने दी। भैयाओं के विवाह किए… बगैर दहेज या मांग के। सिर्फ देने की नियत रही उनमें।
कभी अपनी मर्जी हम बच्चों पर नहीं थोपी। कोई पाबन्दी नहीं… प्रेमपूर्ण देखरेख। मैं बाउजी की लाड़ली रही, बड़ी कोमलता से पालन हुआ है मेरा।
यह भी पढ़े -19.In Memory of My Father : Silent Message-पिता के लॉकर से निकला वह खामोश संदेश!
कई किस्से ‘‘प्रिय पाठक साप्ताहिक’’ के १० वर्षों से चल रहे ‘‘मेरे कॉलम’’ ‘‘जिंदगी किस्सों की’’ में छप गए हैं। इस अछूते संस्मरण में एक अछूता किस्सा-‘‘बाउजी प्रायः मेरे वैवाहिक जीवन के प्रति फिक्रमंद रहते। कई बार वे घुमा-फिराकर पूछना चाहते कि मैं प्रसन्न हूं? मैं प्रायः चुप रहती थी। विवाह के दो वर्ष बाद मेरी बिटिया के जन्म के बाद बाउजी ने एक रोज बातों ही बातें में पूछा-‘‘बेटा… तू अपनी बिटिया के लिए कैसा दूल्हा चाहेगी।’’
मैंने तपाक से कह दिया- ‘‘बिलकुल इनके जैसा।’’
सुनते ही बोले-‘‘बस्स… हो गई तसल्ली मुझे।’’ मैंने बताया न… बाउजी ने एक मां की तरह हर क्षण मेरा साथ दिया। महू में हमारा मकान बनाने की वजह ही थे बाउजी… पास-पास रहेंगे। हमारे मकान का भूमि पूजन बाउजी ने ही किया था। उन्हीं की देखरेख में मकान बना, हम लोग रिटायर होकर २००९ में यही सैटल होने वाले थे, उससे पूर्व ही ५ दिसम्बर २००५ को बाउजी का देहांत हो गया।
लेकिन इस घर के कण-कण में बाउजी का आशीवार्द है। आज भी कई जन ऐसा कह ही देते हैं-‘‘अरे… कहां गांव-खेड़ें में रह रहे हो। अच्छी हाई-फाई लोकेशन पर मकान होने चाहिए।’’ उन्हें केसे बताऊं कि मेरा वश चले तो मैं इस घर को बाहों में भर लूं, इतना प्यारा है मुझे यह घर। किस-किस को बताएं हाई-फाई लोकेशन तो हमारे दिल में है… जहां मेरे बाउजी हर पल साथ हैं… रहेंगे… पीढ़ी दर पीढ़ी।
सुप्रसिद्ध कथाकार. महू ,मध्यप्रदेश
18.In Memory of My Father :BHU में 1941 में जब डॉ राधाकृष्णन् की मदद से पिताजी का वजीफा 3 रुपए बढ़ा!
आशीष त्रिपाठी की कविता कविताकोष से साभार