जीवन की आपाधापी में…

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जीवन की आपाधापी में…

“जीवन की आपाधापी में” कविता के जरिए महान कवि हरिवंशराय बच्चन ने वह सब अहसास करा दिया, जो आम आदमी शायद ही कर पाता हो। मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल, जो राजनीति का केंद्र है। यहां शक्तिपुंज राजनेता ही हैं। सत्ताधारी हों या विपक्ष में, चाहे मंत्री हों या पूर्व मंत्री, चाहे महापौर हों या पूर्व महापौर, विधायक-सांसद हों या पूर्व विधायक-सांसद…सभी राजनेता जीवन की आपाधापी में खुद के लिए भी वक्त नहीं निकाल पाते। लक्ष्य तय हैं, यदि सत्ता में नहीं हैं तो सत्ता में पार्टी को लाने का लक्ष्य है। पद नहीं है तो पद पाने का लक्ष्य है। एक दल में यदि फील गुड नहीं हो रहा, तो दूसरे दल में जाकर फील गुड करना विकल्प है। पर अफसोस की बात यह है कि किसी के पास इतना भी वक्त नहीं है कि यह समझने की कोशिश कर सके कि जीवन कब तक है और किसी भी पल जीवन का दीपक बुझकर यात्रा का अंत हो सकता है। यह विचार रमेश शर्मा गुट्टू भैया के आकस्मिक अवसान पर मन को झकझोर रहा है। 70 वर्षीय गुट्टू भैया पूरी तरह से सक्रिय थे। रात में विवाह समारोह से लौटे और वही 10-11 मई की दरमियानी रात उनके जीवन की आखिरी रात बन गई। मन में एक विचार आता है कि हिंदू धर्म शास्त्रों में ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास चार आश्रमों की व्यवस्था शायद इसीलिए थी कि व्यक्ति ताउम्र आपाधापी में न घिरा रहे। समय‌ बदला और व्यवस्थाएं भी बदलीं और शायद आजकल पूरा जीवन ही उथल-पुथल और आपाधापी से भर गया।
हरिवंश राय बच्चन की यह कविता मन की सारी उलझनों को बखूबी शब्दों में पिरोती है। शायद यह कविता सबको ही पढ़ना चाहिए और समझना भी चाहिए।‌ कविता इस तरह है-
जीवन की आपाधापी में कब वक्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूं,
जो किया, कहा, माना उसमें भला बुरा क्या।
जिस दिन मेरी चेतना जगी मैनें देखा,
मैं खड़ा हुआ हूँ दुनिया के इस मेले में,
हर एक यहां पर एक भुलावे में भूला,
हर एक लगा है अपनी अपनी दे-ले में,
कुछ देर रहा हक्का-बक्का, भौंचक्का सा,
आ गया कहाँ, क्या करूँ यहाँ, जाऊँ किस जगह?
फ़िर एक तरफ़ से आया ही तो धक्का सा,
मैनें भी बहना शुरु किया उस रेले में,
क्या बाहर की ठेला-पेली ही कुछ कम थी,
जो भीतर भी भावों का ऊहापोह मचा,
जो किया, उसी को करने की मजबूरी थी,
जो कहा, वही मन के अंदर से उबल चला,
जीवन की आपाधापी में कब वक्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ,
जो किया, कहा, माना उसमें भला बुरा क्या।
मेला जितना भडकीला रंग-रंगीला था,
मानस के अंदर उतनी ही कमज़ोरी थी,
जितना ज़्यादा संचित करने की ख्वाहिश थी,
उतनी ही छोटी अपने कर की झोरी थी,
जितनी ही बिरमे रहने की थी अभिलाषा,
उतना ही रेले तेज़ ढकेले जाते थे,
क्रय-विक्रय तो ठंडे दिल से हो सकता है,
यह तो भागा-भागी की छीना-छोरी थी;
अब मुझसे पूछा जाता है क्या बतलाऊं,
क्या मान अकिंचन पथ पर बिखरता आया,
वह कौन रतन अनमोल मिला मुझको
जिस पर अपना मन प्राण निछावर कर आया,
यह थी तकदीरी बात, मुझे गुण-दोष ना दो
जिसको समझा था सोना, वह मिट्टी निकली,
जिसको समझा था आंसू, वह मोती निकला
जीवन की आपाधापी में कब वक्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूं,
जो किया, कहा, माना उसमें भला बुरा क्या।
मैं कितना ही भूलूं, भटकूं या भरमाऊं,
है एक कहीं मंज़िल जो मुझे बुलाती है,
कितने ही मेरे पांव पड़ें, ऊंचे-नीचे,
प्रतिपल वह मेरे पास चली ही आती है,
मुझ पर विधि का आभार बहुत सी बातों का,
पर मैं कृतज्ञ उसका इस पर सबसे ज़्यादा –
नभ ओले बरसाए, धरती शोले उगले,
अनवरत समय की चक्की चलती जाती है,
मैं जहां खड़ा था कल, उस थल पर आज नहीं,
कल इसी जगह पर पाना मुझको मुश्किल है,
ले मापदंड जिसको परिवर्तित कर देतीं,
वे छू कर ही काल-देश की सीमाएं,
जग दे मुझ पर फ़ैसला जैसा उसे भाए,
लेकिन मैं तो बेरोक सफ़र में जीवन के,
इस एक और पहलू से होकर निकल चला,
जीवन की आपाधापी में कब वक्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूं,
जो किया, कहा, माना उसमें भला बुरा क्या।
महाकवि हरिवंशराय बच्चन जी को सादर नमन। कवि का मन जब सारी सोच को अपने मस्तिष्क में समाहित कर लेता है, तभी वह महाकवि बन पाता है। सादर नमन पूर्व विधायक, पूर्व जिला भाजपा अध्यक्ष और अन्य पदों पर रहे स्वर्गीय रमेश शर्मा गुट्टू भैया को। और कामना यही कि जीवन की आपाधापी में, हर व्यक्ति चाहे वह राजनेता हो, नौकरशाह हो या आम आदमी…यह समझ सके कि जीवन का कोई भी पल आखिरी पल बन सकता है। यहां पर जितने भी पल जीने को मिले, उसमें बिना किसी अहंकार के सच्चे मन से “सर्वे भवन्तु सुखिन:” के भाव से सभी जी सकें।